रेबीज बीमारी: जागरूक बनें – निश्चिंत रहें
के.एल. दहिया
पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, कुरूक्षेत्र, हरियाणा
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सार
रेबीज, मानव जाति के लिए सबसे पुरानी बीमारियों में से एक है जो पागल जानवर खासतौर से 95 प्रतिशत मामलों में पागल कुत्ता काटने से फैलती है। यद्दपि, लक्षणोंपरान्त इस बीमारी से पीड़ित जानवरों या मनुष्यों की 100 प्रतिशत मौत हो जाती है लेकिन समय पर घाव को 15 मिनट तक पानी-साबुन से कम से कम 15 मिनट तक धोने और एंटीरेबीज टीका और आवश्यकतानुसार इम्युनोग्लोबुलिन लगाने से 100 प्रतिशत बचाव भी संभव है। ‘एक स्वास्थ्य’ संकल्पना के अंतर्गत पशु चिकित्सा सहित विभिन्न अनुषंगी विभागों की सहायता से वनीय और पालतू जानवरों (कुत्तों) का टीकाकरण, जनमानस में जागरूकता असामयिक होने वाली मौतों को विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत सहित बहुत से राष्ट्रों की विचारधारा 2030 तक रेबीज से होने वाली मौतों को शून्य करने में सक्षम सार्थक सिद्ध हो सकती है। एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण के अंतर्गत यही समय की आवश्यकता भी है।
कीवर्ड: रेबीज, पागल जानवर, कुत्ता, मनुष्य, पानी–साबुन, इम्युनोग्लोबुलिन, टीकाकरण, एक स्वास्थ्य
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रेबीज मानवीय सभ्यता जितनी पुरानी और लक्षणोंपरांत लगभग 100 प्रतिशत जानलेवा बीमारी है जो पागल जानवर खासतौर से कुत्तों (95 प्रतिशत से अधिक मामले) के काटने से फैलती है। रेबीज शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘राभास’ (हिंसा करना) और लैटिन भाषा के ‘रबेरे’ (क्रोध करना) से हुई मानी जाती है। आमतौर पर इस बीमारी से पीड़ित रोगी हिंसात्मक प्रवृति का हो जाता है या प्रतीत होता है या वह क्रोध करने लगता है। ग्रीक भाषा में रेबीज को ‘लिसा या लिटा’ कहते हैं जिसका अर्थ है ‘हाइड्रोफोबिया’ अर्थात पानी से डरना है (Steele & Fernades 1991)। रेबीज से पीड़ित रोगी का नीचे का जबड़ा लक्वाग्रस्त होने के कारण वह पानी को पीने में असमर्थ हो जाता है, जिस कारण ऐसा लगता है कि उसे पानी से डर लगता है। इस बीमारी को हिन्दी भाषा में ‘जलांतक’, ‘अलर्क रोग’ भी कहते हैं।
पहले कुत्ता काटने के बाद पेट में लगाये जाने वाले टीकाकरण से लोग भयभीत रहते थे। लेकिन आज प्रभावी टीके उपलब्ध होने के कारण घबराने की आवश्यकता नहीं रही। आज भी प्रायः यह देखने में आता है कि रेबीज से पीड़ित पशु खासतौर पर कुत्ते के काटने के बाद भी लोग बाबाओं के पास झाड़ा लगवाते हैं, जो कि आधुनिक युग में एक चिन्ता का विषय है। समय पर टीकाकरण ही इस बीमारी बचने का एकमात्र उपाय है। टीकाकरण में देरी, मृत्यु की बेवजह कारण बन सकती है।
प्रमुख जन–स्वास्थ्य समस्या
रेबीज किसी एक समाज, क्षेत्र या राष्ट्र की समस्या नहीं है। अपितु यह संपूर्ण मानवता के लिए बहुत गंभीर समस्या है जिसकी सच्चाई (WHO 2018A & E) यह है कि:
- रेबीज एक मुख्य सामूहिक स्वास्थ्य समस्या है।
- एक बार लक्षण प्रकट होने पर मौत निश्चित है।
- इसके कारण विश्व में हर 15 मिनट में एक मौत होती है।
- मनुष्यों में 95 प्रतिशत रेबीज के मामले कुत्तों के काटने से होते हैं।
- रेबीज से पीड़ित रोगियों में होने वाली कुल मौतों में से लगभग 40 प्रतिशत बच्चे होते हैं।
विश्वभर में 175 लाख लोगों को पशुओं खासतौर से कुत्तों द्वारा काटा जाता है और प्रतिवर्ष लगभग 60,000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है (John et al. 2021)। अकेले भारत में लगभग 20000 से भी ज्यादा व्यक्ति रेबीज के कारण मौत के मुँह में चले जाते हैं (Menezes 2008, Acharya Anita et al. 2012, Bharti et al. 2017)। यह आंकड़ा इससे भी ज्यादा हो सकता है क्योंकि यह सूचनीय रोग नहीं है जिस कारण पशुओं एवं मनुष्यों में रेबीज के लिए सुव्यवस्थित निगरानी नहीं की जाती है। भारत में हर दो सेकंड में एक व्यक्ति कुत्ते के द्वारा काटा जाता है और हर आधे घंटे में एक व्यक्ति की मृत्यु रेबीज बीमारी से होती है (Menezes 2008)।
रेबीज बीमारी का इतिहास
- रेबीज बीमारी लगभग 2300 ईसा पूर्व वर्षों से जाना जाता है (Colville & Berryhill, 2007; Zhu & Liang, 2012)। रेबीज का पहला लिखित रिकॉर्ड एशनुन्ना (लगभग 1930 ईसा पूर्व) के मेसोपोटामिया कोडेक्स में है, जो यह निर्देश देता है कि किसी कुत्ते में रेबीज के लक्षण दिखायी देते हैं तो उसके मालिक को ऐसे उपाय करने चाहिए कि उसका कुत्ता किसी को काटना नहीं चाहिए। यदि किसी अन्य व्यक्ति को पागल कुत्ते ने काट लिया और बाद में उसकी मृत्यु हो गई, तो मालिक पर भारी जुर्माना लगाया जाता था (Dunlop & Williams 1996)।
- चीन में मानव रेबीज का वर्णन पहली बार 556 ईसा पूर्व मास्टर ज़ूओ द्वारा रचित “वसंत और शरद ऋतु के इतिहास पर टिप्पणी” (Commentary on Spring and Autumn Annals) में किया गया था। (Zhu & Liang 2012)।
- भारत में कुत्ते पालने का इतिहास सदियों पुराना है। वैदिक काल में रचित अथर्ववेद में मृत्यु के देवता, यमराज के साथ-साथ एक कुत्ते के चलने का वर्णन है (Menezes 2008)। इसका अर्थ है कि भारत में रेबीज बीमारी का प्राचीन काल से संबंध रहा है।
- नौंवी शताब्दी ईसा पूर्व, ग्रीक के प्राचीन महाकाव्य इलिअद (Iliad) के अनुसार होमर ने रेबीज शब्द का उपयोग किया था, उन्होने आकाश में कुत्ते के आकृति जैसे तारों के समूह का उल्लेख किया, उनके अनुसार यह मानव जाति के स्वास्थ्य पर एक घातक प्रभाव डालता है (Blancou 2004)।
- ऐसा माना जाता है कि लगभग 500 ईसा पूर्व डेमोक्रिटस ने कुत्तों में रेबीज का पहला अभिलेख किया था (Steele & Fernades 1991)।
- प्रथम ईस्वी में डायोस्कोराइड (4-90 ई.) और फिलोमेनोज (1 ई.) दोनों रेबीज से संक्रामित कुत्ते के काटने के बाद रोगोद्भवन अवधि छः सप्ताह से लेकर कई वर्षों तक के बारे में कहा (Tarantola 2017)। औलस कॉर्नेलियस सेल्सस अपनी पुस्तक ‘डी मेडिसिना’ (रोम में 18 और 39 ईस्वी के बीच प्रकाशित) में, एकमात्र लेखक पेडियनस डायोस्कोराइड्स थे, जिसने रेबीज से पीड़ित जानवरों द्वारा किए गए घावों में वायरल इनोकुला की प्रतिकृति पर कुछ प्रभाव डाला (Tarantola 2017)।
- प्रथम शताब्दी में सेलसस एवं उसके समकालिन चिकित्सकों ने स्वीकार किया कि पागल कुत्तों की लार में जहरीला तत्व होता है और सुझाव दिया कि रेबीज काटने वाले जानवर की लार से फैलता है (Steele & Fernades 1991, Tarantola 2017)। गैलेन (130 – 210) ने रेबीज की शुरुआत से पहले काटने वाले पीड़ितों में लक्षणों की अनुपस्थिति को वर्णित किया (Neville 2004)।
- लगभग 300 ईस्वी में, जिन राजवंश के दौरान जी हांग ने मनुष्यों में रेबीज के लंबे समय तक उद्भवन अवधि (50-60 दिन या उससे भी अधिक) का वर्णन किया। जी होंग ने ‘झोउ होउ बी जी फेंग’ (एमरजेंसी फॉर्मूलाज् टू कीप अप वनज् स्लीव) नामक एक पुस्तक संकलित की, जिसमें किसी पागल कुत्ते द्वारा काटे गए रोगी को उसकी बीमारी से ठीक होने में 100 या अधिक दिन लगने का वर्णन मिलता है। जी होंग के अनुसार भले ही हाइड्रोफोबिया किसी पागल जानवर के काटने के बाद नहीं होता है, फिर भी 100 दिनों के बाद तक लक्षणरहित रेबीज की संभावना को पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता हैं। पुस्तक यह भी वर्णित करती है कि पागल कुत्ते के मस्तिष्क का उपयोग हाइड्रोफोबिया को रोकने के लिए किया जाता था, जो कि रेबीज रोग-प्रतिरक्षा चिकित्सा (इम्यूनोथेरेपी) की शुरुआत कही जाती है (Chen & Xie 1999)।
- कॉनराड गेसनर (1516-1565) द्वारा किये शोधकार्य पर उनकी मृत्युप्रांत 1587 में प्रकाशित ‘द हिस्टोरिया एनिमेलिया’ का अनुवाद अंगेजी भाषा में एडवर्ड टॉपसेल ने 1607 में किया और बताया कि एक पागल कुत्ते के काटने के बाद रेबीज का संचरण परिवर्तनशील (इनकॉन्स्टेंट) है। वे लिखते हैं कि पागल कुत्ते द्वारा काटे गए सभी मामलों अनिवार्य रूप से घातक नहीं होते हैं। उन्होंने इस प्रकार लिखा है कि ‘कभी-कभी पागल कुत्ते ने काट लिया है, और कोई नुकसान नहीं हुआ है, इसका कारण यह था, कि उसके सभी दांतों में जहर समान रूप से नहीं है; और इसलिए शुद्ध और स्वस्थ कुत्ते के काटने से घाव खतरनाक नहीं हुआ’(King et al. 2004)।
- जोसेफ-इग्नेस गिलोटिन ने 1766 में प्रस्तावित किया कि काटने वाले कुत्ते से रेबीज संचरण जोखिम का पता लगाने के लिए उसे 15-दिवसीय अवलोकन में रखना चाहिए।
लुई पाश्चर – मानवता को समर्पित व्यक्तित्व (27 दिसंबर, 1822 – 28 सितंबर, 1895)
6 जुलाई, 1885 को शाम के समय जब लुईस पाश्चर के पास अलसैस से तीन लोग आये, तब उस दिन तक पाश्चर 50 कुत्तों को निर्जलित रीढ़ की हड्डी के सस्पेन्शन के साथ लगभग 50 कुत्तों को सफलतापूर्वक एंटीरेबीज का टीका लगा चुके थे। उनके पास आने वाले तीन लोगों में से एक नौ साल का लड़का जोसेफ मिस्टर था, जिसे 4 जुलाई को सुबह 8 बजे एक पागल कुत्ते ने काट लिया था। लड़के को काटने के 14 घाव थे और रेबीज से उसकी मौत अपरिहार्य लग रही थी। 6 जुलाई की शाम को, पाश्चर ने लड़के को टीका लगाया। पाश्चर ने जोसेफ को 6 जुलाई से 16 जुलाई तक 13 टीके लगाये और उसकी जान बच गई (Colville & Berryhill 2007, Rappuoli 2014)। गैर-लाभकारी, गैर-सरकारी “पाश्चर संस्थान” फाउंडेशन 4 जून 1887 को फ्रांस में शुरू किया गया।
भारत में रेबीज नियंत्रण प्रयासों के मील के पत्थर
पाश्चर संस्थान हिमाचल प्रदेश के कसौली (1907), शिलॉन्ग, मेघालय (1917), मुंबई, महाराष्ट्र (1922), कोलकाता, पश्चिम बंगाल (1924), पटना, बिहार (1928) में स्थापित किया गया। रेबीज बीमारी की गंभीरता को देखते हुए समय-समय पर भारत में इसके नियंत्रण के लिए निम्नलिखित मील के पत्थर हैं (GOI 2021):
1907: पाश्चर इंस्टीट्यूट, कुन्नूर, भारत में ‘न्यूरल टिश्यू एंटी-रेबीज वैक्सीन’ का निर्माण किया गया।
1911: डेविड सेम्पल (भारतीय चिकित्सा सेवा के एक अधिकारी) ने सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट, कसौली में कार्बोलाइज्ड डेड वायरस का उपयोग करके सेम्पल एंटीरेबीज वैक्सीन विकसित किया।
1970: पाश्चर संस्थान कुन्नूर, भारत में विकसित बीटा-प्रोपियोलैक्टोन (बीपीएल) निष्क्रिय रेबीज टीका तैयार किया गया।
1995-96: चेन्नई और जयपुर पहले ऐसे शहर जहां पशु जन्म नियंत्रण – एंटी रेबीज टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किया गया।
2001: पाश्चर संस्थान कुन्नूर, भारत में मानव उपयोग के लिए पशुजन्य कोशिका-व्युत्पन्न शुद्ध डीएनए रेबीज टीका विकसित किया गया।
2004: पोस्ट एक्सपोजर प्रोफिलैक्सिस के लिए तंत्रिका ऊतक वैक्सीन को सेल कल्चर वैक्सीन से बदला गया।
2007: 11वीं पंचवर्षीय योजना में रेबीज को प्राथमिक जूनोटिक रोग के रूप में पहचान दी गई।
2007: रेबीज प्रोफिलैक्सिस और सेल कल्चर रेबीज वैक्सीन को अंतःत्वचीय देने के लिए राष्ट्रीय दिशानिर्देश जारी।
2007-12: 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) से रेबीज को नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार ने ‘मानव रेबीज के नियंत्रण के लिए पायलट परियोजना’ पांच शहरों (दिल्ली, अहमदाबाद, पुणे, बैंगलोर और मदुरई) में शुरू की।
2008: तमिलनाडु में, रेबीज नियंत्रण पहल शुरू हुई।
2009: भारतीय पशु कल्याण बोर्ड ने पशुजन्य रेबीज नियंत्रण कार्यक्रम के लिए मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) प्रकाशित की।
2010: पशुजन्य रेबीज नियंत्रण संशोधन नियम, 2010, भारत सरकार-2010।
2012-17: 12वीं पंचवर्षीय योजना में रेबीज के कारण मानव मृत्यु को रोकने के उद्देश्य से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ‘राष्ट्रीय रेबीज नियंत्रण कार्यक्रम’ लागू किया गया।
2015: वर्ष 2015 में पहली बार चार संगठन – विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (WAHO), खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) और रेबीज नियंत्रण के लिए वैश्विक गठबंधन (GARC) – ने रेबीज के खिलाफ एक फोरम के रूप में हाथ मिलाया है और इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए दृढ़ संकल्प लिया। दुनियाभर के बहुत से देशों ने 2030 तक कुत्ते के काटने से होने वाली मानव मौतों को शून्य करने का आहवान किया। इसके बाद, भारत ने ‘राष्ट्रीय रेबीज नियंत्रण कार्यक्रम’ को मजबूत करके रेबीज उन्मूलन के प्रयासों को भी तेज किया गया, जिसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में भी उजागर किया गया है।
2015: राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी), भारत सरकार ने रेबीज प्रोफिलैक्सिस पर संशोधित राष्ट्रीय दिशानिर्देश जारी किए।
2019: राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी), भारत सरकार ने रेबीज प्रोफिलैक्सिस पर राष्ट्रीय दिशानिर्देशों को संशोधित किया।
2021: कुत्तों के काटने से होने वाली रेबीज के उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर “द नेशनल एक्शन प्लान फॉर द एलिमिनेशन ऑफ डॉग-मीडिएटिड रेबीज” (एनएपीआरई) योजना शुरू की गई।
रेबीज का हेतुविज्ञान विकृतिविज्ञान
रेबीज लिसावायरस के कारण होता है जो रबडोविरिडी परिवार (Rhabdoviridae family) से संबंध रखता है। यह एक ऐसा विषाणु है जो तंत्रिका तंत्र पर प्रहार करता है। रेबीज वायरस एक छड़ीनुमा (rod) या बुलेट (Bullet) के आकार में 180 x 75 एन.एम. परिमाप होता है। यह विषाणु एक ओर से गोल या शंखनुमा व दूसरी ओर से समतल या अवतल होता है। इसके दो प्रमुख संरचनात्मक घटक होते हैं:
- राइबोन्यूक्लोप्रोटीन कोर: विषाणु के केन्द्र में कुण्डलीदार जिनोम (Helical genome) को राइबोन्यूक्लोप्रोटीन कोर कहते हैं। यह सिंगल स्ट्रैंडेड (Single stranded), रैखिक (linear), ऋणात्मक-भावना (Negative-sense), अनुभाग-रहित (Un-segmented) आर.एन.ए. (RNA) श्रेणी का विषाणु है।
- बाहरी आवरण: यह विषाणु बाहरी आवरणयुक्त (Envelope) से ढका होता है (Rupprecht 1996, CDC 2011)। बाहरी आवरण के ग्लाइकोप्रोटीन स्पाइक्स, लिपोप्रोटीन आवरण एवं झिल्ली – तीन मुख्य भाग होते हैं।
जिनोटाईप के आधार पर 18 प्रकार के लिसावायरस का पता लगाया जा चुका है जिन्हें निम्नलिखित चार समूहों में बांटा गया है (Bourhy et al., 1993, OIE 2013, Freuling et al. 2014, Singh et al. 2017, WHO 2018E):
फाइलोग्रुप-I
1. रेबीज लिसावायरस 2. यूरोपियन बैट-1 लिसावायरस 3. यूरोपियन बैट-2 लिसावायरस 4. डुवेनहेज लिसावायरस 5. इर्कुट लिसावायरस 6. खुजंड लिसावायरस 7. कोटालहटी बैट लिसावायरस 8. ताईवान बैट लिसावायरस 9. बोकेलोह बैट लिसावायरस 10. अरवन लिसावायरस
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फाइलोग्रुप–II
1. शिमोनी बैट लिसावायरस 2. लोगोस बैट लिसावायरस 3. मोकोला लिसावायरस फाइलोग्रुप–III 4. इकोमा लिसावायरस 5. लिलिडा बैट लिसावायरस 6. वेस्ट कोकेशिन बैट लिसावायरस फाइलोग्रुप–IV 7. आस्ट्रेलियन बैट लिसावायरस 8. गन्नोरुवा बैट लिसावायरस |
रेबीज का विकृतिविज्ञान
रेबीज के विषाणु काटने या चाटने के बाद धीरे-धीरे अक्ष तन्तुओं (Axons) के माध्यम से मस्तिष्क की ओर बढ़ते हैं और समय पर प्रतिरोधक टीकाकरण न हो पाने के कारण प्रभावित जानवर अथवा मनुष्य अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
- प्रवेश स्थल पर विषाणु गुणन: रेबीज से पीड़ित कुत्ते या अन्य पशु के काटने के बाद रेबीज के विषाणु घाव वाले स्थान पर चमड़ी एवं माँसपेशियों के ऊत्तकों में गुणात्तमक रूप से विकसित होते हैं (European Commission 2002, Jackson 2003A, Radostits et al. 2010, Mass. Gov., 2018) और न्यूरोमस्कुलर जंक्शन के माध्यम से तंत्रिका-तंत्र में प्रवेश करते हैं।
- तंत्रिका-माँसपेशिय सन्धिस्थान – न्यूरोमस्कुलर जंक्शन (Neuromuscular junction): यह सन्धिस्थान रेबीज वायरस के लिए तंत्रिका-तंत्र में प्रवेश का प्रमुख स्थान है (Lewis et al. 2000)। चमड़ी एवं माँसपेशियों के ऊत्तकों में गुणात्तमक रूप से विकसित होने के बाद रेबीज विषाणु न्युरोमस्कुलर जंक्शन पर निकोटीनिक एसिटाइलकोलीन रिसेप्टर्स से मिलकर तंत्रिका-तंत्र में प्रवेश करते हैं (Lentz et al. 1982, Jackson 2003A)। निकोटीनिक एसिटाइलकोलीन रिसेप्टर्स के अतिरिक्त रेबीज के विषाणु तंत्रिका कोशिका आसंजन अणु – Neural cell adhesion molecule (Thoulouze et al. 1998) एवं पी-75 न्यूरोट्रोपिक रिसेप्टर्स (Tuffereau et al. 1998) के माध्यम से भी तंत्रिका-तंत्र में प्रवेश करता है। लेकिन कृन्तकों (Rodents) पर हुए शोध यह भी दर्शाते हैं कि रेबीज माँसपेशिय ऊत्तकों में बिना गुणात्मक हुए, सीधेतौर पर तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं में प्रवेश कर जाते हैं व ऐसे रोगियों में रोगोद्भवन काल बहुत छोटा हो जाता है (Shankar et al. 1991, Jackson 2002)।
- केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में रेबीज वायरस का परिवहन (Transport of rabies virus to the CNS): रेबीज वायरस परिधीय तंत्रिकाओं (Peripheral nerves) और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (Central nervous system) में अक्षतन्तुओं (Axons) के माध्यम से 12 से 100 मि.मी. प्रति दिन की दर से फैलता है (Kucera et al. 1985; Lycke & Tsiang 1987; Tsiang et al. 1991)। वायरस के मस्तिष्क में पहुंचने के बाद व्यक्ति-विशेष के व्यवहार में परिवर्तन देखने को मिलता है।
- तंत्रिकाकोशिकीय दुष्क्रिया एवं मृत्यु (Neuronal dysfunction and death): जैसे ही विषाणु मस्तिष्क में पहुंचता है, यह लार ग्रंथियों में अपना काम करता है जहां इसकी बहुतायत में प्रतिकृति (Replication) होती है और पीड़ित जानवर की लार में आता रहता है ( Gov. 2018)। इस समय पीड़ित जानवर संक्रामक हो जाता है और काटने के माध्यम से रोग को अन्य जीवों में प्रसारित करता है। रोग से संक्रमित होते हुए भी पहले तीन दिन तक रोगी में रोग के लक्षण स्पष्ट नहीं होते हैं लेकिन काटने या चाटने पर विषाणुओं को स्वस्थ जानवर में लार के माध्यम से संचारित कर सकता है।
- मृत्यु: तीन दिन के बाद, यह विषाणु मस्तिष्क में ऊतकों को पर्याप्त रूप से संक्रमित कर देता है जिससे प्रभावित जानवर के व्यवहार में मस्तिष्क की तंत्रिका कोशिकाओं की मृत्यु होने से (Iwasaki & Tobita 2002, Jackson 2002) अप्रत्याशित बदलाव दिखायी देने शुरू हो जाते हैं ( Gov., 2018) और पीड़ित पशु या मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।
रेबीज वायरस की पर्यावरणीय संवेदनशीलता
रेबीज के विषाणु 20 डिग्री सेल्सियस पर शवों में 3 – 4 दिनों के लिए जीवित रहते हैं, लेकिन 4 सेल्सियस पर 18 दिन तक रह सकते हैं (McElhinney et al. 2014, Sykes & Chomel 2014)। शरीर से बाहर रेबीज वायरस के जिंदा और संक्रमण करने योग्य मात्रा से संबंधित डेटा बहुत सीमित है, और इसका आकलन करना आसान बात नहीं है। प्राकृतिक रूप से रेबीज से संक्रमित लोमड़ी की लार पर किये गये एक शोध के अनुसार कांच, धातु या पत्तियों जैसी सतहों पर पतली परत में, 5 डिग्री सेल्सियस पर सबसे लंबे समय तक जीवित रहने की अवधि 144 घंटे, 20 डिग्री सेल्सियस पर, कांच और पौधों की पत्तियों पर 24 घंटे और धातु पर 48 घंटे के लिए तक सक्रिय रहता है। 30 डिग्री सेल्सियस पर, सूर्य के प्रकाश के संपर्क रेबीज वायरस 1.5 घंटे में निष्क्रिय हो जाता है लेकिन सूर्य के प्रकाश के बिना 20 घंटे तक सक्रिय रहता है (Matouch et al. 1987)।
पशुओं में संवेदनशीलता
रेबीज मानव सहित सभी गर्म रक्त वाले स्तनपायी जीवों में पाया जाने वाला घातक रोग है (Rupprecht et al. 2008, Radostits et al. 2010, TN DH 2017)। रेबीज के संबंध में पशुओं में संवेदनशीलता ध्यान देने योग्य है। पशुओं में रेबीज के प्रति संवेदनशीलता इस प्रकार है (Radostits et al. 2010, Sykes & Chomel 2014):
- भेड़िये, लोमड़ियाँ, कोयोट्स, गीदड़, कुत्ते, मवेशी, रेकून, स्कंक्स, चमगादड़, और नेवले आदि रेबीज संक्रमण के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं।
- बिल्लियाँ, फेरेट, प्राइमेट्स, भेड़, बकरियां और घोड़े आदि मध्यम रूप से संवेदनशील हैं।
- मार्सुपियल्स जैसे कि ओपोसम संवेदनहीन होते हैं यदि संवेदनशीलता है भी तो कम होती है।
संग्राहक जानवर
चमगादड़, रैकून, स्कंक्स, और लोमड़ी रेबीज के ऐसे मेजबान पशु हैं जिनमें रेबीज वायरस लक्षणरहित भण्डारित रहता है जो अन्य पशुओं में संचारित करने का कार्य करते हैं (TN DH, 2017)। वैम्पायर चमगादड़ एवं स्कंक्स रेबीज रोग के संग्राहक मेजबान जानवर हैं (Mayer & Donnelly 2013)। हालांकि, विश्व में खासतौर से फिलीपींस में रेबीज के सबसे अधिक मामले कुत्तों के काटने के बाद होते हैं लेकिन ईरान में भेड़िये, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में गीदढ़, भारत में गीदढ़ और नेवले रेबीज के मुख्य संग्राहक हैं (Nadin-Davis & Bingham 2004)।
रेबीज बीमारी से प्रभावित महाद्वीप
मानव रेबीज अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों में मौजूद है (Rupprecht et al. 2008, Gemechu 2017, WHO 2021)। रेबीज से अधिकांश मौतें एशियाई और अफ्रीकी देशों में होती हैं (Knobel et al. 2005)। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों में विश्व के कुल रोगियों का लगभग 95% रेबीज के रोगी होने की सूचना है (Gemechu 2017, WHO 2018C)।
आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड ऐसे राष्ट्र हैं जिनमें रेबीज नहीं पायी जाती है (Radostits et al. 2010, Singh et al. 2017)। हालांकि, रेबीज से इथियोपिया सबसे बुरी तरह से प्रभावित है (Hampson et al. 2015) लेकिन सबसे ज्यादा मौतें भारत में ही होती हैं (Gemechu 2017)।
भारत में रेबीज मुक्त राज्य
भारत में गोवा राज्य रेबीज मुक्त होने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार 2018 के बाद से राज्य में रेबीज का एक भी मामला सामने नहीं आया है (Mission Rabies 2021)। अंडमान, निकोबार और लक्षद्वीप के भारतीय द्वीप ऐतिहासिक रूप से रेबीज मुक्त रहे हैं (Isloor et al. 2019)।
रेबीज संचरण
रेबीज इन्सानों या पशुओं में एक जैसे तरीके से फैलता है। यह मुख्य रूप से जब पागल कुत्ता किसी मनुष्य या किसी पशु को काटता है तो उसकी लार काटने वाले स्थान के माध्यम से उसमें चली जाती है और रेबीज विषाणु शरीर में तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है और मनुष्य/ पशु रेबीज की गिरफ्त में आ सकता है। विषाणु के मस्तिष्क में पहुंचने के बाद व्यक्ति-विशेष के व्यवहार में परिवर्तन देखने को मिलता है।
रेबीज विषाणु तीन तरीकों से संचरित होता है:
- प्रत्यक्ष संचरण: रेबीज से संक्रमित जानवरों की लार संक्रामक होती है जो नैदानिक लक्षण दिखायी देने से पहले कुछ हफ्तों से लेकर मृत्यु तक संक्रामक होती है। रेबीज विषाणु आमतौर पर जानवर के काटने से शरीर में प्रवेश करता है, लेकिन खरोंच जैसे खुले घाव या श्लेष्म झिल्ली के साथ संपर्क के द्वारा भी शरीर में प्रवेश करता है (Mayer & Donnelly 2013)।
- अप्रत्यक्ष संचरण: प्रयोगशालाओं में कार्य करने वाले व्यक्तियों में रेबीज विषाणु एरोसोल अर्थात वायु एवं मुख के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं (Dean et al. 1963, Ramsden & Johnston 1975, Afshar 1979, Davis et al. 2007, Mayer & Donnelly 2013)।
- एक प्राणी से दूसरे प्राणी में: एक प्राणी से दूसरे प्राणी में संचरण होता है (Fekadu et al. 1996) लेकिन कुछ शोध इसके संचरण की संभावना बहुत कम होने की चर्चा अवश्य करते हैं लेकिन ये शोध बताते हैं कि अंग प्रत्यारोपण के दौरान एक प्राणी से दूसरे प्राणी में संचरण होता है (Simani et al. 2012, Mayer & Donnelly 2013, Aguèmon et al. 2016)।
यद्दपि वायु संचार के माध्यम से रेबीज फैलने की संभावना कम ही होती है लेकिन अमरिका की गुफाओं में रहने वाले चमगादड़ों पर हुए शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि एरोसोल अर्थात वायु के माध्यम से भी रेबीज विषाणु संचरित होता है (Dean et al. 1963, Afshar 1979, Davis et al. 2007, Mayer & Donnelly 2013)।
मनुष्यों और जानवरों में रेबीज के लिए व्यवस्थित निगरानी भारत में नहीं की जाती है और चमगादड़ों में रेबीज की निगरानी के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया है। नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के अनुसार भारत में पाये जाने चमगादड़ों में रेबीज वायरस नहीं पाया जाता है (NCDC 2020), लेकिन नागालैंड में किये गये एक शोध में 5.1 प्रतिशत चमगादड़ों के सीरम परीक्षण में रेबीज निष्क्रिय एंटीबॉडी पाये गये हैं जो रेबीज वायरस या संबंधित लिसावायरस के जोखिम का संकेत देते हैं (Mani et al. 2017)। रेबीज से पीड़ित व्यक्ति के अंगों का प्रत्यारोपण जैसे कि आँख की पुतली का प्रत्यारोपण (Corneal transplantation) करने से भी हो सकता है (Simani et al. 2012, Aguèmon et al. 2016)।
रेबीज के असामान्य लक्षण सर्वविदित हैं जिन में से कामेच्छा होना एक लक्षण भी हो सकता है। रेबीज से पीड़ित कुछ महिला रोगियों में अत्यधिक यौन इच्छा पायी गई है (Dutta 1996, Senthilkumaran et al. 2011)। रेबीज से पीड़ित रोगी में प्रारंभिक अवस्था में इसके लक्षण स्पष्ट न होने के कारण चुंबन और संभोग के दौरान रेबीज के फैलने का खतरा होता ही है (WHO 2013B), लार में संक्रामक रेबीज वायरस मौजूद हो सकता है।
रेबीज से पीड़ित गर्भवती महिला से उसके गर्भस्थ शिशु को रेबीज विषाणु का संचरण संभव है (Afshar 1979, Sipahioğlu & Alpaut 1985, Aguèmon et al. 2016), लेकिन यह दुर्लभ है, क्योंकि रेबीज विषाणु रक्त में मौजूद नहीं होता और गर्भस्थ बच्चे के श्लेष्मात्मक उत्तक मातृ संक्रमित तरल पदार्थ और ऊतकों का संपर्क सीमित होता है। रेबीज से पीड़ित कई गर्भवती महिलाओं ने स्वस्थ बच्चों को जन्म भी दिया है (Singh et al. 2017)।
स्तनपान कराने वाली माता से दूध पीने वाले शिशुओं में रेबीज संचरण को अमानवीय स्तनधारियों में वर्णित किया गया है और इसी कारण से माना जाता है कि मनुष्यों में भी दूध पिलाने वाली माताओं से उनके शिशुओं में रेबीज होने की संभावना व्यक्त की गई है (Afshar 1979)। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह एक प्रासंगिक सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम पैदा नहीं करता है (WHO 2018E)।
रेबीज संक्रमण को प्रभावित करने वाले कारक
रेबीज संक्रमण निम्नलिखित कारकों से प्रभावित होता है:
- पशु ने शरीर के किस जगह अर्थात सिर, गर्दन, बाजू या हाथों पर काटा है। मस्तिष्क के जितना ज्यादा नजदीक काटा जाएगा रेबीज संक्रमण उतना जल्दी होगा।
- जोखिम का प्रकार जैसे कि रेबीज पशु के संपर्क में आए हैं या उसने आपको काटा है।
- काटने की गंभीरता: यदि काटने वाले स्थान से खून निकाल रहा हो तो रेबीज संक्रमण उतना जल्दी होगा।
- रेबीज विषाणु की मात्रा शरीर में कितनी गई है।
- किस जानवर ने काटा है।
- व्यक्ति विशेष की प्रतिरक्षा प्रणाली: बच्चे, बूढ़े या बीमार इन्सानों को रेबीज संक्रमण जल्दी होने की संभावना है।
रोगोद्भवन काल
रेबीज रोग का रोगोद्भवन काल बहुत ही अस्थिरतापूर्ण है जो 5 दिन से लेकर कई वर्ष (6 वर्ष से भी अधिक) होता है लेकिन आमतौर पर यह 1 से 3 महीने का होता है (Rupprecht 1996, Boden 2005, Bharti et al. 2017, Singh et al. 2017, WHO 2018E)।
जानवरों में रेबीज के लक्षण
- लकवाग्रस्त रेबीज: लंगड़ापन, एक पाँव से दूसरे पाँव पर भार बदलना, टखने आपस में टकराना, चलते हुए आरोही गतिभंग, पक्षाघात, अतिसक्रियता, टांगों पर स्वयं अंग-भंग कर लेना, 3-5 दिन तक लेटे रहना लेकिन खाना-पीना सामान्य रहता है (Wilson 2012)।
- अस्पष्ट रेबीज: अवसाद, क्षुदा अभाव, सिर मोड़ना, चक्कर काटना, गतिभंग, मनोभ्रंश, अतिलारीय स्राव, सुस्त, चेहरे एवं ग्रसनी का पक्षाघात, अंधापन, ढीली पूंछ एवं गुदा, मूत्र टपकना, स्वयं अंग-भंग इत्यादि (Wilson 2012)।
- उत्तेजक रेबीज: रेबीज की इस अवस्था में आक्षेप, अतिलारीय स्राव, चिड़चिड़ा, आक्रामकता, जलांतक या पानी निगलने में कठिनाई, फोटोफोबिया, ऐंठन, चक्कर काटना, अतिसक्रियता, अन्य प्राणियों को बिना चेतावनी के काट लेना या अखाद्य वस्तुओं को काटना, अतियौनाचार, स्वयं अंग-भंग इत्यादि (Wilson 2012)।
अन्य लक्षण: अंधापन, सिर संपीड़ना, क्षुदा अभाव, कब्ज, नरों में पैराफिमोसिस, जठरांत्र लक्षण, जननांग-मूत्र लक्षण इत्यादि (Wilson 2012, Mayer & Donnelly 2013)। रेबीज रोग की विशेषता है कि इसके एक ही समय में दो रूप मौजूद हो सकते हैं। जानवरों में रेबीज रोग की लक्षणोपरान्त 5 से 10 दिन (Wilson 2012) की अवधि होती है?
मनुष्यों में रेबीज के लक्षण
मनुष्यों में रेबीज के प्रारंभिक लक्षण फ्लू के समान जैसे कि सामान्य कमजोरी या बेचैनी, बुखार एवं सिर दर्द ही होते हैं (CDC 2012)। ये लक्षण 2-4 दिनों तक दिखायी दे सकते हैं। रोग की प्रारंभिक अवस्था में शरीर पर काटने के स्थान पर असुविधाजनक रूप से दर्द, खुजली या बेचैनी हो सकती है (CDC 2012) जो लगभग 80 प्रतिशत रोगियों में देखने को मिलती है। अगले 2-4 दिनों के दौरान जैसे-जैसे रोग बढ़ता है वैसे-वैसे प्रमस्तिष्कीय दुष्क्रियता, व्याकुलता, मतिभ्रम, उत्तेजना इत्यादि भी बढ़ती जाती है (CDC 2012)। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है तो रोगी में सन्निपात, अस्वाभाविक व्यवहार, अतिमतिभ्रम तथा अनिंद्रारोग इत्यादि लक्षण दिखायी देने लगते हैं (CDC 2012, Singh et al. 2017)।
इन लक्षणों के अतिरिक्त रोगी में जलांतक, वायुभीति, कभी क्रोध तो कभी उदासी, चिड़चिड़ापन (Irritability), अनियंत्रित अतिक्रियाशीलता, बोलने में असमर्थता, खाने व पानी निगलने में असमर्थता, सांस लेने में तकलीफ, शोर से परेशानी इत्यादि होती है। जैसे-जैसे रोगी मृत्यु के नजदीक पहुंचता है तो उसे दौरे पड़ने के साथ-साथ लकवा भी हो जाता है; अचेतन अवस्था में होने के उपरान्त उसकी मौत हो जाती है। बीमारी के अन्तिम चरण में केवल पानी की तरफ दृष्टि करने मात्र से रोगी की गर्दन और गले में ऐंठन उत्पन्न हो जाती है। सामान्यत: लक्ष्णोंपरान्त 2-10 दिन तक ही रोगी व्यक्ति जीवित रहता है।
रेबीज निदान
आमतौर पर रेबीज का निदान मृत्यु के बाद किया जाता है लेकिन कुछ ऐसे टेस्ट हैं जिनका उपयोग मृत्युपूर्व भी किया जाता सकता है। त्वचा बायोप्सी (Skin biopsy) इम्यूनोहिस्टोकेमिस्ट्री का उपयोग करके रेबीज के नैदानिक लक्षणों से पहले निदान के लिए एक उपयोगी सामग्री के रूप में काम कर सकती है (Sandhu et al. 2012)। वायरल न्यूक्लिक एसिड का पता लगाने की तकनीक, जैसे कि रिवर्स ट्रांसक्रिपटेस और पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (आरटी-पीसीआर) या अन्य न्यूक्लिक एसिड एम्प्लीफिकेशन और डिटेक्शन मेथड्स (जैसे एनएएसबीए – न्यूक्लिक एसिड सीक्वेंस बेस्ड एम्प्लीफिकेशन), क्लिनिकल सैंपल जैसे लार, गृद्दी की त्वचा (न्यूकल स्किन), बालों के रोम, आँसू, मूत्र और मस्तिष्कमेरु द्रव (सीएनएस) ने परीक्षण समय को कम करने में सफलता प्राप्त की है। ये परीक्षण विश्व स्तर पर कई केंद्रीकृत और संदर्भित प्रयोगशालाओं में नियमित रूप से मृत्युपूर्व रेबीज परीक्षण के लिए उपयोग किये जाते हैं। इस तरह के परीक्षण कम पीड़ा करने वाली तकनीकों द्वारा प्राप्त नैदानिक नमूनों में रेबीज की मृत्युपूर्व पुष्टि करते हैं और इसलिए शव परीक्षा या पोस्टमॉर्टम मस्तिष्क बायोप्सी की आवश्यकता को कम कर सकते हैं (Rupprecht et al. 2018)।
रेबीज जैसे लक्षणों वाली बीमारियाँ
पशुओं में मुँह पका-खुर पका रोग, गलघोटू, सर्रा, विटामिन बी1 की कमी और खाने की वस्तु का पशु के गले में फंसना आदि इस बीमारी से भ्रमित करते हैं। पशुओं में पागलपन, मुँह से लार टपकना या गले में रुकावट जैसे लक्षण की स्थिति में पशुचिकित्सक से जांच व इलाज करवाना चाहिए।
मनुष्यों में रेबीज बीमारी जैसे लक्षण अन्य कई बीमारीयों जैसे कि स्यूडोरेबीज, डिस्टेम्पर विषाणु संक्रमण; वेस्ट नाइल विषाणु संक्रमण; इक्वाईन एनसेफालाइट विषाणु संक्रमण; जीवाणु, प्रोटोजोआ, या फंगस मेनिंगोएन्सेफलाइटिस; स्ट्रिक्निन जैसे विषाक्त पदार्थ; केंद्रीय तंत्रिका तंत्र आघात; रीढ़ की हड्डी में नियोप्लासिया; ग्रेनुलामेटस मेनिंगोएन्सेफलाइटिस इत्यादि में भी पाए जाते हैं (Sykes & Chomel 2014)।
रोगी का उपचार
हालांकि, एक बार लक्षण उत्पन्न होने के बाद रेबीज 100 प्रतिशत घातक कही जाती है लेकिन विश्व में 15 मनुष्य ही रेबीज से लक्ष्णोपरान्त बच सके हैं (WHO 2018E)। रोगी को आराम से रखने के अलावा लगभग कुछ भी नहीं किया जा सकता है, और शारीरिक दर्द और भावनात्मक परेशानी से ही मुक्त करने का प्रयास किया जा सकता है (de Souza & Madhusudana 2014, Subramaniam 2016, WHO 2018E)।
रोगी का इलाज करते या करवाते समय ध्यान योग्य सावधानियाँ
कुछ रोगियों के बच जाने से रेबीज रोगियों के बचने की संभावना बढ़ी है अत: रोगियों के लिए संभव इलाज के साधनों पर विचार करते हुए, निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए (Hemachudha et al. 2013, WHO, 2013B):
- रेबीज कुछ जानवरों में निरपवाद रूप से घातक नहीं है, लेकिन आज तक मनुष्यों में कुछ ही रोगी बचे हैं।
- वर्तमान में, यह भविष्यवाणी करना संभव नहीं है कि कौन से रोगियों के ठीक होने की संभावना है।
- सभी बचे हुए रोगियों में अच्छी प्रतिरक्षा प्रतिरोधकता पायी गयी है।
- प्रबंधन प्रोटोकॉल, रोगप्रतिरोधकता बढ़ाने वाली प्रक्रियाओं तथा नई विषाणुनाशक दवाओं के अध्ययनों ने इस पर शोध करने के लिए प्रोत्साहित किया है।
- रोगी का उपचार सुरक्षित साबित होना चाहिए और रोगी को अधिक नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए।
जोखिम-पूर्व टीकाकरण
यदि आप रेबीज प्रभावित क्षेत्र में रहते हैं तो पीड़ित जानवर के काटने से पहले ही टीकाकरण करवाया जाता है तो इसे जोखिम-पूर्व टीकाकरण कहते हैं। निम्नलिखित व्यक्तियों या बच्चों का जोखिम-पूर्व प्रतिषेधोपचार करना चाहिए:
- व्यक्ति, जो लगातार, बारम्बार रेबीज विषाणुओं के जोखिम में रहता है, जैसे कि रेबीज या लिसावायरस से संबंधित प्रयोगशाला में कार्य करते हैं, पशु चिकित्सक और पशुओं को पकड़ने वाले परिचर।
- यात्री, जो रेबीज विषाणु से प्रभावित क्षेत्रों में घूमते हैं।
- बच्चे, जो रेबीज प्रभावित क्षेत्रों में रहते हैं अथवा विचरण करते हैं
जोखिम-पूर्व टीकाकरण रेबीज प्रभावित क्षत्रों में संभावितों को 0, 7, 21 या 28 दिन पर 1.0 मि.ली. अंतःपेशीय (Intramuscular) या 0.1 मि.ली. अंत:त्वचीय (Intradermal) टीकाकरण करना चाहिए। ‘0’ को टीकाकरण का पहला दिन माना जाना चाहिए (WHO 2013B, NCDC 2015)।
जोखिम-पश्चात टीकाकरण
संक्रमित पशु के काटने से जख्म बनते हैं अत: जोखिम-पश्चात टीकाकरण के साथ-साथ जख्मों का प्राथमिक उपचार एवं रेबीज इम्युनोग्लोबुलिन लगाना शामिल होता है। यदि किसी व्यक्ति को कोई जानवर काट लेता है तो घाव का इस प्रकार इलाज करें:
- घाव को तुरन्त पानी की तेज धार व साबुन (Dodet 2007, WHO 2017) के साथ 15 मिनट तक धोना चाहिए। साबुन एवं पानी से घाव धो लेने से ही रेबीज होने की संभावना एक-तिहाई कम हो जाती है (Salahuddin 2007)। यदि साबुन समय पर उपलब्ध नहीं है तो अकेले पानी से ही घाव को धो लेना चाहिए। यह रेबीज के प्रति सबसे प्रभावी प्राथमिक चिकित्सा उपचार है।
- सही चिकित्सकीय सुविधा के लिए संक्रमित व्यक्ति को नजदीकी स्वास्थ्य केन्द्र में ले जा कर इलाज करवाना चाहिए।
- सबसे गंभीर घावों को सर्वश्रेष्ठ दैनिक रोगाणुरोधक वर्णोपचार (एंटीसेप्टिक ड्रेसिंग) जैसे कि एल्कोहॉल/इथेनॉल या पॉवीडोन-आयोडीन इत्यादि द्वारा किया जाता है, यदि आवश्यक है तो द्वितीयक रूप से टांके लगाए जा सकते हैं, अन्यथा नहीं (WHO 2013B, NCDC 2015)। घाव की साफ-सफाई के बाद यदि टांके लगाने अनिवार्य हैं तो घाव में पहले रेबीज इम्युनोग्लोब्युलिन लगाया जाना चाहिए और इसके बाद भी कई घंटे तक टांके नहीं लगाने चाहिए ताकि इम्युनोग्लोब्युलिन का घाव में भली-भान्ति फैलाव हो सके। रोगाणुरोधक वर्णोपचार के दौरान घाव पर अत्याधिक दबाव नहीं पड़ना चाहिए (WHO 2013B, NCDC 2015)।
- आवश्यकतानुसार टेटनस एवं एंटीबायोटिक लगायी जा सकती हैं (WHO 2013B, NCDC 2015)।
संपर्क एवं जोखिम के आधार पर निम्नलिखित श्रेणी अनुसार जोखिम-पश्चात टीकाकरण करने की सलाह दी जाती है (NCDC 2015, WHO, 2018B):
श्रेणी | संपर्क का प्रकार | जोखिम-पश्चात प्रतिषेधोपचार टीकाकरण की सिफारिश |
1. | · जानवरों को छूना या खिलाना
· जानवर द्वारा अक्षुण्ण त्वचा पर चाटना · अक्षुण्ण त्वचा का रेबीज से पीड़ित पशु/मानव का द्रव्य स्राव से संपर्क |
यदि पशु का विश्वसनीय इतिहास उपलब्ध है तो टीकाकरण की आवश्यकता नहीं है।
विशेष: फिर भी जीवन को देखते हुए यदि रेबीज से पीड़ित पशु/मानवीय द्रव्य स्रावों के संपर्क में आए तो टीकाकरण करना चाहिए (Bharti et al. 2017)। |
2. | त्वचा का पशु द्वारा रक्तरहित कुतरना, खरोंचना इत्यादि | · घाव प्रबंधन
· एंटी रेबीज टीकाकरण |
3. | · चमड़ी पर काटने के गहरे जख्म
· कटी-फटी त्वचा पर खरोंच या चाटना · लार के साथ श्लेष्मा झिल्ली का संदूषण (अर्थात चाटना) |
· घाव प्रबंधन
· रेबीज इम्युनोग्लोबुलिन · एंटी रेबीज टीकाकरण |
जख्म को पट्टियों से ढकने और टांके लगाने से रेबीज वायरस शरीर में तेजी से फैलता है। यदि बड़े जख्मों को बंद करने के लिए आवश्यक हो, तो जख्म रेबीज इम्युनोग्लोबुलिन लगाने के बाद ढीले टांके लगाए जाने चाहिए (WHO 2013)।
एंटी रेबीज टीका की पांच खुराक कार्यक्रम: 1-1-1-1-1 अर्थात एक-एक टीका 0, 3, 7, 14 एवं 28वें दिन डेल्टोयड माँसपेशी में लगाया जाता है। ‘0’ को पहला लिया जाता है। इसको ‘एसेन’ – ‘Essen’ (Essential) कार्यक्रम भी कहा जाता है (WHO 2013B, NCDC 2015)। इसके बाद आवश्यक हो तो 90वें दिनों पर टीका लगाया जाता है। टीका लगने वाले स्थान पर दर्द, लालिमा, जलन या सूजन जैसे हल्के लक्षण हो सकते हैं। कुछ रोगियों में सामान्य लक्षण जैसे सिरदर्द, बुखार और बदनदर्द जैसे अस्थायी लक्षण देखे जा सकते हैं और अपने-आप ठीक भी हो जाते हैं। इसलिए बीच में ही टीका लगवाना बंद नहीं करना चाहिए (WHO 2013)।
यदि आपने पहले पूर्ण टीकाकरण करवाया हुआ है तो ऐसे में आप घाव को 15 मिनट तक साबुन पानी से धो कर आयोडीन लोशन लगा लें। दोबारा इम्यूनोग्लाब्यूलिन या पूर्ण टीकाकरण की आवश्यकता नहीं होती है। हाँ, यदि आपको तीन महीने से अधिक टीकाकरण का समय हो चुका है, पहले और तीसरे दिन टीकाकरण करवा लें।
रेबीज टीकाकरण से जुड़े मिथक और निषेधताएं
रेबीज के बारे में समाज में कई मिथक प्रचलित हैं जिनसे हमेशा ही बचना चाहिए। पागल कुत्ते के काटने पर जादू-टोने, झाड़-फूंक या टोने-टोटके के चक्करों से बचना चाहिए। ऐसी कोई भी देशी औषधी या जड़-बूटी नहीं है जो पागल जानवर के काटने के बाद जख्म पर लगाई जाती है या रेबीज ठीक करती है। इसका उपचार केवल समय पर टीकाकरण ही है। ऐसी सभी दवाएं (जैसे कि स्टेरॉयड, क्लोरोक्विन (विरोधी मलेरिया दवा) और कैंसर-रोधी) जो शारीरिक प्रतिरक्षा तंत्र को कमजोर करती हैं, ऐसी परिस्थिती में अंत:त्वचीय की बजाय अंतःपेशी टीकाकरण करना चाहिए (WHO 2013B)।
रेबीज और बाध्यकारी विकार (ओसीडी)
समाज में कई प्रकार की मानसिक व्याधियां प्रचलित है जो रेबीज की उन्मूलन के लिए बाध्यकारी हैं जिन्हें ओसीडी के नाम से जाना जाता है। ओसीडी को दूर करने के निम्नलिखित सूत्र हैं:
- सही जानकारी: रेबीज के बारे में सही और भरोसेमंद ज्ञान के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन का 2018 का ‘डब्ल्यूएचओ एक्सपर्ट कंसल्टेशन ऑन रेबीज – थर्ड रिपोर्ट’; संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सेंट्रज फॉर डीजिज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन और भारत में नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल का ‘नेशनल गाइडलाइन्ज ऑन रेबीज प्रोफाइलेसिस’ पढ़ सकते हो। इसी को सत्य मानें।
- सही विचार: रेबीज या किसी भी संक्रमण में अपने विचारों को नकारात्मक न होने दें, स्वयं का मनोबल बनाए रखें, किसी भी संदेश के बारे में विशेषज्ञ से सलाह अवश्य लें।
- सही व्यवहार: जानवर काटने या छूने पर अपने व्यवहार को सही रखें और तनावमुक्त रहें ताकि आपसे दूसरे परेशान न हों।
- सही उपचार: जानवर के काटने पर बने घाव को जितना जल्दी हो सके 15 मिनट तक बहते पानी और साबुन से अच्छी तरह धों और विशेषज्ञ की सलाहानुसार अपना उपचार करवाएं।
आपने–आपको अपने नियमित कार्यों में व्यस्त रखें, इधर–उधर के विचारों को मन में न लाएं, किसी भी प्रकार के के तनाव को कम करने के लिए साधना करें।
सबसे पहला ‘एक स्वास्थ्य’ का ज्ञात उदाहरण
1930 ईसा पूर्व के प्राचीन शिलालेखों, प्रसंगों एवं प्राचीन काल में सुमेरियन नियमों और विनियमों से पता चलता है कि 4000 वर्ष पूर्व भी कुत्तों के काटने से मनुष्यों में होने वाली रेबीज को नियंत्रण किया जाता था जिसका विवरण इस प्रकार है (Yuhong 2001, Tarantola 2017):
“यदि एक कुत्ता पागल हो जाता है और वार्ड प्राधिकरण उसके मालिक की पुष्टि करता है, और पाया जाता है कि उसका मालिक पागल कुत्ते को नहीं देखता है तो यदि कुत्ता किसी मनुष्य को काट लेता है और उस मनुष्य की मृत्यु हो जाती है, तो कुत्ते का मालिक चाँदी के 40 सिक्कों का भुगतान करेगा। यदि वह किसी दास को काट लेता है और उसकी मौत का कारण बनता है, तो वह 15 चांदी के सिक्कों का भुगतान करेगा।”
1900-1600 ईसा पूर्व मेसोपोटेमिया के पाँच “कुत्ते के मंत्र” प्रसंगों में से एक प्रसंग के अनुसार काटने वाले कुत्तों के घूमने-फिरने पर रोक थी (Sigrist 1987, Tarantola 2017)।
‘एक स्वास्थ्य’ का सबसे पहला ज्ञात उदाहरण पहली शताब्दी के 60 के दशक के आसपास कोलुमेला के रुस्टिका ने रेबीज के निवारक उपाय के रूप में चरवाहों द्वारा 40 दिन के पिल्लों की पूँछ काटने का वर्णन किया है, जो संभवत: ‘एक स्वास्थ्य’ या कम-से-कम एक चिकित्सा का पहला ज्ञात उदाहरण है (Forster & Heffner 1941, Tarantola 2017)।
बीसवीं शताब्दी के रोग जैसे कि गंभीर तीव्र श्वसन रोग, एवियन इन्फ्लुएंजा एच5एन1 इत्यादि ने मनुष्यों में उभरती हुई अन्य पशुजन्य महामारियों ने मनुष्यों एवं संग्राहक पशुओं में महामारी के रोगकारक के संबंध की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन महामारियों ने ‘एक स्वास्थ्य‘ के सिद्धांतों को लागू करने वाले बहुआयामी टीमों द्वारा ऐसी बीमारियों के वैश्विक नियंत्रण के कार्यान्वयन को प्रेरित किया है (Gibbs & Gibbs 2012)। 27 – 28 फरवरी 2013 में चेन्नई में आयोजित राष्ट्रीय श्वान कल्याण सम्मेलन में ‘एक स्वास्थ्य’ पर वकालत करते हुए रेबीज के उन्मूलन पर जोर दिया गया है। इस सम्मेलन के अनुसार रेबीज उन्मूलन के लिए सरकार से लेकर आम जनता की भागीदारी आवश्यक है (Rahman 2013)।
रेबीज की गंभीरता को समझते हुए एवं इसके बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, रेबीज के खतरे वाले क्षेत्रों/समुदायों में बीमारी को रोकने के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए तथा रेबीज नियंत्रण में वृद्धि के प्रयासों के समर्थन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विश्व रेबीज दिवस को 2007 में स्थापित किया गया था (Balaram et al. 2016)। रेबीज के उन्मूलन के लिए प्रतिवर्ष 28 सितम्बर को ‘विश्व रेबीज दिवस’ मनाया जाता है। यह विधित है कि लक्षणोंप्रांत रेबीज का कोई उपचार नहीं है और पीड़ित व्यक्ति या जानवर की मृत्यु निश्चित है। अतः रेबीज से होने वाली मौतों को रोकने के लिए वर्ष 2017 में मनाए गये ‘विश्व रेबीज दिवस’ का थीम अर्थात विषय ‘रेबीज़ः 2030 तक शून्य’ है (WHO 2018A)। इसके अंतर्गत 2030 तक रेबीज को विश्व से उन्मूलन का लक्ष्य है ताकि कोई भी रेबीज से अकाल ही मृत्यु का ग्रास न बने।
हालांकि, रेबीज के 95 प्रतिशत मामले पालतू या अवारा कुत्ते काटने से फैलते हैं लेकिन यह वायरस वनीस जीवों में चक्रीक अवस्था में विचरण करता रहता है और कुत्ते यदाकदा इन वनीय जानवरों के संपर्क में आते ही रहते हैं। इसलिए, इस वर्ष, 28 सितंबर 2022 को ‘रेबीजः वन हेल्थ, जीरो डेथ्स’ थीम लोगों और जानवरों दोनों के साथ पर्यावरण के संबंध को उजागर करने हेतु 16वां विश्व ‘रेबीज दिवस’ मनाया जा रहा है।
रेबीज की रोकथाम
- पालतू कुत्तों व बिल्लियों का पंजीकरण एवं टीकाकरण अवश्य करवाएं।
- पालतू पशुओं को खुला न छोड़ें।
- पशु जन्म नियंत्रण कार्यक्रमों के माध्यम से आवारा कुत्तों की आबादी का नियंत्रण एवं सामूहिक टीकाकरण।
- अवारा कुत्तों से अपना बचाव करें।
- घर के बाहर गंदगी न छोड़ें क्योंकि इससे अवारा एवं जंगली जानवर आकर्षित होते हैं।
- जंगली जानवरों को पालतू न बनायें।
- जंगली जानवरों को न छूएं।
- यदि किसी जानवर में असामान्य व्यवहार दिखायी दे तो स्थानीय स्वास्थ्य विभाग और पशुचिकित्सा विभाग को सूचित करें।
- जोखिम पूर्व एवं जोखिम पश्चात आमजन को प्रतिषेधोपचार के बारे में जागरूक करना।
- बचपन से ही नियमित रूप से बच्चों में जोखिम-पूर्व प्रतिषेधोपचार कार्यक्रम चलाना।
- रेबीज के बारे में सार्वजनिक स्वास्थ्य शिक्षा कार्यक्रम पर विचार करना चाहिए।
- रेबीज को एक सूचनात्मक रोग के रूप में परिभाषित करना।
स्मरणीय सारांश बेशक, रेबीज 100% घातक है। लेकिन इसकी 100% रोकथाम भी है।
कुत्ता काटे घाव पर मिर्च, हल्दी या तेल न लगाएं। झाड़-फूंक में बाबाओं के चक्कर तो कद्दापि न लगाएं।
घाव को साबुन और पानी के साथ पंद्रह मिनट धोएं। ना बांधें घाव पर पट्टी और जरूरी हो तो लगाओ ढीले टांके।
कुत्ता काटने पर नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र पर जाना है जरूरी। आवश्यकता पर टीकाकरण कराना भी है जरूरी।
कुत्ता रहा है सदियों से मानव प्रहरी। तो उसका टीकाकरण कराना भी है जरूरी।
2030 तक रेबीज मृत्युदर शून्य हासिल करना नहीं है मुश्किल। एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण अपनाना नहीं है मुश्किल।
रेबीज का उपचार केवल बचाव में ही संभव है। (के.एल. दहिया) |
संदर्भ
आवश्यकतानुसार संदर्भ उपलब्ध करवाये जा सकते हैं। (drkldahiya@hotmail.com)
https://www.amarujala.com/uttar-pradesh/amroha/rabies-day-jpnagar-news-mbd364101945
https://www.pashudhanpraharee.com/rabies-is-a-fatal-disease/