गायों मे अनिर्गत अपरा (जेर न डालना)
डॉ. ज्योत्सना शक्करपुडे, डॉ. अर्चना जैन, डॉ. दीपिका डायना जेस्सी ए., डॉ. मनोज कुमार अहिरवार, डॉ. आम्रपाली भिमटे, डॉ. कविता रावत, डॉ. श्वेता राजोरिया, डॉ. रंजीत आइच एवं डॉ. मधु शिवहरे
पशु चिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय, महू
सामान्य दशा में ब्याने के तीन से आठ घंटे के अंदर पशु अपरा को गिरा देता है । यदि अपरा 8 से 12 घंटे के अंदर भी ना तो उसे विकृत तथा असामान्य दशा समझना चाहिए । अनिर्गत अपरा का मुख्य कारण भ्रूण दल के अंकुरों का मातृक दरी मांसाकुरों से अलग होने में असफल रहना है । ब्याने के बाद नाभि रज्जु टूट जाती है तथा भ्रूण अंकुरों को रक्त मिलना बंद हो जाता है जिससे वह सिकुड़ कर छोटे हो जाते हैं । मादा के गर्भाशय में संकुचन की क्रिया होती रहती है । गर्भ काल में गर्भाशय को बहुत रक्त मिलता है जो ब्याने के बाद कम हो जाता है, मातृक मांसाकुर का आकार छोटा हो जाता है तथा मात्रक दरी के आकार में प्रसार होता है, गर्भाशय के संकुचन के कारण मांसाकुरों की आकृति अंडाकार से गोल हो जाती है । संकुचन के कारण भ्रूण दल मातृक मांसाकुरों से आसानी से अलग हो जाते हैं, इस कार्य में औसत 5 घंटे का समय लगता है । भ्रूण दल के अलग होते ही अपरा बाहर आती है और अनिर्गत अपरा विभिन्न कारणों से होती है । गर्भपात या समय से पूर्व बच्चा गिरना, गर्भाशय अतिरक्तता, मातृक दरी तथा जरायु अंकुरों के बीच नैक्रोटिक एपीथिलियम का उपस्थित होना ।
अनिर्गत अपरा में अंकुरों का मातृक दरी से आसंजन होने के कारण वे अलग नहीं हो पाते हैं, गर्भपात या समय से पूर्व बच्चा गिराने पर जरायु अंकुरों का स्वलयन नहीं हो पाता, ऐसी दशा में श्वेत रक्त कणिका तथा बैक्टीरिया प्लेसेंटों में कई दिन बाद तक पाए जाते हैं जो अपरा शोथ उत्पन्न करते हैं, अपरा को गिराने के लिए कई विधियां भाग लेती है जैसे रक्त प्रवाह कम होना, मादा तथा भ्रूण अपरा रचनाओं की सिकुड़न, व्यपजनक परिवर्तन तथा गर्भाशय का संकुचन ।
गर्भकाल में गर्भाशय के संक्रमण के कारण भी अपरा अनिर्गत हो सकता है, संक्रमण उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं में ब्रूसेला अबो्र्टस, माइक्रो बैक्टीरिया तथा अन्य बहुत से फफूंदी संक्रमण को अपरा शोथ तथा अपरादल शोथ उत्पन्न करते हैं और अनिर्गत अपरा का कारण बनते हैं । गर्भपात संबंधी और अनिर्गत अपरा के विषय में यह पाया गया है 120 दिन तक के गर्भ काल में गर्भपात होने पर अपरा भ्रूण के साथ ही गिर जाती है । गर्भाशय जड़त्व की बीमारी अथवा और अतानता संबंधी बीमारियां अनिर्गत अपरा का कारण बनती है, जिसमें भ्रूण अपरा जलशोफ, गर्भाशय व्यावर्तन, यमल भ्रूण महाकायिता, कष्टप्रसव तथा अन्य गर्भाशय जड़त्व की बीमारियां सम्मिलित है ।
यदि अपरा शोथ ब्याने से या गर्भपात से पहले उत्पन्न हो जाए तो जरायु अपरापोशिका शोफ हो जाता है तथा वह परिगलित चर्मवत अथवा रक्त स्त्रावी हो जाता है, गर्भाशय जराइयों के बीच में लाल भूरा सा पिताभ रंगीन नि;श्राव उपस्थित रहता है। फफूंदी संक्रमण होने पर गर्भदल शोफ हो जाता है गर्भाशय तथा अपरा संबंधी बीमारियों के कारण भ्रूण अनाक्सिता उत्पन्न होती है तथा उल्ब द्रव में भ्रूण विष्ठा उपस्थिति रहती है पशु कमजोर हो जाता है विटामिन ए की कमी हो जाती है गर्भाशय व्यावर्तन के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं ।
अनिर्गत अपरा का मुख्य लक्षण यह है कि ब्याने, गर्भपात अथवा कष्ट प्रसव के 12 घंटे बाद भी अपरा का काफी भाग बाहर लटकता देखा जा सकता है कभी-कभी अपरा बाहर दिखाई ना देकर योनि के अंदर ही उपस्थित रहती है । अधिकतर पशुओं में बीमारी के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते परंतु कभी-कभी चारा कम खाना, दूध कम देना, तापमान बढ़ना इत्यादि के लक्षण महसूस किए जा सकते हैं। कई दिन हो जाने पर योनि से मवाद आना, दूध कम देना तथा वजन घटने के लक्षण दिखाई देते हैं । एक दिन बाद अपरा का मसृणीकरण हो जाता है तथा बदबू आने लगती है और निर्गत अपरा एक दिन से 14 दिन के बीच कभी भी गिर सकती है। अनिर्गत अपरा के कारण मृत्यु दर बहुत कम होती है कमजोरी इनफर्टिलिटी अनियमित दूध उत्पादन इत्यादि व्याधियां उत्पन्न हो जाती है विलंबित गर्भाशय प्रत्यावर्तन तथा अंतगर्भाशयकला शोथ अनिर्गत अपरा के कारण उत्पन्न होते हैं। दो-तीन माह बाद अनिर्गत अपरा वाला पशु सामान्य हो जाता है तथा ऋतूकाल में आना शुरू कर देता है उसके गर्भाशय की दशा सामान्य हो जाती है।
प्लेसेंटल रिटेंशन को प्रभावित करने वाले कारक: कैरोटीन, विटामिन ए और सेलेनियम की कमी को प्लेसेंटल रिटेंशन की घटनाओं को बढ़ाने के लिए जाना जाता है, संभवतः एपिथेलियम में परिवर्तन के कारण जो प्लेसेंटल क्रिप्ट को रेखांकित करता है। प्रबंधन कारक जैसे स्टाल कारावास, शून्य चराई में सीमित आंदोलन, और बछड़ों द्वारा निरंतर दूध पीना भी बरकरार प्लेसेंटा की घटना को प्रभावित कर सकता है। सिजेरियन सेक्शन के माध्यम से बछड़ों को समय से पहले हटाने से प्लेसेंटल निष्कासन में देरी हो सकती है।
प्रसव के बाद नाल को शरीर के लिए विदेशी माना जाता है, और चाहे इसे हटाया जाए या नहीं, अंततः इसे निष्कासित कर दिया जाता है । बेहतर गर्भाशय ग्रीवा फैलाव, कम सड़न और झिल्ली टूटने की संभावना कम होने जैसे लाभों के कारण, पशुचिकित्सक प्रसव के बाद आमतौर पर 24 से 36 घंटों के बीच जल्दी हटाने को प्राथमिकता देते हैं। हालाँकि, जल्दी हटाने से बीजपत्र और क्यूरेकल को अलग करने में कठिनाई हो सकती है और गर्भाशय पर तनाव बढ़ जाता है, जिससे यह संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है। रुके हुए प्लेसेंटा को देर से हटाने से बीजपत्र और क्यूरेकल को आसानी से अलग करना, संक्रमण के प्रति अधिक प्रतिरोधी गर्भाशय और उचित गर्भाशय संकुचन जैसे लाभ मिलते हैं।
अनुपचारित गायें 2-11 दिनों में झिल्ली को बाहर निकाल देती हैं, 40 प्रतिशत मामलों में उपचार की आवश्यकता नहीं होती है। एंटीबायोटिक दवाओं का प्रारंभिक उपयोग भी झिल्ली की रिहाई को धीमा कर सकता है। सबसे अच्छी योजना यह है कि बीमारी के लक्षणों के लिए गाय का बारीकी से निरीक्षण किया जाए और जो भी लक्षण दिखाई दें उनका इलाज किया जाना चाहिए । आरपी के लिए कोई मानक निवारक व्यवस्थाएं नहीं हैं। सूखी गाय का अच्छा प्रबंधन आरपी को रोकने और इसके प्रभाव को कम करने का सबसे अच्छा तरीका है। इसमें सही पोषक तत्वों, विशेष रूप से मैग्नीशियम और वसा में घुलनशील विटामिन की आपूर्ति, शुष्क पदार्थ का अधिकतम सेवन, शरीर की सही स्थिति का स्कोर बनाए रखना और स्वच्छ शुष्क वातावरण की आपूर्ति शामिल होगी। गायों को स्वस्थ रखने और अनिर्गत अपरा नामक समस्या को रोकने के लिए, उनके ब्याने से पहले उनकी अच्छी देखभाल करना महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है कि उन्हें विटामिन और खनिज जैसे सही प्रकार का भोजन देना और यह सुनिश्चित करना कि वे पर्याप्त खाएं। उनके रहने के क्षेत्र को साफ और सूखा रखना और यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण है कि वे बहुत पतले या बहुत मोटे न हों।