एक स्वास्थ्य छत्रप के अंतर्गत प्राणीरूजा रोगों को नियंत्रित करने में पशुचिकित्सकों की भूमिका

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एक स्वास्थ्य छत्रप के अंतर्गत प्राणीरूजा रोगों को नियंत्रित करने में पशुचिकित्सकों की भूमिका

के.एल. दहिया1 एवं आभा2

1पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, कुरूक्षेत्र – हरियाणा

2छात्रा, मदरहुड आयुर्वेद चिकित्सा महाविद्यालय, रूड़की – उतराखण्ड

सार

मनुष्यों में हर तीन में से दो संक्रामक रोग पशुओं से उत्पन्न होते हैं। प्राणीरूजा रोग ऐसे रोग और संक्रमण जो कशेरूकी पशुओं (पालतू एवं वन्य जीवों) और मनुष्यों के बीच संचरित होते हैं और समय-समय पर मनुष्यों में बहुत बड़े पैमाने पर संक्रमण और मृत्यु का कारक बनते हैं। मानवीय आबादी बढ़ने के साथ-साथ खाद्य आपूर्ति हेतु घरेलू पशुओं और मनुष्यों के आसपास पर्यावरण में रहने वाले परिधीय घरेलू एवं वन्यजीवों का संपर्क बढ़ने से प्राणीरूजा रोगों की स्थिति भी विस्फोटक हुई। बेशक, प्राणीरूजा रोगों को नियंत्रित करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से पशुचिकित्सक अहम् भूमिका निभाता है लेकिन इन रोगों को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न संकायों के वैज्ञानिकों को एकजुट होकर कार्य करने की आवश्यकता है जिसे एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण को अपनाकर ही पूरा किया जा सकता है। इसके साथ ही जनसाधारण को इस दृष्टिकोण के माध्यम से जागरूक और सचेत कर प्राणीरूजा रोगों पर काबू पाया जा सकता है। निर्याणक रूप से यह कहा जा सकता है कि पशु चिकित्सकों को प्राणीरूजा रोगों का विशेष ज्ञान होने के कारण उनकी इन रोगों को नियंत्रित करने में विशेष भूमिका होती है। अतः उनके कौशल और एक स्वास्थ्य कार्यक्रम के माध्यम से घातक प्राणीरूजा रोगों से लड़ कर सुखद भविष्य की कामना करना सुलभ है।

https://www.pashudhanpraharee.com/role-of-veterinarians-one-health-in-fight-against-zoonoses-2/

प्रमुख शब्द: प्राणीरूजा रोग, पारिस्थितिकी, पशु-मानव अंतर्संबंध, सहयोग, बहुविषय, एक स्वास्थ्य, पशु चिकित्सक।

 

परिचय

आदिकाल से ही मानव और पशुओं का चोली-दामन का साथ रहा है, तो ऐसी परिस्थिति में कुछ रोग भी उनमें एक जैसे रहे हैं। उदाहरण के रूप में रेबीज, तपेदिक रोग, ब्रुसेलोसिस, साल्मोनेलोसिस, टीनीऐसिस ऐसे रोग हैं जो मानव और पशुओं, दोनों में ही पाये जाते हैं। ये रोग पशुओं से मनुष्यों और मनुष्यों से पशुओं में फैलते आये हैं। ऐसे रोगों को जूनोटिक अर्थात प्राणीरूजा रोग कहा जाता है। जूनोसिस शब्द, व्युत्पत्ति संबंधी रूप से सटीक और जैविक रूप से योग्य विचार है और आमतौर यह माना जाता है कि यह उपयोगी शब्द है क्योंकि यह मानव चिकित्सा और पशु चिकित्सा पेशेवरों के लिए पालतू एवं जंगली पशुओं दोनों से होने वाली बीमारियों की महामारी ज्ञान का पता लगाने के लिए सामान्य आधार बनता है और उनके लिए रोग नियंत्रण तकनीक तैयार करता है (WHO 1967)।

जूनोटिक शब्द का उपयोग सर्वप्रथम रूडोल्फ विर्चोव ने 1880 में किया था। जूनोसिस शब्द का उद्भव ग्रीक भाषा के ‘जून’ (Zoon) अर्थात पशु और नोसेज (Noses) अर्थात रोग, शब्दों से हुआ है, जूनोसिस का अर्थ ऐसे रोग जो पशुओं से मनुष्यों में फैलते हैं। प्रारंभ में ऐसे रोगों को ‘एंथ्रोपोजूनोसिस’ कहा जाता था और जो रोग मनुष्यों से पशुओं में फैलते थे, उनको ‘जूएंथ्रोपोजूनोसिस’ (रिवर्स जूनोसिस) कहा जाता था। लेकिन विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर इन सभी रोगों को अब एक ही श्रेणी अर्थात जूनोसिस (प्राणीरूजा) श्रेणी में रखा गया है (Hubálek 2003)। खाद्य और कृषि संगठन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1959 की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार ‘ऐसे रोग और संक्रमण जो कशेरूकी पशुओं (पालतू एवं वन्य जीवों) और मनुष्यों के बीच संचरित होते हैं’ को प्राणीरूजा रोग कहा जाता है (WHO 1967)।

विश्वभर में प्राणीरूजा रोगों के खतरे के केंद्रों का पता लगाने के लिए, केट ई जोन्स के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक समूह ने 2008 में प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ में एक शोधपत्र प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने ने 1940 से 2004 तक विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में उभरती संक्रामक बीमारियों की 335 घटनाओं का विश्लेषण किया। उनके शोध के अनुसार 70 प्रतिशत से भी अधिक उभरती संक्रामक बीमारियां प्राणीरूजा थीं और उन्होंने 1940 से 1980 के दशक में अधिकतम तक पहुंचने की बढ़ती प्रवृत्ति दिखाई। अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार बाद के दशकों यानी 1990-2000 में उभरती संक्रामक बीमारियों की घटनाओं में मामूली गिरावट देखी गई, लेकिन वन्यजीवों से उत्पन्न होने वाली संक्रामक बीमारियों की घटनाओं के अनुपात में अधिक वृद्धि देखी गई (Jones et al. 2008)। संयुक्त राज्य अमेरिका के रोग नियंत्रण और रोकथाम केन्द्र (सीडीसी) के अनुसार, 60% संक्रामक रोग प्राणीरूजा हैं और 75% से अधिक नए उभरते संक्रामक रोग जानवरों में उत्पन्न होते हैं (Vidal 2020)।

पारिस्थितिक तंत्र और प्राणीरूजा रोग

वर्ष 1900 से लेकर 2021 तक विश्व की आबादी में लगभग पांच गुणा वृद्धि हुई है। इसी अनुरूप में मनुष्य को आहार प्रदान करने वाले घरेलू पशुओं और मनुष्यों के आसपास के पर्यावरण में रहने वाले परिधीय-घरेलू वन्यजीव (कृंतक इत्यादि) की संख्या भी बढ़ी है (चित्र)। सामान्य तौर पर, इन विस्फोटित मानव, पशुधन और परिधीय-घरेलू वन्यजीवों की आबादी ने वन्यजीव आबादी के स्थानिक आकार को कम कर दिया है, जिसके फलस्वरूप मनुष्यों, पशुओं और वन्यजीवों के बीच विरोधाभासी रूप से विश्वभर में संपर्क बढ़ा है। हालांकि, अभी भी हमारी सोच अपूर्ण है फिर भी उभरती हुई बीमारियों के पक्ष में कारकों के बारे में हमारी समझ बढ़ रही है।

प्राणीरूजा रोगों के कारक एवं प्रभाव

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान की 2020 में प्रस्तुत संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार विश्वभर में सात प्रकार के मानवजनित चालक 1. पशु प्रोटीन की बढ़ती मांग, 2. गैर-टिकाऊ कृषि गहनता, 3. वन्यजीवों का बढ़ता उपयोग और शोषण, 4. भूमि उपयोग परिवर्तन से प्राकृतिक संसाधनों का गैर-टिकाऊ उपयोग, 5. यात्रा और परिवहन, 6. खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं में परिवर्तन और 7. जलवायु परिवर्तन प्राणीरूजा रोगों के प्रमुख कारक हैं (UNEP & ILRI 2020)। इनमें से कई चालक अब एक ही स्थान पर आ रहे हैं, जिससे उनका प्रभाव बढ़ रहा है। ये ऐसे तंत्र हैं जिनके बढ़ने से प्राणीरूजा रोगों में भी बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, नवीनतम आंकड़े तो उपलब नहीं हैं लेकिन केसियो एवं सहयोगियों द्वारा 2008 में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार प्रतिवर्ष 9 लाख करोड़ रूपये से भी अधिक आर्थिक नुकसान होता है (Cascio et al. 2011)।

प्राणीरूजा रोगों का वर्गीकरण और नियंत्रण में महत्तव

प्राणीरूजा रोगों के नियंत्रण में भूमिका निभाने वाले विभिन्न विषयों के विद्वानों को आत्मसात करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि ये रोग किन कारणों से होते हैं, वे कैसे फैलते हैं। खाद्य और कृषि संगठन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के संयुक्त विशेषज्ञ समूह द्वारा अपनाए गए वर्गीकरण के अनुसार प्राणीरूजा रोगों को उनके कारक, संचरण चक्र और संग्राहक मेजबान के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।

  1. कारक आधार पर वर्गीकरणः कोई रोग भी किसी न किसी रोगाणु के कारण से होता है, जिनमें निम्नलिखित रोगाणु मुख्य कारक हैं :
    • जीवाणु: जीवाणुओं से होने वाले रोग इस प्रकार हैं – एंथ्रेक्स (वूल सॉर्टर डिजिज), लेप्टोस्पायरोसिस, ब्रुसेलोसिस, कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस, साल्मोनेलोसिस, टेटनस, प्लेग, टुलारेमिया, क्लोस्ट्रीडियल डिजीज, बोटुलिज़्म, ट्यूबरकुलोसिस, लिस्टरियोसिस, एरीसिपेलोथ्रिक्स संक्रमण।
    • विषाणु: विषाणुओं से होने वाले रोग इस प्रकार हैं – रेबीज, इन्फ्लुएंजा, जापानी एन्सेफलाइटिस, क्यासानूर फॉरेस्ट डिजिज, लस्सा बुखार, चेचक, पीत ज्वर, डेंगू, कोविड-19 इत्यादि।
    • रिकेट्टसियल एवं क्लैमायडियल: रिकेट्टसियल एवं क्लैमायडियल से होने वाले रोग इस प्रकार हैं: सिटेकोसिस/ओर्निथोसिस, क्यू फीवर, इंडियन टिक फीवर एवं म्यूरिन टायफस इत्यादि।
    • फफूंद: फफूंदजनित रोग इस प्रकार हैं – जैसे कि डरमेटोफाइटोसिस, क्रिप्टोकोकोसिस, हिस्टोप्लाज्मासिस, कैंडिडिआसिस, एस्पर्जिलोसिस, कोक्सीडायोडोमाइकोसिस इत्यादि।
    • परजीवी: परजीवीजनित रोग इस प्रकार हैं – प्रोटोजोआ (टॉक्सोप्लाज्मोसिस, बबेसियोसिस, लिस्मानियासिस, ट्रीपेनोसोमियासिस), पत्ता कृमि (यकृत कृमि, एम्फीस्टोमियासिस, सिस्टोसोमियासिस, पैरागोनिमियासिस, ओपिस्थोरचियासिस); फीता कृमि (सिस्टीसरकोसिस, हाइडेटिडोसिस, टिनियासिस, कॉइन्यूरोसिस, डिपिलिडिएसिस); गोल कृमि (ट्राइकीनेलोसिस, एनीसाकियासिस, फाइलेरियासिस, क्यूटेनियस लार्वा माइग्रेंस, थेलाजिया) इत्यादि।
  2. संचरण चक्र के आधार पर वर्गीकरणः इस श्रेणी में आमतौर प्राणीरूजा रोगों को उनके पारिस्थितिकी तंत्र के अनुसार चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता है जिसमें वे प्रसारित होती हैं, जो इस प्रकार हैं (WHO 1967, Chomel 2009):
    • प्रत्यक्ष प्राणीरूजा रोग (ऑर्थोजूनोसिस): एक संक्रमित पशु से अतिसंवेदनशील कशेरुकी मेजबान में सीधे संपर्क द्वारा, संक्रमणी पदार्थ (फोमाइट) के संपर्क से, या एक यांत्रिक रोगवाहक (वेक्टर) द्वारा प्रेषित होते हैं। प्रत्यक्ष प्राणीरूजा रोग प्रकृति में एकल कशेरुकी प्रजातियों द्वारा बनाए रखे जा सकते हैं, जैसे कि रेबीज के लिए कुत्ते या लोमड़ी, ब्रुसेलोसिस के लिए छोटे-बड़े रोमंथी पशु या सूअर।
    • चक्रीक प्राणीरूजा रोग (साइक्लोजूनोसिस): कई रोगों को अपना चक्र पूरा करने के लिए एक से अधिक कशेरूक प्रजातियों की आवश्यकता होती है, और उनको विकास चक्र पूरा करने के लिए किसी भी अकशेरूकी मेजबान की आवश्यकता नहीं होती है। उदाहरण के तौर पर मानवीय टिनियासिस या पेंटोस्टोमिड का संक्रमण। तुलनात्मक रूप में अधिकांश चक्रीक प्राणीजन्य रोग फीता कृमि होते हैं।
    • स्थिति परिवर्तन प्राणीरूजा रोग (मेटाजूनोसिस/फेरोजूनोसिस): इस प्रकार के प्राणीरूजा संक्रमणों के लिए रोगाणु अपने संक्रामक चक्र को पूरा करने के लिए कशेरूकी और अकशेरूकी दोनों प्रकार के जीवों की आवश्यकता होती है। संक्रामक रोगाणु अकशेरूकी जीवों में गुणात्मक (प्रचारक या साइक्लोप्रोपेगेटिव ट्रांसमिशन) या केवल साधारण रूप से (विकासात्मक संचरण) ही विकसित होते हैं। ऐसे रोगाणुओं के लिए किसी भी कशेरूकी जीव में संचरण से पहले अकशेरूकी मेजबान जीव में में हमेशा ही एक बाहरी ऊष्मायन अवधि होती है। अर्बोवायरस संक्रमण, प्लेग, लाइम बोरेलिओसिस या रिकेट्सियल संक्रमण, इस प्रकार के प्राणीरूजा रोगों के मुख्य उदाहरण हैं।
    • मृतोपजीवी प्राणीरूजा रोग (सैप्रोजूनोसिस): ऐसे संक्रामक रोगों के लिए कशेरूकी मेजबान और किसी भी निर्जीव विकास स्थल या संग्राहक दोनों ही आवश्यक होते हैं। जैसे कि आहार, मिट्टी और पौधों सहित जैव पदार्थ इत्यादि को विकासात्मक संग्राहक को गैर-पशु माना जाता है। प्राणीरूजा रोगों के इस समूह में प्रत्यक्ष संक्रमण आमतौर बहुत ही दुर्लभ या अनुस्थित होता है। हिस्टोप्लाज्मोसिस, एरीसिपेलोथ्रिक्स संक्रमण और लिस्टरियोसिस संक्रामक रोग इस प्रकार के प्राणीरूजा रोगों के मुख्य उदाहरण हैं।
  3. संग्राहक मेजबान के संदर्भ में आधारित वर्गीकरण
    • मानवीय प्राणीरूजा रोग (एंथ्रोपोजूनोसिस): ये घरेलू और जंगली पशुओं के रोग हैं जो मनुष्य से स्वतंत्र प्रकृति में होते हैं। यह उन संक्रमणों को संदर्भित करता है जो मुख्य रूप से पशुओं को प्रभावित करते हैं लेकिन स्वाभाविक रूप से मनुष्यों को प्रेषित किए जा सकते हैं। व्यावसायिक संपर्क या भोजन के माध्यम से मनुष्य असामान्य परिस्थितियों में पशुओं में पाये जाने वाले रोगों जैसे कि ब्रुसेलोसिस, लेप्टोस्पायरोसिस, टुलारिमिया, रिफ्ट वैली फीवर, हाइडेटिडोसिस, रेबीज, इबोला से संक्रमित हो जाता है।
    • वन्यमानवीय प्राणीरूजा रोग (जूएंथ्रोपोनोसिस): ये ऐसी बीमारियां हैं जो आमतौर पर मानव से अन्य कशेरुकी पशुओं को संचरित होती हैं। इसके मुख्य उदाहरण तपेदिक रोग (मानव प्रकार), अमीबियासिस हैं।
    • उभयचरी प्राणीरूजा रोग (एम्फिक्सेनोसिस): इस श्रेणी में ऐसे संक्रामक रोग आते हैं जिनमें रोगाणु मनुष्य से पशुओं और पशुओं से मनुष्य में जा सकते हैं। इसके मुख्य उदाहरण स्ट्रेप्टोकोक्कोसिस, गैर-मेजबान विशिष्ट साल्मोनेलोसिस, स्टैफाइलोकोक्कोसिस इत्यादि हैं।
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प्राणीरूजा रोगों को नियंत्रित करने का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

प्राचीन काल में चिकित्सक अक्सर पुजारी होते थे जो मनुष्यों और पशुओं, दोनों की चिकित्सकीय देखभाल किया करते थे (Schwabe 1964)। यदि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो ‘एक स्वास्थ्य’ प्राचीन एथेंस और रोम में भी प्रचलित था। यदि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देखा जाए तो प्राचीन काल से ही जनस्वास्थ्य को ध्यान में रखे जाने के विशिष्ट उदाहरण देखने के मिलते हैं। यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स (460 ईसा पूर्व – 370 ईसा पूर्व) ने ‘ऑन एयर, वाटर्स एंड प्लेस’ पुस्तक में मानव रोगों और पर्यावरण के बीच एक कारण संबंध स्थापित करने के लिए पहला व्यवस्थित प्रयास किया गया था। उन्होंने इस अवधारणा को बढ़ावा दिया कि सार्वजनिक स्वास्थ्य स्वच्छ वातावरण पर निर्भर करता है (Jones 1923)। अमेरिकी पशु चिकित्सक और परजीवी विज्ञानी, केल्विन श्वाबे के अनुसार प्राचीन समय में एथेंस और रोम में मांस का मानवीय सेवन करने से पहले उसका निरीक्षण किया जाता था, और निरीक्षकों द्वारा वर्जित किए गए मांस को तिबर नदी में फेंक दिया जाता था। प्राचीन रोम में सार्वजनिक बूचड़खाने थे जिनमें मांस का नियमित रूप से निरीक्षण किया जाता था लेकिन सरकारी मांस निरीक्षण स्पष्ट रूप से रोमन साम्राज्य के पतन के साथ ही गायब हो गया (Saunders 2000)। लेकिन अतीत से लेकर अब आधुनिक काल तक बदले परिवेश में सभी कोशिशों को मिलाकर देखा जाए तो प्राणीरूजा रोगों को केवल स्वास्थ्य कर्मी या पशु चिकित्सा कर्मी ही अकेले नियंत्रित नहीं सकते हैं बल्कि एक समन्वित सांझे प्रयास से ही इनको अच्छा नियंत्रित किया जा सकता है जिसके लिए सांझे मंच की आवश्यकता है, जो अब ‘एक स्वास्थ्य’ के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है।

आधुनिक दौर में बल पकड़ता एक स्वास्थ्यदृष्टिकोण

1990 के दशक से यह स्पष्ट हो गया है कि अधिकांश नये और उभरते आकस्मिक प्राणीरूजा संक्रामक रोग, विशेष रूप से वन्यजीवों में उत्पन्न होते हैं और उद्भव के प्रमुख चालक कारक मानव गतिविधियों से जुड़े होते हैं, जिसमें पारिस्थितिक तंत्र और भूमि उपयोग में परिवर्तन, कृषि गहनता, शहरीकरण और अंतर्राष्ट्रीय यात्रा और व्यापार इत्यादि शामिल हैं। जोखिम मूल्यांकन और नियंत्रण के लिए प्रत्येक उभरते हुए प्राणीरूजा रोग की पारिस्थितिकी को समझने के लिए, मानव और पर्यावरणीय स्वास्थ्य की समस्याओं को समझते हुए एक सहयोगी और बहु-अनुशासनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। आधुनिक विकृति विज्ञान के जनक रुडोल्फ विर्चोव ने एक सदी पहले कहा था (CDC 2016):

“पशु और मानव चिकित्सा के बीच कोई विभाजित रेखा नहीं है और न ही होनी चाहिए। वस्तु अलग है, लेकिन प्राप्त अनुभव सभी चिकित्साओं का आधार बनता है”।

– रुडोल्फ लुडविग कार्ल विर्चोव (1821-1902)

हालांकि, मानव और पशु स्वास्थ्य उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के दौरान शैक्षणिक, प्रशासनिक और अनुप्रयोग स्तरों पर अलग-अलग विषयों में विकसित हुए हैं लेकिन प्राणीरूजा रोगों के खिलाफ एक एकीकृत चिकित्सा और पशु चिकित्सा दृष्टिकोण को बढ़ावा देने वाले केल्विन श्वाबे ने 1960 के दशक में ‘वन मेडिसिन’ (Kahn et al. 2008) का सिद्धांत दिया। उनका अद्योलिखित कथन मानव और पशु स्वास्थ्य की समानता पर ध्यान केंद्रित करता है।

‘मानव और पशु चिकित्सा के बीच प्रतिमान में कोई अंतर नहीं है और दोनों चिकित्साओं का एक ही वैज्ञानिक आधार है।’

– केल्विन श्वाबे

एक स्वास्थ्य की संकल्पना नई नहीं है जिसकी सबसे पहले ‘एक चिकित्सा’ के रूप में, लेकिन फिर ‘एक विश्व, एक स्वास्थ्य’ और अंत में ‘एक स्वास्थ्य’ के रूप में संकल्पना की गई। हालांकि, एक स्वास्थ्य की परिभाषा के लिए कई सुझाव दिये गये लेकिन किसी की भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एकल सहमती नहीं है (Mackenzie & Jeggo 2019)। संयुक्त राज्य अमेरिका के रोग नियंत्रण और रोकथाम केन्द्र (सीडीसी) और एक स्वास्थ्य आयोग द्वारा सांझा की जाने वाली सबसे अधिक प्रचलित परिभाषा इस प्रकार है (CDC 2021):

“एक स्वास्थ्य, मनुष्यों, जानवरों, पौधों और उनके सांझा वातावरण के बीच अंतर्संबंध को पहचानने के लिए इष्टतम स्वास्थ्य परिणामों को प्राप्त करने के लक्ष्य के साथ स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर काम करने वाला एक सहयोगी, बहुक्षेत्रीय और बहुविषयक (ट्रांसडिसिप्लिनरी) दृष्टिकोण है।”

वन हेल्थ ग्लोबल नेटवर्क द्वारा सुझाई गई एक परिभाषा के अनुसार: ‘एक स्वास्थ्य यह दर्शाता है कि मनुष्यों, पशुओं और पारिस्थितिकी तंत्रों का स्वास्थ्य आपस में जुड़ा हुआ है। इसमें पशु-मानव-पारिस्थितिकी तंत्र अंतराफलक (इंटरफेस) से उत्पन्न संभावित या मौजूदा जोखिमों को दूर करने के लिए एक समन्वित, सहयोगी, बहु-विषयक और क्रॉस-सेक्टरल दृष्टिकोण लागू करना इत्यादि सम्मिलित हैं’ (OHGN 2021)।

शाब्दिक परिभाषा चाहे जो भी हो स्वीडन के ‘एक स्वास्थ्य’ कार्यक्रम के चित्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘एक स्वास्थ्य’ एक ऐसा दृष्टिकोण है जो मनुष्यों, पशुओं और पर्यावरण की भलाई के लिए स्थानीय, राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर सहयोगात्मक समस्या समाधान को सुनिश्चित करता है’ (OHS 2020)।

एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण का दायरा और महत्वपूर्ण भूमिका

प्राणीरूजा रोगों के अतिरिक्त मनुष्यों, पशुओं और कृषि में बढ़ते एंटिबायोटिक प्रतिरोध, बढ़ती आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा, संवाहक जनित रोग, दीर्घकालिक रोग, मानसिक रोग और व्यावसायिक स्वास्थ्य ऐसी समस्याएं जिनका किसी भी एक मंच के न होने से आसानी से समाधान दृष्टिगोचर होता दिखायी नहीं देता है। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए एक ऐसे मंच की आवश्यकता है जिसमें एक से अधिक विषयों को समेटने की क्षमता हो। विश्वव्यापी ‘एक स्वास्थ्य’ एक ऐसा बहुविषयक मंच है जिसे सभी राष्ट्रों की सहमती प्राप्त हो रही है।

कुछ लोग गलत समझते और सोचते हैं कि एक स्वास्थ्य सब कुछ के बारे में है। लेकिन वास्तविकता यह है कि एक स्वास्थ्य विचार और कार्यान्वयन की आवश्यकता इतने सारे क्षेत्रों में है कि यह सिर्फ ‘सब कुछ’ के बारे में लगता है। यहां कुछ ऐसे क्षेत्र दिए गए हैं, जिन्हें पशु, पर्यावरण, मानव, पौधे और पृथ्वी ग्रह स्वास्थ्य के अटूट अंतर्संबंध के कारण शिक्षा, सरकार, उद्योग, नीति और अनुसंधान के सभी स्तरों पर तत्काल एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण की आवश्यकता है (OHC 2021)।

  • कृषि उत्पादन और भूमि उपयोग
  • पर्यावरण एजेंट और दूषित पदार्थों का पता लगाने और प्रतिक्रिया के लिए प्रहरी के रूप में पशु
  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध शमन
  • जैव विविधता / संरक्षण चिकित्सा
  • जलवायु परिवर्तन और जानवरों, पारिस्थितिक तंत्र और मनुष्यों के स्वास्थ्य पर जलवायु के प्रभाव
  • स्वास्थ्य व्यवसायों के बीच अंतर्संबंध के लिए नैदानिक ​​चिकित्सा की आवश्यकता
  • संचार और उसे आगे बढ़ाना
  • तुलनात्मक चिकित्सा – लोगों और जानवरों में कैंसर, मोटापा और मधुमेह जैसी बीमारियों की समानता
  • आपदा की तैयारी और प्रतिक्रिया
  • रोग निगरानी, ​​रोकथाम और प्रतिक्रिया, दोनों संक्रामक (प्राणीरूजा) और दीर्घकालिक बीमारियां
  • अर्थशास्त्र / जटिल प्रणाली, नागरिक समाज
  • पर्यावरणीय स्वास्थ्य
  • खाद्य सुरक्षा
  • वैश्विक व्यापार, वाणिज्य और सुरक्षा
  • मानव-पशु बंधन
  • प्राकृतिक संसाधन संरक्षण
  • व्यावसायिक स्वास्थ्य जोखिम
  • पौधे एवं मृदा स्वास्थ्य
  • एक स्वास्थ्य पेशेवरों की अगली पीढ़ी की व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण
  • सार्वजनिक नीति और विनियमन
  • अनुसंधान, दोनों बुनियादी और अनुवाद संबंधी
  • जल सुरक्षा
  • जानवरों, मनुष्यों, पारिस्थितिक तंत्र और पृथ्वी ग्रह का कल्याण

एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण अपनाने से शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुसंधान और स्थापित नीति में अधिक अंतःविषय कार्यक्रम होंगें जिससे किसी भी रोग का पता लगाने, निदान, शिक्षा और अनुसंधान से संबंधित अधिक जानकारी सांझा की जा सकती है। ऐसा करने से संक्रामक और दीर्घकालिक दोनों तरह की बीमारियों की अच्छी रोकथाम के लिए नए उपचारों और दृष्टिकोणों का विकास होने की संभावना में बढ़ोतरी होगी।

स्वास्थ्य और समाज की भलाई के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए ‘एक चिकित्सा’ की परिकल्पना को व्यावहारिक कार्यान्वयन और विभिन्न समायोजनों में सावधानीपूर्वक सत्यापन के माध्यम से ‘वन वर्ल्ड – वन हेल्थ’ (एक विश्व – एक स्वास्थ्य) तक बढ़ा दिया गया है। ‘एक विश्व – एक स्वास्थ्य’ वाक्य का उपयोग सर्वप्रथम 2003-04 में किया गया। ‘एक स्वास्थ्य’ शब्द 2003 में सार्स रोग का उद्भव तत्पश्चात् अत्यधिक संक्रामक एवियन इन्फ्लूएंजा एच5एन1 के प्रसार से जुड़ा था और सितबंर 2004 में वन्यजीव संरक्षण समिति की एक बैठक में सामरिक ‘मैनहट्टन सिद्धांतों’ के रूप में ज्ञात रणनीतिक लक्ष्यों की श्रृंखला प्राप्ति से जुड़ा है। मैनहट्टन सिद्धांत स्पष्ट रूप से मानव और पशु स्वास्थ्य के बीच की कड़ी और खाद्य आपूर्ति और अर्थव्यवस्था के लिए बीमारियों के खतरों को दर्शाते हैं (Cook et al. 2004)।

भारत में प्राणीरूजा रोगों के नियंत्रण में एक स्वास्थ्य उदाहरण

  • हालांकि, 1950 के दशक के दौरान एक स्वास्थ्य कार्यक्रम नहीं था फिर भी ‘एक स्वास्थ्य’ मॉडल का एक प्रचलित उदाहरण 1957 में कर्नाटक के शिमोगा जिले के क्यासूनूर जंगलों में मानवों सहित बंदरों को प्रभावित करने वाली मंकी फीवर या मंकी रोग, जिसे ‘क्यासानूर फॉरेस्ट डिजीज’ कहते हैं, खोजी गई। बंदरों से चिचड़ियों के माध्यम से मनुष्यों में फैलने वाली विषाणुजनित बीमारी से निपटने में पशुपालन विभाग सहित कई विभागों ने अहम् भूमिका निभाई (GOK, 2020)। भारत में बीमारी को नियंत्रित करने के इस प्रयास को यदि ‘एक स्वास्थ्य’ का उदाहरण दिया जाये तो गलत नहीं होगा।
  • 2018 में निपाह वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए केरल सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक स्वास्थ्य आधारित ‘केरल मॉडल’ का किया सफल प्रयोग किया (Chattu et al. 2018)।

अब यदि संक्षेप में एक स्वास्थ्य की भूमिका की जाए तो यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण के माध्यम से न केवल प्राणीरूजा रोगों बल्कि विभिन्न विषयों के विद्वानों के सहयोग से एंटिबायोटिक प्रतिरोध, खाद्य सुरक्षा, संवाहक जनित रोग, दीर्घकालिक रोग और जैसा कि कोविड-19 महामारी के दौरान मानसिक समस्याएं देखने में आयी, इत्यादि का समाधान किया जा सकता है।

प्राणीरूजा रोगों को नियंत्रित करने में पशु चिकित्सकों की भूमिका

हालांकि, पशु चिकित्सकों, पशु स्वास्थ्य कर्मियों, पशु पालकों, पशु उत्पाद प्रोद्यौगिकी से संबंधित व्यक्तियों और प्रयोगशाला में कार्यरत वैज्ञानिकों और कर्मियों का प्रत्यक्ष रूप से प्राणीरूजा रोगों से सामना होता है। लेकिन, खेतों में कार्य करने वाले किसान-मजदूरों सहित जन साधारण भी इनसे अछूता नहीं है। बेशक, पशु चिकित्सक अहम् भूमिका निभाने में सक्षम है लेकिन प्राणीरूजा रोगों के नियंत्रण में बहुक्षेत्रीय एवं बहुविषयक सहयोग की आवश्यकता है जिसे एक स्वास्थ्य मंच के माध्यम से पूर्ण करने में बल मिलता है। जैसा कि एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण अभी पूर्णतयः दृष्टिगोचर प्रतीत नहीं होता है, तो ऐसे में पशुचिकित्सकों की निम्नलिखित भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है:

  1. जागरूकताः जोखिम कम करने की रणनीतियों के लिए व्यापक समर्थन का निर्माण करने के लिए समाज के सभी स्तरों पर प्राणीरूजा और उभरते संक्रामक रोगों के जोखिमों और रोकथाम (जहां उपयुक्त हो) के बारे में जागरूकता और ज्ञान बढ़ाने पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिस पर और अधिक बल देने की आवश्यकता है।
  2. शासकीय पहलः पशु चिकित्सा सबंधित शासकीय कार्यालयाध्यक्ष ‘एक स्वास्थ्य’ परिप्रेक्ष्य के अंतर्गत विश्व स्वास्थ्य संगठन / खाद्य और कृषि संगठन / विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन इत्यादि त्रिपक्षीय सहभागिता सहित अंतःविषयक दृष्टिकोण से पर्यावरणीय विचारों के एकीकरण के मजबूतीकरण में निवेश पर बल देते हैं।
  3. वैज्ञानिक विस्तार सहयोग: पर्यावरण, पशु स्वास्थ्य और मानव स्वास्थ्य के इंटरफेस पर जोखिमों का आंकलन करने और हस्तक्षेप विकसित करने के लिए, प्राणीरूजा रोगों सहित उभरती संक्रामक बीमारियों के जटिल सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक आयामों में वैज्ञानिक जांच का विस्तार करने में सहयोग करते हैं।
  4. निगरानी और विनियमन: सभी खाद्य प्रणालियों के पोषण, सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक लाभों को ध्यान में रखते हुए, फार्म से घर पहुंचते खाद्य उत्पादों तक (विशेष रूप से उभरने के संरचनात्मक चालकों को दूर करने के लिए) और स्वच्छता उपायों में सुधार सहित, प्राणीरूजा रोगों से जुड़ी प्रणालियों की निगरानी और विनियमन के प्रभावी साधन विकसित करने पर पशु चिकित्सा में ध्यान दिया जाता है।
  5. प्राणीरूजा रोगों का टीकाकरण: पशुपालकों की सेवा में कार्यरत पशु चिकित्सक ब्रुसेलोसिस जैसे प्राणीरूजा रोगों की रोकथाम के लिए टीकाकरण करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं।
  6. जैव सुरक्षा और नियंत्रण: औद्योगीकृत कृषि और छोटे उत्पादक दोनों में पशुपालन में उभरती बीमारियों के प्रमुख चालकों की पहचान करने के साथ-साथ उत्पादन संचालित पशुपालन/पशुधन उत्पादन में जैव सुरक्षा उपायों का उचित लेखांकन को भी शामिल करने में सहयोग करते हैं। औद्योगिक और छोटे किसानों के लिए कारगर और कम इस्तेमाल किए गए पशुपालन प्रबंधन, जैव सुरक्षा और प्राणीरूजा रोग नियंत्रण उपायों को प्रोत्साहित करना, और ऐसी योजनाओं का विकास करना जो विविध लघुधारक प्रणालियों के स्वास्थ्य, अवसर और स्थिरता को मजबूती प्रदान करने में पशु चिकित्सक सहयोग करते हैं।
  7. झूठे या भ्रामक दावों से बचाव: पशु चिकित्सक राजकीय एजेंसियों के मध्य नए उत्पादों के विकास को प्रोत्साहित करते हैं और साथ ही, उन उत्पादों के उपभोक्ताओं को झूठे या भ्रामक दावों से बचाव करने में अहम् भूमिका निभाते हैं।
  8. कृषि और वन्यजीव आवास: कृषि और वन्यजीवों के स्थायी सह-अस्तित्व को बढ़ाने वाले परिदृश्यों और समुद्री परिदृश्यों के एकीकृत प्रबंधन, जिसमें खाद्य उत्पादन के कृषि-पारिस्थितिक तरीकों में निवेश शामिल हैं जो प्राणीरूजा रोग संचरण के जोखिम को कम करते हुए अपशिष्ट और प्रदूषण को कम करते हैं, का समर्थन करते हैं। वन्यजीवों के आवास संरक्षण और पुर्नत्थान, पारिस्थितिक संपर्क के रखरखाव, उनके आवास हानि में कमी, और सरकारी और निजी क्षेत्र के निर्णय लेने और योजना प्रक्रियाओं में जैव विविधता मूल्यों को शामिल करने पर मौजूदा प्रतिबद्धताओं के कार्यान्वयन को मजबूत करके वन्यजीव आवास के विनाश और विखंडन को कम करने में भी भूमिका अदा करते हैं।
  9. वित्तीयः हालांकि, पशुचिकित्सकों का वित्तीय विशलेषण से प्रत्यक्ष रूप से तो संबंध नहीं है लेकिन प्रशासनिक पशु चिकित्सकों का सहयोग अवश्य ही सराहनीय है। बीमारी के सामाजिक प्रभावों (हस्तक्षेपों के अनपेक्षित परिणामों की लागत सहित) के पूर्ण लागत लेखांकन को शामिल करने के लिए उभरती हुई बीमारियों की रोकथाम के हस्तक्षेप के लागत-लाभ विश्लेषण में सुधार करने करने की आवश्यकता है ताकि निवेश को अनुकूलित किया जा सके और व्यापार के कम होने की संभावनाओं को कम किया जा सके। चल रही और अच्छी तरह से तैयार की गई योजना और प्रतिक्रिया तंत्र को सुनिश्चित करने पर बल दिया जाना चाहिए।

विभिन्न पेशेवरों के बीच समन्यव

जैसा कि मानव चिकित्सा आमतौर पर प्राणीरूजा रोग कारकों के संचरण में पशुओं की भूमिका में गहराई से रूची दृष्टिगोचर नहीं है और पशु चिकित्सा मानव रोगों के नैदानिक पहलुओं को कवर नहीं करती है, लेकिन प्राणीरूजा रोग नियंत्रण में चिकित्सकों और पशु चिकित्सकों दोनों की भागीदारी की आवश्यकता है। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि पशु चिकित्सक और चिकित्सक दोनों प्राणीरूजा रोग के नियंत्रण में शामिल हों क्योंकि चिकित्सक आमतौर पर रोग के संचरण में पशुओं की भूमिका पर विचार नहीं करते हैं और पशु चिकित्सकों को मानव रोग के नैदानिक पहलुओं पर व्यापक प्रशिक्षण प्राप्त नहीं होता है।

प्राणीरूजा रोगों के जोखिमों और रोकथाम के बारे में व्यापक सहमति को बढ़ावा देने के लिए व्यापक स्तर पर दोनों पेशेवरों के बीच संबंधों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पशु चिकित्सक प्राणीरूजा रोगों और उन्हें कम करने के लिए संभावित जोखिम की जानकारी रखते हैं, रोगों की रोकथाम के बारे में विश्वसनीय जानकारी प्रदान करने के लिए और जोखिमों को कम करने के लिए पालतू पशुओं को उचित समय पर निवारक औषधी की सिफारिश करने के लिए एक आदर्श स्थिति में रखा जाता है।

हालांकि, प्रमुख प्राणीरूजा रोगों को रोकने और नियंत्रित करने में सफलता विभिन्न क्षेत्रों में संसाधन जुटाने की क्षमता पर और विशेष रूप से राष्ट्रीय (या अंतर्राष्ट्रीय) पशु चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच समन्वय और अंतरक्षेत्रीय दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। इसलिए पशु चिकित्सकों, चिकित्सकों और सार्वजनिक स्वास्थ्य पेशेवरों के बीच घनिष्ठ सहयोग की आवश्यकता है और पशु चिकित्सा और चिकित्सा समुदायों को नैदानिक, सार्वजनिक स्वास्थ्य और अनुसंधान सेटिंग में मिलकर काम करना चाहिए। प्राणीरूजा रोगों के प्रकोपों ​​के दौरान राज्य के अधिकारियों के साथ-साथ स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ काम करने की भी आवश्यकता है।

सारांश

विश्वभर में, प्राणीरूजा रोग मनुष्यों और कशेरूकी जीवों के बीच संचरित ऐसे रोग जिनका मनुष्यों, पशुओं और पर्यावरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इनके बहुत बड़े पैमाने पर फैलने से जीवन रूक सा जाता है और एक खामोशी सी छा जाती है और जीवन की गति भी रूक जाती है। अतः पशु चिकित्सकों और विभिन्न बहुविषयक विद्वानों के हस्तक्षेप से ‘एक स्वास्थ्य’ छत्रप के नीचे इन समस्याओं को सुलझा कर जीवन को होने वाली दुखःद घटनाओं को रोका जा सकता है।

आओ साकार करें, आत्मसात करें

एक विश्व के एक चिकित्सा रूपी

एक स्वास्थ्य के सुखद भविष्य की।

 https://www.msdvetmanual.com/public-health/public-health-primer/role-of-the-veterinarian-in-public-health-one-health#:~:text=domains%2C%20described%20below.-,Diagnosis%2C%20Surveillance%2C%20Epidemiology%2C%20Control%2C%20Prevention%2C,and%20Elimination%20of%20Zoonotic%20Diseases%3A&text=In%20addition%20to%20managing%20direct,diseases%20that%20affect%20human%20health.

संदर्भ: यदि वांछित हो तो प्रदान किये जा सकते हैं।

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