सालमोनेलोसिस एक खतरनाक जूनोटिक बीमारी

0
455

सालमोनेलोसिस एक खतरनाक जूनोटिक बीमारी

 

डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चौमुंहा, मथुरा, उत्तर प्रदेश

सालमोनेलोसिस को, टाइफाइड,पैराटायफाइड फीवर एवं एंटरिक फीवर भी कहते हैं। यह एक भयंकर अति संक्रामक रोग है जो सालमोनेला प्रजाति के जीवाणु द्वारा फैलता है। यह लगभग अधिकांश प्रकार के पशुओं में पाया जाता है। रोगी पशु में सेप्टीसीमिया एवं गंभीर दस्त होता है। आर्थिक दृष्टिकोण से यह एक महत्वपूर्ण बीमारी है क्योंकि इसमें पशुओं की मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। जो पशु उपचार द्वारा बच भी जाते हैं उनकी उत्पादन क्षमता काफी कम हो जाती है।
यह एक जूनोटिक रोग है। अर्थात हमारे देश में मनुष्य में भी बड़े पैमाने पर यह बीमारी होती है। संक्रमित अंडे व मांस के खाने से मनुष्य में रोग का तीव्र प्रकोप होता है।

कारण:

सालमोनेला प्रजाति के जीवाणु। इस जीवाणु की लगभग 1000 प्रजातियां हैं जिसमें से अधिकांश प्रजातियां रोग उत्पन्न करती हैं। सालमोनेला जीवाणु तेज धूप व गर्मी से मर जाते हैं परंतु पानी, मिट्टी, गोबर तथा चारे में लगभग 7 महीने तक जिंदा रह सकते हैं। गीली मिट्टी में तो यह लगभग 1 वर्ष तक जिंदा रह जाते हैं।
गाय, बकरी, भेड़ तथा घोड़ों में यह रोग सालमोनेला टायफिमूरियम एवं सालमोनेला डबलिन के द्वारा फैलता है।
घोड़े में सालमोनेला अबारटस इक्वाई, जीवाणु से भी फैलता है।
मनुष्य में यह रोग सालमोनेला टायफी एवं सालमोनेला पैराटाइफी द्वारा फैलता है।

रोग का प्रसारण:

बहुत कम और बहुत अधिक उम्र वाले पशु अधिक प्रभावित होते हैं। रोगी पशु के संपर्क में आने से स्वस्थ पशु रोग ग्रस्त हो जाते हैं। रोगी पशु के गोबर से दूषित आहार व पानी भी, रोग फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सालमोनेलोसिस का प्रकोप वातावरण के मध्यम तापमान तथा नमी में होता है क्योंकि सूखे व धूप में बैक्टीरिया मर जाते हैं।

READ MORE :  Obstructive Urolithiasis in Male Buffalo Calves: Treatment and Management

साल्मोनेला का संक्रमण का तरीका:

आहार नाल के रास्ते शरीर में प्रवेश करता है जहां आंत्र की श्लेषमिक झिल्ली का अत्याधिक नुकसान होता है। जीवाणुओं के टॉक्सिन से म्यूकोसा पर रक्त स्राव एवं सड़न हो जाती है। आंतों द्वारा सोडियम लवण का अवशोषण घटने से व क्लोराइड अधिक छोड़ने से गंभीर दस्त हो जाते हैं जिससे शरीर में निर्जलीकरण हो जाता है।

लक्षण:

इस रोग में कोई विशिष्ट लक्षण प्रकट नहीं होते हैं और पशु बीमारी का वाहक बना रहता है।

१. सेप्टीसीमिया:

4 महीने की उम्र से कम नवजात पशुओं में यह अवस्था पाई जाती है।
तेज बुखार लगभग 105 से 107 डिग्री फॉरेनहाइट तथा पशु सुस्त व कमजोर हो जाता है।
गोबर, सीमेंट या पुट्टी के रंग की जिसमें रक्त के थक्के आते हैं।
अधिकांश पशुओं की मृत्यु 1 से 2 दिन में हो जाती है। जो पशु जीवित बच जाते हैं उनके गोबर में जीवन पर्यंत जीवाणु निकलते रहते हैं।

२. एक्यूट एन्टराइटिस/ आंत्रशोथ:

यह अवस्था वयस्क पशुओं में मिलती है।
तेज बुखार 104 से 106 डिग्री फारेनहाइट होता है।
पानी जैसे तेज दस्त जिसमें रक्त के थक्के व म्यूकस भी निकलता है। खूनी दस्त के कारण रक्ताल्पता एवं बार-बार दस्त से पेट दर्द एवं मरोड़ होता है।
पशु चारा दाना खाना बिल्कुल
बंद कर देता है परंतु पशु को निर्जलीकरण के कारण प्यास अधिक लगती है।
गर्भित पशुओं में गर्भपात हो सकता है।
पेट दर्द के कारण पैर पटकना, जमीन पर तड़पना तथा पेट की ओर देखना आदि लक्षण पाए जाते हैं।
गंभीर दस्त, के परिणाम स्वरूप निर्जलीकरण के कारण पशु की मृत्यु 2 से 5 दिन में हो जाती है।

READ MORE :  Neoplasia of the Gastrointestinal System in Cattle

बीमारी का भविष्य:

गर्वित गाय-भैंसों में रोग की परिणिति गर्भपात के रूप में होती है।
घोड़े के बच्चे एवं बछड़ों के पैर के जोड़ों में दर्दनाक पोलीआर्थराइटिस हो जाता है।
कान व पूछ के आखिरी भाग में गैंग्रीन होने से सूख कर काले हो जाते हैं।

निदान:

जीवित पशुओं में निदान करना काफी कठिन होता है।
रोग का निदान इतिहास, लक्षण तथा जीवाणु के कल्चर के आधार पर।
काकसीडिओसिस, पाश्चुरेलोसिस, विषाक्तता, सफेद दस्त, यकृत क्रमी का संक्रमण, तथा जॉनी डिजीज के साथ डिफरेंशियल डायग्नोसिस करके करना चाहिए।

प्राथमिक उपचार:

ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीमाइक्रोबॉयल औषधि जैसे सल्फा ड्रग (सल्फा प्लस ट्राईमेंथोप्रिम)
सपोर्टिव उपचार में फ्लूड थेरेपी, स्ट्रेंजेनट, डिमुल्सेंट इत्यादि का प्रयोग करते हैं।
रिंजर लेक्टेट, इंट्रावेनस एवं मुंह से इलेक्ट्रोल भी देते हैं।
उपचार जितना जल्दी हो सके प्रारंभ कर देना चाहिए अन्यथा देरी होने से आंतों की मुकोसा, की स्थिति अधिक खराब हो जाने से स्थिति गंभीर हो जाती है।

नियंत्रण:

जहां पशु बच्चा देते हैं वहां पूरी साफ सफाई रखनी चाहिए।
नवजात पशु को यथाशीघ्र खींस अर्थात कोलोस्ट्रम पिलाना चाहिए तथा अधिक ठंड व गर्मी से बचाएं।
पशुओं को दूषित आहार, तालाब /पोखर का पानी नहीं पिलायें।
रोगी पशु का तत्काल उपचार करवाना चाहिए।

सालमोनेलोसिस का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव:

मनुष्य में भी सालमोनेलोसिस का अत्यंत खतरनाक प्रकोप टाइफाइड बुखार के रूप में होता है।
उसकी रोकथाम के लिए रसोई, रसोइए तथा खाद्य पदार्थों को छूने वाले व्यक्तियों को स्वच्छ रहना चाहिए।
दूध को उबालकर पीए या पाश्चराइज्ड दूध का उपयोग करें।
मनुष्य में इसका संक्रमण दूषित पानी, दूध, मांस, अंडा, सब्जियां व अन्य खाद्य पदार्थों के खाने से होता है।
रोगी को अचानक पेट दर्द, दस्त, उल्टी व बुखार होता है। छोटे बच्चों बुजुर्गों व कमजोर व्यक्तियों में मृत्यु दर अधिक होती है।

READ MORE :  Application of Ethnoveterinary Practices and Veterinary Homeopathy/Veterinary Ayurveda in treatment of mastitis in Dairy cattle

संदर्भ: प्रीवेंटिव वेटरनरी मेडिसिन द्वारा अमलेनद्रु चक्रवर्ती

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON