वैज्ञानिक पद्धति द्वारा  गौ पालन

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वैज्ञानिक पद्धति द्वारा  गौ पालन

डॉ जितेंद्र सिंह ,पशु चिकित्सा अधिकारी, कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश

कैसे शुरू करे डेरीफार्म का व्यापार

डेयरी फार्म का कारोबार आम दूसरे कारोबार की तरह नहीं होता है. ये कारोबार सुनने में जितना सरल लगता है उतना सरल बिल्कुल नहीं है.अक्सर कहते है खुद के मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता , डेयरी फार्म को  सही तरह से चलाने में  भी खुद को ही बहुत  मेहनत करना पड़ती है , नौकरों के भरोसे ये काम संभव नहीं है .  आइये समझे ,इस कारोबार को शुरू करने में किन-किन चीजों का ध्यान रखने की जरूरत पड़ती है. कैसे आप इस कारोबार को सही तरह से चला सकते है. लेकिन इन सबसे पहले आपको ये जानना जरूरी है कि इस व्यापार की हमारे देश में क्या स्थिति है और इसके जरिए आप कितना मुनाफा कमा सकते हैं.

देश में डेयरी फार्म की मांग और इससे जुड़ा मुनाफा 

साल 2020-21 के दौरान किए गए एक आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक दूध उत्पादन में भारत पहले स्थान पर है. भारत विश्व में होने वाले दूध उत्पादन का 22 % हिस्सा उत्पाद करता है. जिसका मतलब ये है कि इस व्यापार की मांग हमारे देश में काफी है. वहीं दूध एक ऐसा उत्पाद है जिसका निर्यात करके भी आप पैसे कमा सकते हैं. वहीं अभी हाल ही में भारत सरकार द्वारा पेश की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले सालो में डेयरी पालको की आय में 23.77% की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस व्यापार से ना केवल दूध की बल्कि इससे जुड़े किसानों की भी आय में अच्छी खासी वृद्धि हुई है.

स्थान का चयन करना-

इस व्यापार को शुरू करने से पहले आप एक स्थान का चयन कर लें. जहां पर आपके द्वारा खरीदी गई भैंसों या गायों को रखा जाएगा. किसी भी प्रकार की डेयरी खोलने से पहले स्थान का चयन करना बेहद ही जरूरी होता है. उस स्थान पर पानी की कैसी सुविधा है, इसको अच्छे से पता कर लें. क्योंकि भैंसों या गायों द्वारा अच्छा खासा पानी पिया जाता है. इसलिए ऐसे ही स्थान का चयन करें, जहां पर आपको खुलकर पानी मिल सके. वहीं गर्मी के मौसम में भैंसों या गायों को हवा देने के लिए पंखे की भी जरुरत पड़ती है. जिसके लिए ये देख लें, कि वहां पर बिजली की सुविधा मौजूद हो.

एक या दो एकड़ जमीन पर ही अपनी डेयरी को खोलें. क्योंकि जितना खुला स्थान होगा आप उतने अच्छे से भैंसों या गायों को दिए जाने वाली खाने के सामान को रख सकेंगे.

कई स्तर पर शुरू कर सकते हैं ये व्यापार 

इस व्यापार को आप छोटे, मध्यम और बड़े पैमाने पर भी शुरू कर सकते हैं. अगर आपके पास ज्यादा संख्या में भैंस या गाय खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं, तो आप केवल चार भैंसों को रखकर भी ये व्यापार खोल सकते हैं. लेकिन ये याद रखें की जितना ज्यादा दूध आपको इन भैंसों से मिलेगा उतना ज्यादा ही आपका मुनाफा होगा. यानी अगर आप चार भैंसे रखते हैं, तो आपको मुनाफा तो होगा ही मगर ज्यादा नहीं. वहीं अगर इन भैंसो या गायों की संख्या बढ़ा दी जाती है, तो आपका लाभ भी बढ़ेगा. नीचे हमने आपको तीन स्तर पर डेयरी फॉर्म खोलने से जुड़ी कुछ जानकारी दे रखी है.

  • बड़े स्तर पर डेयरी फार्म

इस तरह की डेयरी फार्म खोलने के लिए आपको 20  लाख रुपए तक लगाने पड़ सकते हैं. इस डेयरी में आपको कम से कम 20 भैंसों को रखना होगा. एक भेंस  की अनुमानित कीमत ७५,०००/-(परिवहन सहित )आ सकती है . भवन निर्माण पर एवं अन्य उपकरणों पर ५ लाख खर्च अनुमानित है. वहीं अगर आपको एक भैंस दिन का 8 लीटर दूध देती है, तो 20 भैंसों के हिसाब से आपको दिन का 160 लीटर दूध बेचने के लिए मिल जाएगा. वहीं आप इस दूध को अगर कम से कम  40 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से बेचते हैं, तो आपको दिन की 6400  हजार रुपए की आय होगी. हालांकि इस आय  में निम्न खर्च शामिल है .

        एक दिन का एक भैंस पर खर्च 

एक भैंस को पोषण आहार पर खर्च  दाना ५ किलो =१००/-                                     अपने खेत से प्राप्त हरा चारा १० किलो            =२०/-                                                     भूसा ५ किलो =                                २०/-

१४० /-X २० भैंस =    २८००

कर्मचारी /ब्याज /बिजली पानी/बीमा /इलाज अन्य खर्च  ८०  X  २० भैंस  = १६००

४४००/-

   एक भैंस से एक दिन की आय

आय 6400 – 4400/- =2000 /- मुनाफा प्रति दिवस

एक माह की आय 3600X30= 60,000/-

तीसरे – चोथे साल से मुनाफे की सीमा बढ़ना शुरू हो जाती है क्योंकि अपने फार्म पर जन्मी भैंसों से भी आमदनी शुरू हो सकती है.

 

 मध्यम स्तर की डेयरी फार्म : इस तरह की डेयरी फार्म चलाने के लिए आपको 7 से 10 लाख रुपए तक की जरूरत पड़ेगी.   वहीं आपको इस व्यापार को शुरू करने के लिए कम से कम 10 से 15  भैंसों या गायों की आवश्यकता पड़ेगी. वहीं आपके मुनाफे की बात करें, तो आपको इस लेवल के डेयरी फार्म को खोलने से करीबन 35 हज़ार तक का लाभ हो सकता है. वहीं अगर आप भैंसों या गायों की संख्या बढ़ा देते हैं तो आपका लाभ और बढ़ जाएगा.

  • छोटे स्तर के डेयरी फार्म (Small scale dairy farming)

आप कम पैसों में भी डेयरी खोल सकते हैं. छोटे स्तर पर इस व्यापार को शुरू करने के लिए आपको पांच भैंसों या गायों की जरूरत पड़ेगी. वहीं इन भैंसों को लेते समय ये सुनिश्चित कर लें, कि ये अच्छी नस्ल की हों और एक दिन में कम से कम 10 लीटर दूध तो अवश्य दे. छोटे स्तर पर डेयरी खोल कर आपको महीने के 20 हजार रुपए तक का लाभ हो सकता है.

भारत सरकार द्वारा डेयरी फार्म के कारोबार को बढ़ावा देने के लिए कई तरह की मदद की जा रही हैं. आप भैंस या गाय को सरकार द्वारा बनाए गए एक पोर्टल के जरिए खरीद सकते हैं. इस पोर्टल का लिंक इस प्रकार है– https://epashuhaat.gov.in/.  इस लिकं पर जाकर आपको कई नस्ल की भैंसों या गायों की जानकारी मिल जाएगी. इतनी ही नहीं आप चाहें तो इन्हें इस पोर्टल के जरिए खरीद या बेच भी सकते हैं. ऊपर बताए गए लिंक के अलावा आप एक अन्य लिंक पर भी जाकर भैंस को खरीद सकते हैं. ये लिंक इस प्रकार है

https://epashuhaat.gov.in/.  इस लिकं पर जाकर आपको कई नस्ल की भैंसों या गायों की जानकारी मिल जाएगी. इतनी ही नहीं आप चाहें तो इन्हें इस पोर्टल के जरिए खरीद या बेच भी सकते हैं, या आपिस लिंक पर भी जाकर खरीद सकते है

https://www.indiamart.com/proddetail/jersey-cows-7765497548.htm

व्यापार करने का तरीका-

इस व्यापार को करने के दो तरीके हैं. पहले तरीके के तहत आप दूध को किसी कंपनी,दुग्ध संघ  या दूध के बड़े  व्यापारी को  को बेच सकते हैं. ऐसे कई सारी कंपनियां हमारे देश में हैं, जो कि दूध वालों से रोजाना उनका दूध खरीदती हैं. या फिर दूध आप  घर घर खुली बंदी बाँध कर बेच सकते है. इसमें मुनाफा व मेहनत दोनों ज्यादा है .  वहीं अन्य  तरीके के तहत आप अपनी कंपनी खोलकर दूध को बाजार में सीधे तौर पर बेच सकते हैं. हालांकि अपनी कंपनी खोलने के लिए आपको थोड़ी ज्यादा मेहनत करनी होगी. लेकिन एक बार आपकी कंपनी चलने लगेगी तो आपको लाभ भी अच्छा होगा. इतना नहीं कंपनी शुरू करके आप दूध से बनने वाले अन्य उत्पादों को भी बेच सकते हैं. जैसे दही, पनीर, मक्खन इत्यादि जैसे उत्पाद. यदि आपके पास गाय का दूध है तो बंगाली मिठाई बनाने वालो को भी आप दूध बेच सकते है .वहीं अगर आप कंपनी शुरू करते है तो नीचे दी गई बातों का ध्यान रखें.

व्यापार का पंजीकरण (License process)

अपनी कंपनी खोलकर अगर आप दूध बेचना चाहते हैं, तो आपको इसके लिए अपनी कंपनी का पंजीकरण करवाना होगा. कंपनी का पंजीकरण करवाने के लिए आपको अपनी कंपनी के लिए एक नाम सोच कर रखना होगा. वहीं आप अपनी कंपनी के नाम का पंजीकरण स्थानीय प्राधिकरण से दफ्तर में जाकर करवा सकते हैं. इसके अलावा आपको ट्रेड लाइसेंस, FSSAI लाइसेंस और वैट पंजीकरण करवाने की भी जरूरत पड़ेगी. इन लाइसेंस और पंजीकरण की प्रक्रिया में आपका थोड़ा सा खर्चा भी आएगा

अगर आपको इस कारोबार को शुरू करने में पैसों की कोई तंगी आ रही है, तो आप बैंक से लोन ले सकते हैं. वहीं इस व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा भी कई तरह सब्सिडी की सुविधा दी जा रही है. वहीं किसी भी बैंक से लोन लेने से पहले ये सुनिश्चित जरूर कर लें, कि आपको वो लोन कितनी ब्याज दर और कितने समय के अंदर वापस करना होगा . यदि हमारे नवयुवक भाई बहनों ने डेयरी फार्म का काम  आने पारमपरिक ज्ञानके साथ में वैज्ञानक दृष्टिकोण अपना कर किया तो ये सौदा फायदे का हो सकता है

दुधारु पशुओं में आहार प्रबंधन

गौ पषुओं का महत्व भारतीय अर्थव्यवस्था में सर्वविदित है। इनका खेती के संग लगातार पूरक व अनुपूरक का संबंध रहा है। प्रीाावी आहार प्रबंध पषुओं के उत्पादन स्तर व स्वास्थ्य को सर्वधिक प्रभावित करता है। पषुपालन पर होने वाले कुल खर्च का लगभग 75 प्रतिषत पषुओं की खिलाई पिलाई पर आता है। अतः यह आवष्यक है कि जहां तक सम्भव हो गौ पषुओं को पर्याप्त चारा व पोषक तत्व, ऊर्जा, प्रोटीन, खनिज तत्व विटामिन व जल लगातार मिलते रहें। हमारे देष में हरे चारे का उत्पादन दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और दाने वाली फसलों के अन्र्तगत क्षेत्रफलों के अन्र्तगत क्षेत्रफल बढ़ रहा है। इसके परिणामस्वरुप उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भूसा व पुआल जैसे सूखे चारे ही गौ- पषुओं के मुख्य आधारिक आहार है। यह चारे पषु चाय से नहीं खाते। इनके कम अन्र्तग्रहण, निम्न पाचकता, नाइट्रोजन एवं खनिजों जैसे कुछ महत्वपूर्ण तत्वों की कमी के कारण पषुओं को संतुलित मात्रा में पर्याप्त पोषक तत्व नही मिल पाते। इन सूखे चारों में प्रोटीन की मात्रा 3 से 4 प्रतिषत पायी जाती है, जबकी पषुओं के आहार में प्रोटीन की मात्रा कम से कम 6-7 प्रतिषत होनी चाहिए जो कि पषुओं के उत्पादन के अनुसार बढ़ती रहती है। पषु पोषण खाद्य पदार्थो की उपलब्धता व उनकी कीमत, पषु प्रजाति उनकी आयु भार उत्पादन स्थिति (जैसे गर्भावस्था, दूध उत्पादन अवस्था, वृद्धि अवस्था) आदि पर निर्भर करता है। ग्रामीण अंचल में उपलब्ध क्षेत्रीय आहार संसाधनों के वैज्ञानिक रीति से समुचित उपयोग द्वारा पषुओं का उत्पादन बढ़ाना है। इसके लिए यह आवष्यक है कि पषु पोषण से प्रचलित आहारीय प्रणालियों से जुड़ी समस्याओ को समझकर उनका उचित समाधान किया जाए।

भारतीय सर्वोत्तम सुधारो गो नस्ल

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संतुलित पषु आहार
वह आहार जिसमें जीवन निर्वाह, अपेक्षित उत्पादन व स्वास्थ्य हेतु सभी पोषक तत्व (प्रोटीन, ऊर्जा, खनिज लवण एवं विटामिन आदि) समुचित मात्रा में मौजूद हों, संतुलित पषु आहार कहलाता है। पषुपालकों को यह समझना अति आवष्यक है कि पषुओं को अपने जीवन निर्वाह, शारीरिक क्रियाओं को सुचारु रुप से चलाने अथवा दूध को बढ़ाने के लिए, सभी पोषक तत्वों जैसे प्रोटीन, ऊर्जा, खनिज लवण एवं विटामिन्स की समुचित मात्रा में आवष्यकता होती है। जो कि किसी एक चारे, भूसे या दाने से पूरी नही की जा सकती है और न ही सभी पोषक तत्व किसी एक दाने अथवा खल में समुचित मात्रा में मौजूद होते है। अतः आवष्यक है कि पषुपालक अपने पषु को उसकी आवष्यकतानुसार सूखे चारों और संतुलित रातिब को उचित अनुपात में मिलाकर खिलायें।

संतुलित व पौष्टिक आहार के लाभ

  • पषुओं को सभी पोषक तत्व आवष्यकतानुसार संतुलित मात्रा में उपलब्ध कराता है।
  • पषु की दुग्ध उत्पादन क्षमता को लगभग 25-30 प्रतिषत बढ़ाता है एवं लम्बे समय तक दूध देने की क्षमता बनाये रखता।
  • पषुओं को कुपोषण से बचाता है व पषु का गर्मी में न आना, बार-बार फिरना, गर्भ न ठहरना आदि समस्याओं से छुटकारा दिलाने में मदद करता है।
  • पषुओं के दो ब्यांतों के अन्तर को कम करता है।
  • पषुपालक को पषुपालन से होने वाली आमदनी को बढ़ाता है।
  • पषु को स्वस्थ, तन्दरुस्त एवं अधिक लाभदायी बनाता है तथा अपच, भूख में कमी कमजोरी आदि समस्याओं से भी राहत दिलाता है।


संतुलित संपूरक रातिब

एक संतुलित रातिब में दलिया, चोकर/पालिष व खल का उचित सम्मिश्रण होना आवष्यक है ताकि पषु उत्पादन हेतु पर्याप्त आवष्यक पोषक तत्व उन्हें मिल सकें। संतुलित रातिब में प्रोटीन की मात्रा लगभग 20 प्रतिषत होनी चाहिए। सामान्यतः पषुपालक प्रक्षेत्र पर उपलब्ध जो भी घटक होता है उसे ही अपने पषु को खिला देते हैं जैसे मात्र दलिया या चोकर अथवा खल रातिब मिश्रण की उपलब्धता पर निर्भर करती है। इस प्रकार पषुओं के आहार में प्रोटीन की 50 प्रतिषत कमी पायी जाती है। दुधारु पषुओं की उत्पादन क्षमता के अनुसार निम्न प्रकार के संतुलित रातिब बनाकर उचित मात्रा में खिलायें जा सकते है।

 

गाय भैंस में टीकाकरण

 

पशुओं में क्षयरोग/ तपेदिक ( ट्यूबरक्लोसिस/ टी०बी०) के कारण, लक्षण, बचाव एवं रोकथाम

क्षय रोग पशुओं में एक दीर्घकालीन संक्रामक छूतदार बहुत ही खतरनाक जूनोटिक अर्थात पशुजन्य रोग है,  और ये पशुओं से इंसानों और इंसानों से पशुओं में भी फैल सकता है। मनुष्य के स्वस्थ्य के रक्षा के लिए इस रोग से काफी सतर्क रहने की जरूरत है।

  1. पशुओं में यह रोग माइकोबैक्टेरियम बोविस तथा मनुष्यों में माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस नामक जीवाणु से होता है। दोनों प्रजातियां पशु एवं मनुष्यों में क्षय रोग उत्पन्न कर सकती हैं।
  2. गाय, भैंस, बकरी, भेड़, शुकर, बिल्ली , घोड़ा, कुत्ता,  ऊंट, पक्षियों, मनुष्यो, जंगली पशु प्रभावित होते हैं।
  3. इस रोग के जीवाणु संक्रमित पशुओं के दूध, लार, मल अथवा नाशिका श्राव मैं विसर्जित होते हैं।
  4. रोग कf संक्रमण स्वास या आहार नली, भोजन, पानी या दूध से होता है।
  5. दूध पीने वाले नवजात बच्चों को या युवा बछड़ों में इस रोग का संक्रमण पाचन तंत्र के मार्ग द्वारा होता है। बछड़ों में जन्मजात क्षय रोग भी हो सकता है।
  6. यह रोग  एक संक्रमित पशु से दूसरे स्वस्थ्य पशु के सम्पर्क में आने से भी आसानी से फैलता है।
  7. यह रोग पशुओं से मनुष्यो में भी फैलता है।
  8. मनुष्यों में यह संक्रमण संक्रमित पशुओं के संसर्ग में रहने वाले या संक्रमित पशु के रोग पशु का कच्चा दूध एवं बिना पाश्चुरीकृत दूध व ऐसे दूध से बने पदार्थों का सेवन या कच्चा या अधपका मांस का सेवन करने से भी यह रोग हो जाता है।
  9. यह रोग आम तौर परफेफड़ों पर हमला करता है, लेकिन यह शरीर के अन्य भागों को भी प्रभावित कर सकता हैं।

लक्षण

  1. लंबे समय तक सूखी खांसी, श्वांस में कठिनाई, भूख में कमी,शुष्क चमड़ी,कार्यक्षमता में कमी एवं कन्धे और पुट्ठै की लसिका ग्रंथियो के आकार में वृद्धि तथा उसके फेफड़ों में सूजन हो जाती है। कभी – कभी नाक से खून निकलता है।
  2. इस बीमारी से प्रभावित पशुओं में हल्का ज्वर (102-103 डिग्री फैरनहाइट) रहता है।
  3. पशु कमजोर और सुस्त हो जाता है।
  4. कभी-कभी थनैला रोग की समस्या भी पायी जाती हैं।
  5. अंतिम अवस्था में पशु अत्यंत दुबला पतला हो जाता है।

निदान 

सामान्यता पीड़ित पशु में क्षय रोग पहचानना अत्यंत कठिन होता है। संदेह होने पर संक्रमित पशुओं को पशु चिकित्सक से पशु जाँच कराने पर पशु के क्षय रोग से पीड़ित होने की संभावना व्यक्त करता है ता रोगी पशुओं को तुरंत बाड़े के अन्य पशुओं से अलग करना चाहिए क्योंकी यह एक असाध्य रोग है।

बचाव,  रोकथाम एवं उपचार

  1. पशुओं में क्षय रोग की कोई संतोषजनक चिकित्सा नहीं है और ना ही कोई टीका उपलब्ध है।
  2. मनुष्य पाश्चुरीकरण युक्त दूध का ही सेवन करें या दूध को ठीक प्रकार से उबालकर दूध का सेवन करें
  3. मनुष्य में इस रोग से बचाव के लिए बीसीजी का टीका बच्चों को कम उम्र में लगाया जाता है।
  4. इस बीमारी की रोकथाम में बहुत समय लगता है।
  5. टीबी के उपचार में एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग करके बैक्टीरिया को मारा जाता है।
  6. माइक्रोबैक्टीरिया कोशिका दीवार की असामान्य संरचना और रासायनिक संघटन के कारण प्रभावी टीबी का उपचार कठिन है, जो कि दवाओं के प्रवेश को बाधित करते हैं और कई एंटीबायोटिक दवाओं को अप्रभावी करते हैं।
  7. स्टृप्टोमाइसिन, रिफाम्पिसिन, आइसोनियाजिड का संयुक्त तरीके से लंबे समय (कम से कम 6 माह) तक प्रयोग करना चाहिए जो लाभकारी प्रभाव दिखाता है।
  8. खनिज तत्वो व विटामिन से पूर्ण पौष्टिक आहार देना चाहिए|
  9. पशुशाला में पशुओं के रहने  का स्थान पर्याप्त व हवादार होना चाहिए एवं उसमें दिन के समय सूर्य का प्रकाश अवश्य आता हो।
  10. पशुओं के बाड़े को साफ-सुथरा रखना चाहिए साफ-सफाई का बेहतर प्रबंधन,  नियमित विसक्रंमण का प्रबंध करना चाहिए।
  11. जो व्यक्ति पशुओं की देखभाल करता हो वह भी क्षय रोग से मुक्त हो।
  12. बीमार पशुओं की देख-भाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए|
  13. बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा देना चाहिए|
  14. रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए|
  15. रोगी पशु के गोबर, मूत्र, शराव एवं चारे आदि को जला देना चाहिए या गहरे गड्ढे में गाड़ देना चाहिए।
  16. पशुशाला यदि पक्की है तो उसे जीवाणुनाशक औषधि 5% फिनोल अथवा 5% फॉर्मलीन के घोल से भली-भांति धोना चाहिए।
  17. इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुला न छोड़कर गाढ़ देना चाहिए|

 

गैावंशीय पशुओं में खुरपका एवं मुंहपका रोगः प्रसारण, लक्षण तथा रोकथाम

यह बहुत ही संक्रामक व छूत से फैलने वाली विमारी है जो कि पिकौर्नाविरिडी कुल के, RF II विषाणु से होता है । जिसके छः विषाणु स्ट्रेन होते है। जैसे कि, O, A, C, SAT-1, SAT-2 SAT-3 और एशिया-1 (भारत मे मुख्य रूप से O, और एशिया-1 विषाणु की प्रवृत्ति या स्ट्रेन पाये जाते है। मुख्य रूप से O स्ट्रेन इसके बाद एशिया-1। यह विमारी सभी विभाजित खुरों वाले पशुओं व सुअरों मे पाई जाती है।

प्रसारण-

  1. इस रोग का विशाणु संक्रमित पशु के स्त्रावों जैसे लार, मल-मूत्र ,दुग्ध आदि से बाहर निकलता है।
  2. स्वस्थ पशु में यह रोग संक्रमित पशु के सम्पर्क में आने से ।
  3. संक्रमित खाद्य पदार्थ व पानी से ।
  4. संक्रमित पशु के सास द्वारा (ऐरोसोल प्रसारण)
  5. संक्रमित सास से व मनुश्यो द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक ।
  6. कुछ कीट भी इस रोग को प्रसारित या फैलाने के माध्यम का कार्य करते है।

लक्षण  इस रोग की पहचान निम्न लक्षणों के आधार पर किया जा सकता है।

  1. पशु के षरीर का तापमान अधिक हो जाना (101-104 डिग्री फारनेहाइड)
  2. अत्यधिक लार स्त्रावण जो कि रस्सी की तरह मुह से जमीन तक लटकी रहती है।
  3. दुग्ध उत्पादन मे कभी आ जाना।
  4. मुख गुहा, जीभ और ओठों मे छाले हो जाते है।
  5. मुख के साथ पैरों पर खुरो के बीच व थनों मे भी छाले पाये जाते है।
  6. पैरो के छालों के फटने पर पशु को दर्द होता है। और वह लगड़ाकर चलता है या चल नही पाता।
  7. छालों के फूटने पर,मुख और पैरो मे फफोले में बदल जाते है। और इनमें कीडे़ पड़ जाने पर घाव हो सकता है।
  8. थनों मे संक्रमण होने से थनैला हो जाता है।
  9. गर्भित मादा पशुओं मे गर्भपात हो जाता है।
  10. युवा पशुओं मे इस रोग मे हद्रय प्रभावित होता है । अतः युवा पशुओं मे मुख्य लक्षण – 1. सांस लेने मे परेशानी 2. चक्कर आना 3. अनियमित हद्रय दर 4. अंत मे युवा पशुओं की मौत हो जाती है।
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उपचार

क्योकि यह रोग विषाणु जनित रोग है, अतः इस रोग का कोई पक्का उपचार नही है। फिर लिए प्रतिजैविकवीय संक्रमण को रोकने के लिए प्रतिजैविक औषधियों जैसे – आक्सीटैन्द्रासाइक्लिन, जैटोमाइसिन आदि का उपयोग करना चाहिए । इसके अलावा कुछ कुछ, लक्षणात्मक और सहारात्मक उपचार भी करना चाहिए। जैसे- संक्रमित पशु के छालों को 1 प्रतिशत पोटेशियम परमैन्गेट घोल से धोकर बोरोग्लिसरीन लगाना चाहिए।

पैरो के छालों के लिए सबसे पहले खूरों से गंदगी हटाकर 1 प्रतिशत फिनाइल से साफ करना चाहिए। खूरों के बीच या सावों पर प्रतिजैविक पाइडरों जैसे – बोरिक एसिड,या जिंक का छिड़कात करना चाहिए। यदि पैरो मे कीडे़ पड़ गये हो तो तारवीन का तेल,व कपूर, या नीम का तेल या फिनाइल लगाने  से कीडे़ मर जाते है।

रोकथाम व बचावः- यह एक संक्रामक, छूत का रोग है। अतः इस रोग का रोकथाम के लिए, निम्नलिखित उपाय करना चाहिए।

  1. सबसे पहले रोगी पशु को स्थस्थ पशु से अलग कर देना चाहिए।
  2. संक्रमित पशु को खान-पान की अलग व्यवस्था करना चाहिए।
  3. संक्रमित पशु को पानी पिलाने के लिए गाव के तालाब, या नदियों मे नही ले जाना चाहिए।
  4. गावो मे नये पशु को खरीदकर लाने के पहले उसका टीकाकरण करना चाहिए।
  5. संक्रमित पशु को निकट किसी भी गाव मे नहीले जाना चाहिए।
  6. जिस भी क्षेत्र में यह रोग हुआ हो वहा से 6 महीने तक कोई पशु नही खरीदना चाहिए।
  7. ऐसे मादा पशु संक्रमित जिनके दूध पीने वाले बछडो हो उसे दूध पीने के नही छोडना चाहिए।
  8. इस रोग से प्रभावी ढंग से गचाव के लिए पशु का टीकारण करना आवष्यक है।

 

गैावंशीय पशुओं में रक्त स्त्रावी सेप्टिसीमिया (गलघोंटू, पाश्चुरोलोसिस, शिपिंग फीवर): प्रसारण, लक्षण तथा रोकथाम

रोग कारक  यह एक बहुत ही संक्रामक जीवाणु जनित बिमारी है, जो कि पश्चुरैला मल्टोसिड़ा नामक जीवाणु से होती है। यह जीवाणु ग्राम निगेटिव, अवायुजीवी होता है। व दोनो सिरों पर अभिरजित होती है।

यह बिमारी मुख्य रूप से और गौवंशीय पशुओं मे होती है। 6 महीने से 2 साल के बछड़े सबसे ज्यादी संवेदी होते है। इसके अलावा भेड़, बकरी, सुअर, घोडे़ और ऊँटों मे भी यह बिमारी पाई जाती है। कुछ जंगली जानवरो में भी यह बिमारी कभी-2 पाई गई है।

फैलाव  यह रोग इन प्राणियों में अधिक होता है जो अधिक कार्य करने से, लम्बी दूरी तक परिवहन, मौसम मे अचानक परिवर्तन के कारण तनाव में आ जाते है। बरसात के मौसम मे यह बिमारी सबसे ज्यादा होती है। इस रोग के जीवाणु सवंमित पशु के लार में होते है। लार के द्वारा ये खादय पद्रार्थो में पहॅुचते है।

रोग के लक्षण  निम्नलिखित लक्षणों के आधार पर इस बिमारी को पहचान जा सकता है।

(1) उच्च तापमान (105-107 डिग्री फारनेहाइड)

(2) शरीर में लगतार कपकंपी होती है।

(3) सीने, गले और व्रिस्केट क्षेत्र मे सूजन होती है।

(4) सास लेने में कठिनाई होती है।

(5) अत्यधिक लार स्त्रावण और आखों से, नाक से लगातार संक्रमित पानी गिरता रहता है।

(6) सास लेने के दौरान घर्र-घर्र की ध्वनि सुनाई देती

(7) जीभ का बार -बार बाहर निकलना ।

(8) शरीर के श्लेष्म झिल्लिया लाल हो जाता है।

उपचार  वयोकि यह बहुत तीक्ष्ण प्रकृति की बिमारी है। इसलिए रोग होने पर तुरंत उपचार करना चाहिए। उपचार मे देरी होने पर विमार पशु को बचाने में मुष्किल होती है। फिर भी समय रहते निम्न प्रकार से उपचार किया जा सकता है।  अधिक मात्रा मे एंटीवायोटिक देना चाहिए । जैसे कि- आक्सीटेट्रासाइक्लिन 5-10मि.ग्रा./कि.शरीर के भार के अनुसार ए

सल्फोनामाइड- जैसे सल्फाडिमिडीन- 130-150 मि.ग्रा./ कि.ग्राम शरीर के भार के अनुसार नस में देना चाहिए।

इसके अलावा लक्षणत्मक उपचार जैसे एंटीइनफलोमट्री- दवाई जैसे बिटामेथाजोन, या डेक्सामेथाजोन-1 मि.ग्रा./कि.ग्राम शरीर के भारानुसार देना चाहिए।

रोकथाम व बचाव – 

क्योंकि यह बहुत ही संक्रामक बिमारी है, इसलिये रोग को स्वस्थ्य जानवर में फैलने से बचाने के लिए रोगी पशु का रख -रखाव अलग कर देना चाहिए । रोगी पशु का बचा हुआ पानी और खादय पदार्थ स्वस्थ पशु को कभी नही देना चाहिए । तथा रोगी पशु की मृत्यु हो जाने पर षव का उचित निस्तारण करना चाहिए। पशुशाला में निर्जमी कारकों का छिडकाव करना चाहिए । इस रोग के रोकथाम व बचाव का सबसे अच्छा तरीका है। पशु का हर साल 3 माह की उम्र से लेकर टीकाकरण करना चाहिए।

गौवंशीय पशुओं में एक टगिया रोग, (चुरका, लंगडा रोग, काला बुखार): प्रसारण, लक्षण तथा रोकथाम

रोग कारक: यह एक संक्रामक जीवाणु जनित रोग है। जो कि क्लोइट्रिडियम सौवी नामक जीवाणु से होता है। जो कि ग्राम पॉज़िटिव, वाला जीवाणु है। यह जीवाणु मिटटी में कई सालों तक जीवित रहता है।

प्रसारण – वह रोग मुख्यतः गौवंश भैंस और भेड़ में होता है। कभी-कभी घोड़ों में भी यह विमारी देखी जाती है। यह रोग मुख्यतः वर्षा ऋतु मे होती है। गौवंश में यह रोग अधिकांशत गर्मियों में होती है। 6 साल से 2 साल के पशु मे ज्यादा होता है।

(1) यह मिटटी द्वारा फैलने वाला रोग है। रोग के जीवाणु संक्रमित पशु के मल द्वारा या संक्रमित पशु के मृत्यु होने पर इसके शव द्वारा मिटटी में फैल जाते है। जहाँ से ये जीवाणु स्वस्थ पशु को संक्रमित करते है।

(2) सक्रंमित खादय पदार्थो के द्वारा।

(3) भेड़ो में यह रोग त्वचा के सावों के संक्रमण से होता है।

रोग के लक्षण  इस रोग का काल सामान्यतः 1 से 5 दिनो का होता है। इस रोग को निम्नलिखित लक्षणों के आधार पर पहचान जा सकता है।

(1) इस रोग का प्रथम लक्षण है कि पशु अचानक लॅगड़ाने लगता है। और इसकी चाल में अकड़न आ जाती है।

(2) प्रभावित पैंरो के उपरी हिस्से को दबाने पर चुर-चुर जैसे घ्वनि सुनाई देती है। सूजन के ऊपर त्वचा रोग हल्का पड़ जाता है। और सुखी औश्र दायर होती है।

(3) भूख कम हो जाना।

(4) जुगाली बंद कर देना है।

(5) उच्च तापमान (104-107 डिग्री फारनेहाइड) तक हो सकता है।

(6) रोगी पशु की उत्पादन क्षमता कम हो जाती है।

उपचार  समय पर रोग की पहचान कर रोग का इलाज किया जा सकता है। इसके लिए निम्न प्रकार से उपचार किया जा सकता है।

-3 से 5 दिनों तक प्रतिजैविक औषधियों की उचित मात्रा देना चाहिए ।

-आक्सीटेट्रासाइलिन -5-10 मिसा/कि.शरीर के भार भारानुसार

– डेक्सामेथासोन -05.2 मि.गा्र./कि.भारानुसार नस में

-साथ ही सम्बधित मांसपेशी मे भरा हुआ तरह पदार्थ या स्वरात हो चुका भाग को बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।

-रोगी पशु को आवश्यकतानुसार लक्षणात्मक और सहारात्मक उपचार भी करना चाहिए।

रोकथाम व बचाव  क्योकि यह एक संक्रामक रोग है। अतः रोगी पशु को अन्य स्वस्थ पशुओं से दूर रखना चाहिए। पशुशाला मे साफ-सफाई रखना चाहिए। स्वस्थ पशु को सक्रंमित भूमि और चारागाह से दूर रखना चाहिए। रोगी जनवार की मृत्यु होने पर शव को भली- भांति जमीन में गहरा गाड़ देना चाहिए। और उस पर चूने का छिडकाव कर देना चाहिए। इस रोग की रोकथाम के लिए वर्षा ऋतु शुरू होने के पूर्व स्वस्थ पशु को टीका प्रतिवर्ष लगाना चाहिए।

नकड़ारोग (नेजल ग्रेनुलोमा): जानकारी एवं बचाव

यह एक फ्लूक है। जो सिस्टोसोमा नामक परजीवी की प्रजाति से होता है, यह परजीवी पशु के नाक के अंदर पाया जाता है तथा होने वाली बीमारी को सिस्टोसोमोसिस या नकड़ा रोग कहते है। इसके कारण पशु कमजोर हो जाते है। कभी-कभी इसके काटने पर बहुत खून के स्त्राव के कारण पशु की मृत्यु भी हो जाती है।

कारकः सिस्टोसोमा प्रजाति

इसमें नर व मादा अलग-अलग होते है। इनका आकार लम्बाकार (धागे की तरह) होता है तथा यह पशुओ की नाक में श्लेष्मा झिल्ली के नीचे रक्त शिराओं में प्रायः रहतें है। यह रोग भेड़ बकरी सहित अन्य बडे जानवरो में भी पाया जाता है। सरकेरिया के मनुष्य की त्वचा मे प्रवेश करने पर खुजली के लक्षण प्रकट होते है।

सिस्टोसोमा का जीवन चक्रः  

सिस्टोसोमा के जीवन की एक अवस्था घोंघे में पूरी होती है सरकेरिया अवस्था इसी घोघे से बाहर निकलकर पानी में घूमते रहते है। पशुओ के चरने के दौरान ये परजीवी पशु की त्वचा के सम्पर्क में आकर उसमें अंदर घुस जाते है तथा रक्त वाहिका के द्वारा उसके नाक में पहुंच जाते है। इसमें नर व मादा अलग-अलग बनते है। मादा बड़ी संख्या में अण्डे देती है। यही अण्डे नाक के स्राव द्वारा या गोबर के साथ बाहर आ जाते है। तथा इन अण्डो से निकली हुई मिरासिडियम अवस्था पुनः उपयुक्त घोंघो की तलाश करके उसमे प्रवेश कर जाते है। घोंघो से सरकेरिया अवस्था बाहर निकलकर पशुओ के शरीर में पहुंच जाती है।

लक्षणः

  1. बार-बार छींक आना।
  2. मवाद का बाहर आना।
  3. ष्लेश्मा झिल्ली में सूजन हो जाना।
  4. छोटी-छोटी गांठे नाक में बन जाती है जिससे सांस लेने में रूकावट तथा घर्र-घर्र की आवाज सुनायी देती है।
  5. आवाज के कारण इसको स्नोरिंग डिजीज भी कहतें है।
  6. पशु बेचैन रहता है तथा कमजोर हो जाता है।

रोग की पहचानः 

गोबर की जांच करके, नाक के द्वारा बाहर आए हुए स्राव की जांच करके, लक्षणो के आधार पर।

उपचार

प्राजीक्वांटेल इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त कृमिनाशक है इसके अलावा टार्टारइमेटिक, एन्थियोमैलिन, सोडियम एन्टीमनी टारट्रेट आदि प्रकार के कृमिनाषक उपचार में कारगर है। परन्तु इनका उपयोग नजदीकी पशु चिकित्सक की सलाह पर ही करना चाहिए।

बचावः

  1. बीमार जानवर का इलाज करके।
  2. साफ एवं स्वच्छ पानी देकर।
  3. पानी के स्त्रोतो जैसे तालाब का तार से घेराव करके।
  4. रूके हुए पानी को बहा देना, हो सके तो बांध करके जानवरो को चारा दे।
  5. जो चारागाह इस परजीवी से दुशित हो उसमें जानवर को चराने से रोककर।
  6. घोंघो का नियत्रण।
  7. मोलस्कीसाइड का उपयोग करना जैसे कापरसल्फेट बेलुसाइड, फिस्कान आदि के द्वारा।
  8. बत्तख को पालकर एवं घोंघो की आबादी को भौतिक शक्ति द्वारा नष्ट करना।

मियासिस रोगः नियंत्रण एवं उपचार

मियासिस रोग दंश या स्ट्राइक नाम से भी जाना जाता है। मक्खियों की विभिन्न जातियों  जैसे कि ल्यूसीलिया, कैलीफोरा, फोरमिया, क्राइसोमिया एवं कैलीट्रोगा के लार्वाओं से यह रोग उत्पन्न होता है। ये मक्खियां सडन की गंध से आकार्षित होकर शवों, जख्मों या मल से सने हुए हिस्सों पर हल्के पीले रंग के अण्डों के गुच्छे जमा कर देती है।  इससे बकरी, भेंड, गाय, भैंस, सूअर और अश्व बहुदा प्रभावित होते है किन्तु कुत्ते और मनुष्य भी प्रभावित हो सकते है। जख्मी भागों पर आघात पहुँचने के कारण इस प्रकार के दंशों को जख्म आघात भी कहा जाता है। दुर्घटनाओं, बधिया करनें, श्रंग विहीन करने, किलनी काटने या अन्य कारणों से बने जख्म बहुधा देखे जाते है। इन जख्मों में मक्खियाँ अंडे देती है और साथ ही पशुओं की भग के आस पास जब तक रक्त मिश्रित श्राव निकलता रहता है या अल्पायु बछड़ों की नाभि पर भी अंडे देती है। ये दशाएं अधिकांशतः वर्षा ऋतु में उत्पन्न होती है। इन मक्खियों के मैगट ऊतकों को भेद देते है और गला देते है जिससे घाव अधिक फैल जाता है और उससे दुर्गन्ध आने लगती है और दुर्गन्धपूर्ण द्रव निकलता रहता है। इस बीमारी से ग्रस्त पशु चारा खाना छोड़ देता है जिससे कि उनकी उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बहुदा संक्रमण तीव्र होता है और संक्रमण से पशु की अक्सर मृत्यु हो जाती है जिससे पशुधन को अत्यधिक हानि होती है।

मक्खियों को आकर्षित करने के लिए और लार्वाओं को आवास प्रदान करने के लिए यदि घाव विद्धमान न हो तो जीवाणु क्रिया उपयुक्त दशाओं के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। देर तक चलने वाली आद्र दशाओं के कारण त्वचा नम बनी रहती है तथा बाल या ऊन आपस में गुंथ जाते है और जीवाणु वृद्धि के लिए उपयुक्त माध्यम बना देते है। ये सडन एवं गलाव उत्पन्न करते है जिससे मक्खियाँ आकर्षित होती है। धीरे – धीरे बड़े जख्म उत्पन्न हो जाते है तथा विशेष रूप से द्वितीयक मक्खियों के लार्वा ऊतकों में और त्वचा के नीचे गहरी सुरंग बना लेते है। प्रभावित पशु बहुधा सिर झुका कर खड़ा रहता है एवं चारा नही खाता और प्रभावित भाग को काटने का प्रयास करता रहता हैै।

मियासिस की कारक मक्खियों की पहचान- यह रोग उत्पन्न करने वाली ल्यूसीलिया मक्खियों का रंग चमकीला धातु के रंग का होता है इस लिए ये हरी बोतल या ताम्र बोतल मक्खियाँ कहलाती है । इनकी आँखें भूरी लाल होती है एवं शरीर अपेक्षाकृत पतला और लम्बा होता है । कैलीफोरा वंश की जातियाँ नीली बोतल मक्खियाँ कहलाती है क्यों कि इन के शरीर की आभा चमकीली नीली होती है। आँखों का रंग लाल होता है। यह मक्खी उड़ते समय जोर से भिनभिनाती है। फोरमिया वंश की जातियां काली ब्लो मक्खी कहलाती है। यह भेंड की ऊन में अपने अंडे देती है इसका वक्ष काला होता है तथा इसमें चमकीली नीली हरित आभा होती है। वंश कैलीट्रोगा और क्राइसोमिया की स्क्रू क्रमि मक्खियां भारत में मनुष्य और पालतू पशुओं की त्वचा पर अंडे देती है । क्राइसोमिया को भेंड की ब्लो मक्खी भी कहा जाता है । कैलीट्रोगा के वयस्क लम्बे होते है तथा इनका शरीर नीलाभ हरा होता है।

मक्खियों का जीवन वृत्त-

मक्खियां सडन की गंध से आकार्षित होकर शवों जख्मों या मल से सनी हुयी ऊन में हल्के पीले रंग के अण्डों के गुच्छे जमा कर देती है। मक्खी जब अंडे देने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज कर रही होती है तो उपलब्ध नम पदार्थ खा जाती है। एक मादा मक्खी कुल मिलकर 500 से 2500 अंडे देती है और एक बार में 50 से 150 तक अंडे देती है। डिम्बग्रन्थियों को पूर्ण परिपक्व होनें के पूर्व मक्खियों को प्रोटीन युक्त आहार ग्रहण करना होता है। लार्वा  तापमान के अनुसार 8घंटे से तीन दिन में निकल आते है और पोषण प्राप्त करने लगते है। ये तेजी से वृद्धि करते है और दो निर्मोकोत्सर्जन के पश्चात लगभग 2 से 19 दिन में पूर्ण विकसित मैगट बन जाते है। वृद्धि की दर आहार के परिमाण और उपयुक्त तापमान और अन्य लार्वाओं के साथ प्रतियोगिता पर निर्भर करती है। परिपक्व लार्वा लम्बे हरित श्वेत या हल्के पीले रंग के होते है। जिसके बाद ये भूमि में प्यूपा बनने के लिए चले जाते है। प्यूपा अवस्था तापमान पर निर्भर करती है और लगभग 7 सप्ताह बाद वयस्क अवस्था आ जाती है।

मक्खियाँ ऋतु के परिवर्तन के अनुसार एवं तापमान के अनुसार बढती है। ये बसंत के अंत में और ग्रीष्म के प्रारम्भ में बहुधा अधिक होती है। वयस्क मक्खी तरल प्रोटीन और कुछ प्रकार के पौधों के मधु रस से अपना भोजन लेती है। लारवा अपना भोजन जीवित भेंड से प्राप्त करते है अथवा विभिन्न पशुओं के उन शवों से प्राप्त करते है जहाँ वयस्क मक्खियों ने अंडे दिए थे। ये मक्खियाँ अग्रलिखित समूहों में वर्गीकृत की जा सकती है-

क)  प्राथमिक मक्खियाँ जो जीवित भेड़ पर अंडे देकर आघात का प्रारम्भ करती है।

ख) द्वितीयक मक्खियाँ जो प्रायः ऐसा नही करती किन्तु पहले से आघात प्राप्त भेंड पर अंडे देती है। इनके लार्वा प्राथमिक मक्खियों के लार्वाओं द्वारा उत्पन्न जख्म को और फैला देते है।

ग) तृतीयक मक्खियाँ जो सबसे अंत में आती है तथा जिनके लार्वा बहुत कम हानि पहुंचाते है। यह क्रम जीवित और मृत दोनों ही प्रकार की भेड़ों पर चलता है।

इस प्रकार प्राथमिक मक्खियों के लार्वा स्वतः विगलन और प्रारम्भिक जीवाणु विगलन के समय विकसित होते है। द्वितीयक मक्खियों के लार्वा द्रवण के अनुवर्ती सोपान में विकसित होते है जब कि तृतीयक मक्खियों के लार्वा उस समय विकसित होते है जब शव सूखने लगता है।

उपचार और बचाव- 

मियासिस रोग के उपचार में सर्वप्रथम जख्म को लाल दवा के पानी से अच्छी तरह से साफ करना चाहिए फिर जख्मों के लार्वाओं को हटा कर नष्ट करना चाहिए, और अधिक लार्वाओं द्वारा पुनर्सक्रमण से रोकना चाहिए, ऊन काटकर जख्म के विस्तार का पता लगाना चाहिए एवं हटाये हुए लार्वाओं को तुरंत नष्ट कर देना चाहिये ताकि इनसे वयस्क मक्खियाँ उत्पन्न न हो सके। इसके उपरान्त जख्म पर मलहम लगाकर पट्टी से बाँध देना चाहिए। पट्टी बांधते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि पट्टी मुलायम हो एवं भेंड के लिए विषाक्त न हो तथा जख्म भरने में सहायता करे। उपचार के लिए अनेक कीटनाशी प्रयुक्त किये जा सकते है। जिनमे अग्रलिखित सम्मिलित है जैसे कि 0.4 प्रतिशत डाईल्ड्रीन, 0.5 प्रतिशत बी.एच.सी, 0.3 प्रतिशत एल्ड्रीलन और अनेक ओर्गनोफोस्फोरस कीटनाशक प्रयुक्त किये जा सकते है।

भेंड को मक्खियों के लिए कम आकर्षित बना देना चाहिए जिससे कि मक्खियाँ कम आकर्षित हों जो निम्न प्रकार से किया सकता है- जैसे कि नितम्ब की सलवटों को शल्यचिकित्सा द्वारा हटा देना चाहिए । पूँछ को काट देना चाहिए। पूँछ के आस-पास और नितम्ब की ऊन काट देनी चाहिए। मक्खियों का डी. डी. टी. की सहायता से  सही ढंग से नियंत्रण किया जाना चाहिए। भेड़ों और बकरियों के शवों का भी सही ढंग से निस्तारण  किया जाना चाहिए। मक्खियों के मैगटों को नष्ट कर देना चाहिए।

उपर्युक्त दिए गए उपचार एवं बचाव को अपनाकर हम अपनी भेड़ों और बकरियों की सही ढंग से देखभाल कर सकते है एवं उनकी उत्पादन क्षमता को भी बढ़ा सकते है।

जानवरों में घाव की देखभाल एवं प्रबंधन

त्वचा, बलगम झिल्ली या ऊतक की सतह निरंतरता में टूट को घाव के रूप में परिभाषित किया गया है जोकि शारीरिक, रासायनिक या जैविक कारणों से हो सकता है। पालतू, साथी और उत्पादक पशुओं में घाव ज्यादातर समय एक कष्टप्रद बीमारी होती है। इसी तरह, पशुपालकों लिए भी घाव प्रवंधन दुविधापूर्ण होता है। इसके अलावा, अचानक कटने या किसी जानवर द्वारा काटे जाने पर  घाव से खून का बहना पशु मालिक के लिए घबराहट और निराशा का कारण बनता है, यह घाव पशुओं के चाटने, काटने अथवा खरोंच से और संक्रमित, जटिल हो जाते हैं। मक्खी और मैगट के घाव पर बैठने से इसका इलाज और चुनोतीपूर्ण हो जाता है। इसलीये अगर घाव के इलाज में कुछ दिन की देरी भी पशु के लिए घातक हो सकती है। वर्तमान लेख पशु मालिकों द्वारा घाव की प्राथमिक चिकित्सा, घाव के संभावित कारणों, रोकथाम, एवं प्रबंधन से अवगत कराने के उद्देश्य से लिखा गया है।

जानवरों में चोटें और घाव के संभावित कारण।

घरेलू पशुओं में घाव के सामान्य कारण मुख्यतः जानवरों का आपस में झगड़ना, सींग मारना, कांटेदार तार से कटने (घोड़ों ध्मवेशियों में), आंतरिक सतहों पर घर्षण और त्वचा की रगड़ के कारण, गलत तरीके से दूध दोहते समय थनों में चोट, आवारा कुत्तों द्वारा गाय, भेंसो, बकरियों और घोड़ों को काटना अथवा अन्य कई कारण होते हैं। साथ ही, सड़कों पर तेज चलते वाहनों द्वारा दुर्घटना एवं चोट एक मुख्य कारण है।

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जानवरों में घाव प्रबंधन में मुख्य भ्रांतियाँ

कुछ पशुपालकों गलतफहमी है कि घाव पर गोबर, मिट्टी या राख लगाने से घाव भर जाता है जबकि गोबर मिट्टी में लाखों जीवाणु होते है जो घाव को और खराब करते हैं। कुछ लोगों की यह गलतफहमी होती है कि फिनाइल और कीटनाशक डालने से घाव में कीड़े मर जाते हैं जबकि यह गलत है, इससे घाव और खराब होता है साथही विषेले पदार्थ और शरीर में पहुच जाते है। इससे बेहतर तारफिन तेल, मिट्टी का तेल या मेगेट मारने वाली दवाएं उपयोग करनी चाहिए। कुछ पशु मालिकों को लगता हैकि कुत्तों अथवा जानवरों के स्वयं अपने घाव चाटने से ठीक हो जाते है जबकि यह सिर्फ गलतफहमी ही है।

घाव की देखभाल एवं प्रबंधन

सामान्यतः साधरण घाव स्वतः प्राकृतिक तरह से 14 दिनों में ठीक हो जाते हैं। जबकि त्वचा के बड़े घाव भरने में अधिक समय लगता है। इसीलिए, घाव भरना शुरु होने के लिए सही देखवाल रखना बहुत जरूरी होता है। घाव रेशेदार संयोजी ऊतक और कणिकायन ऊतक के प्रसार से भरता है। सबसे पहली एवं महत्वपूर्ण बात घाव को संक्रमित होने से बचाना है। इस प्रक्रिया के दोरान शरीर उत्तेजकों को खत्म अथवा हटाने की कोशिश करता है और प्रभावित हिस्से को सामान्य स्तिथि में लाता है। कोई भी घाव जिसे 6 घंटे हो गए हो उसे संक्रमित घाव कहा जाता है।

घाव भरते समय उस जगह खुजली होती है जिससे जानवर उसे स्वयं विकृत कर लेता है। पालतु जानवरों मैं यह प्राय रूप से देखने को मिलता है। वह सिर्फ घाव को काटते हि नहीं बल्कि अपने पंजो से खरोंचते भी हैं। एलिजाबेथ कॉलर के उपयोग से इस समस्या से बचा जा सकता है। जबभी किसी पशु को चोट लगती है, सबसे पहले जरूरी हैकि खून का बहना रोकना चाहिए तत्पश्चात पशु चिकित्सक को दिखाया जाए। खून को साफ कपड़े या पट्टी से दवाकर अथवा कसकर बांधने से रोका जा सकता है। फिरभी अगर खून नहीं रुकता तो, बंधे हुए हिस्से पर बर्फ या टिंचर बेन्जोइन लगाने से लाभ होता है। अधिक खून बहने से शरीर में खून की कमी हो जाती है। जब पेट पर घाव की वजह से अंतड़ी बाहर आ जाए तो, उस बाहर निकले हुए हिस्से को साफ कपड़ेध्पट्टी से ढककर नार्मल सेलाइन से भिगोते रहने से बचा सकते है फिर पशुचिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।

घाव में मवाद का पड़ना बुरा लक्षण होता है। ऐसे मामलों में, घाव की जगह को एंटीसेप्टिक से अच्छी तरह धोकर मवाद बनाने वाली झिल्ली को नष्ट कर देना चाहिए। फोड़े की गुहा 10ः पोविडोन आयोडीन या अक्रिफ्लाविन (1ः2000) घोल से रगड़कर सफाई करने से और साथ में पशुचिकित्सक द्वारा दिए एंटीबायोटिक्स और दर्दनिवारक की सहायता से मवाद वाले संक्रमण को कम किया जा सकता है।

हल्दी अथवा एलो वेरा का पारंपरिक इस्तेमाल सदियों से घाव में किया जाता है। नए उपलभ्द सडन रोकने वाली दवाएं जेसेकि क्लोर्हेक्सिडीन, पोविडोन आयोडीन यहाँ तक कि कैलेंडुला (होम्योपैथिक दवा) घाव भरने मेंबहुत प्रभावी हैं। पोटैशियम पेरमेंगनेट (1ः1000) घोल को भी बड़े घावों को धोने के लिए उपयोग किया जाता है। मुख्य इरादा घाव को संक्रमण से बचाना होता है। घाव को साफ रखना थोडा मुश्किल होता है पर जब घाव को साफ रखा जाता है तो घाव प्रभावी तरीके से ठीक होता है। युकलिप्टुस और तारफिन का तेल बहुत अच्छा मगेटनाशक घटक होता है जोकि मगेट मारने में उपयोगी होता है। नीम और करंजा का तेल अति उत्कृष्ट मक्खी विकर्षक है जिसको घाव पर मक्खियों के बैठने को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। बाजार में बहुत विविध प्रकार के उत्पाद समेत हर्बल फुहारें और मल्लम भी उपलभ्द हैं जिनका उपयोग भी घाव और चोटों में लाभप्रद है।

कुत्ते काटे घावः इसका आमतौर पर सामना किया जाता है और जानवरों में यह सबसे अवांछित चोट होती है। जेसे ही किसी पालतु जानवर या मवेशी को कुत्ता काटता है जितनी शीघ्र हो सके घाव को सेव्लोन या साबुन से अच्छी तरह हाथों में दस्ताने पहनकर धोना चाहिए तत्पश्चात पशुचिकित्सक को सम्पर्क करना चाहिए। अपने पालतु पशु को सालाना वैक्सीन लगवानी चाहिए जिससे रेबीज बीमारी का बचाव होता है।

घाव के दोरान टिटनेस का खतराः भेड़, बकरी अथवा घोड़ों में टिटनेस का खतरा अधिक होता है। टिटनेस एक जूनोटिक बीमारी है। इस बीमारी के विषाणु मुख्यतः मिट्टी, गोबर में ही पाए जाते हैं। इसीलिए इन जानवरों को चोट, घाव अथवा ऑपरेशन होने पर पशुचिकित्सक परामर्श पर टिटनेस की वैक्सीन लगाना जरुरी होता है।

कमानिया रोग/सींग कैंसर

सींग कैंसर सींग के निचले हिस्से में एक गठान के रूप में उत्पन्न होता हैै। यह रोग मुख्यतः देशी नस्लों की गाय/बैलों में पाया जाता है क्योंकि देशी नस्लों की गायों में ही सींग पाए जाते हैं अथवा विदेशी नस्लों में सींग नहीं होते इसलिए यह रोग विदेशी गायध्बैलों में नहीं होताद्य सींग कैंसर सामान्यतः बड़े सींगों वाली नस्लें जेसेकि गिर, कांकरेज, मालवी प्रजाति में अधिक देखने को मिलता है।

मुख्य कारण   ः सींगो को रंगना अथवा अनुवांशिक कारण

रोग लक्षण     ः

  1. धीरे-धीरे सींग का हिलना एवं एक तरफ झुक जाना
  2. सींग के निचले हिस्से में सुजन अथवा सुराग होने पर मवाद और खून का रिसना
  3. जानवर का सिर को बार-बार हिलाना अथवा दर्द की वजह से एक ही तरफ झुकाए रखना
  4. मक्खियों के बैठने से घाव में कीडे पड़ना
  5. कभी कभी नाक से खून का आना
  6. सींग का स्वतः टूट कर गिर जाना

रोग जांच: उपरोक्त लक्षणों द्वारा अथवा पशुचिकित्सक जाँच द्वारा

रोग उपचार एवं परामर्श: इस रोग का मुख्य उपचार पशुचिकित्सक द्वारा शल्य चिकित्सा से  ही संभव है, शल्यक्रिया के माध्यम से खराब कैंसर युक्त सींग को पूर्ण रूप से नीकाल दिया जाता हैैै। शल्यचिकित्सा के उपरांत कुछ दिनों तक सही तरह से घाव का रखरखाव और उपचार करने पर इस समस्या से निजात मिल जाता है।

रोग बचाव:  किसान भाईयों द्वारा जानवरों के सींगों को नहीं रंगना, एवं उचित रूप से देखभाल करने पर इस रोग से बचा जा सकता है द्य इस तरह की कोई भी समस्या होने पर तुरंत पशुचिकित्सक से परमर्श करना चाहिए जिससे समय पर सही उपचार हो सके द्य कुछ संगठित पशु-फार्मो में शुरूआती दिनों में ही बछड़ो के सींगों को बढ़ने से पहले ही रासायनिक विधि द्वारा जला दिया जाता है जिससे आने वाले समय में इस रोग की आशंका भी कम रहती है अथवा पशु-प्रबन्धन भी आसान होता हैै।

 

गाय भैंस में गर्भपात या ब्रूसेलोसिस रोग

 

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गौवंशीय पशुओं में पथरी एक समस्या (यूरोलिथियेसिस)

आॅब्स्ट्रक्टिव यूरोलिथियासिस मूत्र मार्ग में कहीं भी पथरी के होने के बाद होता है। इस बीमारी के कारण पशुधन उद्योग को भारी आर्थिक नुकसान होता है । मूत्र मार्ग में पथरी का बनना एक गंभीर स्थिति होती है, जो आमतौर पर नर गौवंशीय पशुओं में, होती है। इस बीमारी के निदान हेतुु कई सर्जिकल तकनीकें एव ं उपचार उनके गुणांे और अवगुणों सहित साहित्यों मंे वर्णित हैं।

जुगाली करने वाले पशुओं में नर हो या मादा पथरी की समस्या सामान्य रूप से होती है लेकिन नर में यह समस्या अत्यधिक होती है। नर पशुओं के मूत्र मार्ग के अगले भाग में पथरी का होने की समस्या मुख्य रूप से छोटे जुगाली करने वाले पशुओ ं जैसे बकरो,ं भैड़ोे आदि में अधिक होती है।

बड़े जुगाली करने वाले पशुओं जैसे बैल, सांड पाड़ा आदि में पथरी अधिकतर पेशाब की थैली में सामान्यतः पाई जाती है लेकिन ये गुर्दो के पेल्विस, पेशाब की थैली ग्रीवा या फिर मूत्र मार्ग (यूरेथ्रा) में भी पथरी हो सकती है। कई बार पथरी यूरिनरी ब्लैडर से निकलकर सिग्मोइड प्लेक्सर (मूत्र मार्ग का एक मुडा हुआ भाग) में होती है।

भारत देश में कुल मिलाकर 5.04 प्रतिशत पशु हर साल इस समस्या से पीड़ित होते हैं। स्पीशीज के हिसाब से देखा जाए तो बकरो ं मंे 49.83 प्रतिशत, गौवंशीय पशुओं मंे 32.87 प्रतिशत कुत्तों मंे 14.53 प्रतिशत, घोड़ों मंे 1.38 प्रतिशत, भेड़ों में 1.04 प्रतिशत एवं बिल्लियों में 0.3 प्रतिशत इंसीडेंट है।

पथरी होने के मुख्य कारण

पशुओं में पथरी बनने की समस्या बड़ी जटिल है व इसके लिए केवल कोई एक कारक उत्तरदाई नहीं होता है, इसमें बहुत सारे कारक शामिल होते हैं जैसे कि फिजियोलॉजिकल, न्यूट्रीशनल मैनेजमेंट, खनिज लवणों का असंतुलन आदि। जिस आहार में कैल्शियम में फास्फोरस एवं मैग्नीशियम की मात्रा अधिक होती है या फिर कैल्शियम और फास्फोरस का इंबैलेंस होता है ऐसे पशुओं में फास्फोरस की की पथरी होने की संभावना अधिक होती है। अत्यधिक मात्रा में दाने खिलाना और फाइबर युक्त डाइट नहीं देना, पानी कम पीना, शरीर में पानी की कमी, मूत्र का क्षारीयता होना, पानी में खनिज लवण की अधिकता, सोडियम बाइकार्बोनेट की आहार में अधिकता, विटामिंस का असंतुलन या फिर विटामिन की कमी या फिर प्रोटीन की अधिकता यह सभी कारण कहीं ना कहीं पथरी के निर्माण में सहायक होते हैं। नर भैंस, बैल या सांड जैसे पशुआंे में सिगमॉड प्लेक्सर जो कि यूरेथ्रा का एक मुड़ा हुआ भाग होता है, में पथरी होने की या रुकने की संभावना सर्वाधिक होती है। इसके अलावा इसचियल आर्क में भी पथरी होने की संभावना अधिक होती है।

शरीर में पथरी के निर्माण की प्रक्रिया

शरीर में पथरी का बनना और उसका मत्रू मार्ग मंेे रुकावट पैदा करना एक जटिल प्रक्रिया है और इसमें विभिन्न चरण शामिल होते हैं। सर्वप्रथम नीडुस (छपकने) बनते हैं यूरिन सान्द्रित होता है और अंत में यह लवण के साथ प्रक्रिया करके जमने लगता है और पथरी का निर्माण होनेे लगता है।

नैदानिक लक्षण (क्लीनिकल लक्षण)

पशुओं के पेशाब रुकने के शुरुआती लक्षण इस बात पर निर्भर करते हैं यह रुकावट किस स्तर की है। भूख ना लगना, जुगाली बंद कर देना, पानी कम पीना आदि प्रमुख कारण है जो मूत्र मार्ग में पथरी बनने के संकेत देते हैं। जब पशु को पथरी की शुरुआत होती है व पूरी तरह से मूत्र मार्ग मंे रुकावट नहीं होती तब बदूं-बदूं पेशाब गिरता है। कई बार जब पूरी तरह पेशाब रुक जाता है तो पशु का पेट फूलने लगता है और गोबर चिकना होने लगता है, पेट दर्द होता है, वजन कम होने लगता है, जानवर दांत पीसने लगता है, पशु और कई बार गुदा भी बाहर की तरफ आने लगती है। इसके अलावा एनिमल अपनी कमर को या रीड की हड्डी को उठा लेता है, पैर को भी सिकुड़ता और फैलाता है, पूछ घूमाता है, पेट में लात मारने की कोशिश करता है, पेट दर्द होता है। मूत्र पूरी तरह रुक जाने पर रक्त भी आने लगता है।

रक्त एवं मूत्र की जांच

लंबे समय तक पथरी होने व शरीर में पानी की कमी होने पर हीमोकन्संनट्रेशन या रक्त का गाढ़ा हो जाना, डिहाइड्रेशन की वजह से इसमें पीसीबी, टीएलसी, टीईसी आदि मानक बढ़ जाते हैं। न्यूट्रेफिल काउंट भी बढ़ जाता है व ल्यूकोसाइटोसिस भी संभवतः तनाव के कारण होती है। इसके अलावा यूरिमिया, ब्लड यूरिया नाइट्रोजन यह भी बढ़ जाता है, क्रिएटनीन की मात्रा भी ब्लड मंे बढ़ जाती है। क्रिएटनीन की माता बढ़ जाना पशु के गुर्दों की कार्य करने की क्षमता का घट जाना दर्शाता है। सामान्य रूप से क्रिएटनीन 0.8 से लेकर 1.4 मिलीग्राम प्रति डेसी लीटर रक्त में होता है अगर इससे यह लेवल बढ़ जाता है तो यह गुर्दांे में शराबी कोे दर्शाता है।

जैसे-जैसे पशु कमजोर होता है उसके मांसपेिशयां भी कमजोर होती है जिससे शरीर में प्रोटीन टूटता है और इस वजह से रक्त जांच में अल्कलाइन फॉस्फेटस की मात्रा भी बड़ी हुई होती है।

पथरी का रासायनिक विश्लेषण

पथरी के निर्माण का भौतिक एवं केमिकल सिद्धांत समझने के लिए केमिकल कंपोजिशन के अध्ययन की आवश्यकता होती है। पथरी के गुणात्मक अध्ययन से उसके विभिन्न अवयवों का पता चलता है। इस विश्लेषण के लिए विभिन्न प्रकार की तकनीक का इस्तेमाल की जाती है जैसे कि ऑप्टिकल क्रिस्टलोग्राफी, डिफरेटं शिएशन इंफ्रारेड स्पक्ेट्रास्ेकॉपी, एक्स-रे स्पक्ेट्रास्ेकापेी एवं थर्मोग्राविमेट्री आदि।

पथरी के मात्रात्मक मात्रात्मक अध्ययन के लिए विभिन्न तकनीक इस्तेमाल की जाती है जिसमें कि

डायगनोस्टिक इमेज यूरालिथियेसिस -यह अध्ययन रेडियोलॉजी एवं अल्ट्रासोनोग्राफी से यूरिनरी ट्रैक्ट इनफेक्शन, ग्रानुलोमेटिस यूरेटराइटिस, प्रॉस्टेटिक डिसीज, न्योपलासिया आदि का पता चलता है।

यूरोरेडियोलोजी- इस अध्ययन से पथरी के विशेष गुणों का पता चलता है।

अल्ट्रासानोग्राफी -यह एक तकनीकी है जिससे यूरोलिायसिस की लोकेशन का पता चलता है, ब्लैडर की स्थिति क्या है वह पता लग जाती है। यह एक सुरक्षित तकनीकी है इसमें आयनाइजेशन का उपयागे नहीं होता है। पथरी का आकार प्रकार और संरचना और यूरिनरी ब्लैडर में उसकी लोकेशन सिस्टर सोनोग्राफी से पता की जा सकती है साथ ही मूत्र यूरिनरी ब्लैडर कि मोदी वालों की मोटाई और बेड के अंदर किसी प्रकार की कैंसर या फिर इलाज आदि को देखा जा सकता है।

उपचार

सही समय पर यूरोलिथियेसिस की पहचान होने पर उसका उपचार संभव है। कम प्रभावित मरीजों कोे ट्रेकंुलाइजर, एंटीस्पज्ेमाेिडक, इलेक्ट्रालेाइट आदि से ट्रीटमेटं किया जा सकता है। जब तक आवश्यकता ना हो डाइयूरेटिकस का उपयोग नहीं करना चाहिए। हाइपरकेलेमिया, हाइपानेेट्रिमिया होता है जिसकी वजह से मेटाबॉलिक डीअरेजं मंेट होता है। इसको सुधार करने के लिए इंट्रावेनस फ्लूड देने की आवश्यकता होती है ताकि शरीर में पानी की कमी ना रहे और एसिड बसे बैलंसे भी समुचित मात्रा मंे बना रह े हैं।

ऐसेे पशु जिनमंे ब्लड यूरिया नाइट्राजे न एवं क्रियेटिनिन की मात्रा बढ़ी हुई हो उन्हे ंपेरीटोनियल डायलिसिस की सहायता से ठीक किया जा सकता है। शल्य चिकित्सा मुख्यतः दो प्रकार की होती है पोस्ट स्क्रोटल एवं इश्चियल, वहां पर आॅपरेशन द्वारा निकाल दिया जाता है कई बार ऑपरेशन वहां से लीकेज होती है, और कई बार तो पेशाब की नली चिकित्सा वाली जगह पर लीक भी हो सकती है।

चिकित्सा का दूसरा तरीका, सिस्टोटॉमी है। सिस्टाटे ोमी मंे हम एक नली ब्लैडर मे ं फिक्स कर देत हैं जिससे कि पेशाब उसके द्वारा बाहर निकलता रहता है। इसके बाद केमिकल द्वारा उसका पथरी का उपचार करते हैं जिससे धीरे-धीरे पथरी घुलती रहती है और एनिमल स्वस्थ हो जाता है। इस प्रकार की शल्य चिकित्सा में कुछ परेशानियां भी होती है इसमें इन्फेक्शन, देर से घाव भरना, जलन होना, सूजन आ जाना आदि।

रोकथाम के उपाय

कुछ सामान्य से उपायों की सहायता से पथरी की संभावना को रोका जा सकता है जैसे कि इसमे ं प्रथम है कैल्शियम एवं फास्फोरस का अनुपात जो कि सामान्य रूप से 2ः1 होना चाहिए इसके लिए हम खुराक में 4 परसेटं नमक रख सकते हैं। साथ ही अधिक से अधिक मात्रा मंे पानी पिलाकर पथरी की संभावना को कम कर सकते हैं। पशुओं के आहार में कुछ परिवर्तन कर पथरीे बनने से रोका जा सकता है। रफेज टाइप की घास इसको खिला सकते हैं साथ ही अमोनियम क्लोराइड सप्लीमेटं मंे जोड़ा जा सकता है। केल्सियम एंड फास्फोरस की मात्रा कोे संतुलित किया जा सकता है। साफ पानी भी इस बीमारी का एक सरल उपचार है। समुचित मात्रा में पशु को पानी पिलाया जाए एवं साफ पानी हो जिसमे ं खनिज की मात्रा कम हो से भी इस बीमारी को रोका जा सकता है।

गर्मी के मौसम में दुधारू पशुओं का उचित प्रबंधन

गर्मियों के दौरान तापमान में बढ़ोत्तरी होने से दुधारू पशुओंमें तापीय तनाव देखा जाता है, जिसके फलस्वरूप पशुओं की आहार ग्रहण क्षमता घट जाती है। कम आहार ग्रहण करने पर पोषक तत्वों की कमी होने से दुधारू पशुओं के दुग्ध उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। गर्मियों के दिनों में पशुओं के आवास प्रबंधन के साथ-साथ आहार प्रबंधन पर ध्‍यान देने से न केवल उनके दुग्‍ध उत्‍पादन में होने वाली कमी को रोका जा सकता है वरन्प्रजनन क्षमता एवं स्वास्थ्य को भी बेहतर रखा जा सकता है।गर्मी के दौरान डेयरी पशुओं में तनाव कम करने के लिए निम्‍न प्रबंधन उपाय अपनाये जा सकते हैंः-

पशु आवास की लंबवत अक्ष पूर्व पश्चिम-दिशा मेंहोनेके साथ-साथ छत कीऊँचाई अधिक (12 से 15 फीट) रखनी चाहिए

*सूर्य की किरणों को सीधे आवास के अंदर आने से रोकने के लिए दीवार के ऊपर वाले छत के भाग को लगभग एक मीटर तक बाहर निकालने के साथ-साथ आवास के चारों ओर थोड़ी दूरी पर कतार के रूप में छायादार वृक्ष लगाने चाहिए।
*गर्मियों के दिनों में पशुओं को मुक्‍त या खुली आवास पद्धतिमें रखना चाहिए एवं इसके खुले स्थान में बड़े छायादार वृक्ष लगे होने चाहिए।
*पशु आवास के आसपास का भू-भाग हरा भरा रखने से परावर्तित होकर पशु आवास में प्रवेश करने वाले ऊष्‍मीय विकिरणों को कम किया जा सकता है।
*गर्म हवा व धूप को पशुओं तक पहुंचने से रोकने के लिए आवास की खिड़कियों पर जूट की बोरी के पर्दे लगा देना चाहिए। इन पर्दो पर दिन के समय पानी छिड़कने से आवास के अंदर की गर्मी को कम करने में मदद मिलती है।
*पशु आवास के अंदर पंखे, कूलर, फब्‍बारें, फोगर लगाये जाने चाहिए। तापमान के अधिक होने परफब्‍बारों के साथ साथ पंखे चलाने पर पशुओं को अधिक आराम मिलता है।
*पशुओं को दिन में दो से तीन बार ठंडे पानीसे या फिर तालाब में नहलानाचाहिए। लेकिन यदि दिन के समय तालाब के पानी का तापमान बढ़ जाता है, तो फिर यह उपाय ठीक नहीं है। इसके साथ ही तालाब का पानी गंदा नही होना चाहिए।
*टिन या एस्‍बेसटास शीट गर्मियों के दिनों में अत्यधिक गर्म हो जाती है। अतः इन छतों के ऊपर ज्‍वार या बाजरा या मक्‍का के सूखे तनों के गठ्ठे बनाकर रखे जा सकते हैं या फिर छत को घास-फूस या पुआल से भी ढका जा सकता है।
* टिन या एस्‍बेसटास शीट की छत के नीचे धान के पुआल का छप्पर या अन्‍य ऊष्‍मा के कुचालक पदार्थो की तह बनाई जानी चाहिए, जो छत के गर्म होने से नीचे पशुओं की आने वाले ऊष्‍मीय विकिरणों को रोकने में मदद करेगी।
*ग्रामीण क्षेत्रों में पौधों की बेलों को छत पर चढ़ा देने से पशु आवास को ठंडा रखने में मदद मिलती है।
*पानी व बिजली की उपलब्‍धता सुनिश्चित होने पर छत पर सिं्प्रकलर लगाकर भीषण गर्मी के दौरान टिन या एस्‍बेसटास शीट की छत को ठंडा रखा जा सकता है। यदि‍ छत को जूट की बोरी से ढक दिया जाए तो और भी बेहतर होगा।
*पशु आवास की छत पर सोलर सिस्‍टम लगाने से न केवल पशु आवास का तापमान कम करने में मदद मिलेगी बल्कि बिजली का खर्चा भी बचेगा। लेकिन सोल‍र सिस्‍टम की लागत अधिक होने से इसका उपयोग सीमित है।
*दुधारू पशुओं को उनकी आवश्‍यकतानुसार संतुलित राशन दिन में तीन से चार बार में खिलाना चाहिए। दिन के समय आहार कम ग्रहण करने की स्थिति में पशुओं को रात्रि के समय में आहार देना चाहिए।पशुओं को चराने के लिए दोपहर के बजाय सुबह-शाम ले जाना चाहिए।
*पशु आहार में क्षेत्र विशिष्‍ट खनिज लवण मिश्रण तथा नमक को अवश्‍य शामिल करना चाहिए। इसके साथ ही पशुओं को तनाव कम करने वाली औषधियां या फीड सप्‍लीमेंट भी दिये जा सकते हैं।
*पशुओं को पीने के लिए शीतल जल दिन भर उपलब्‍ध कराना चाहिए।
*पशुओं को रोजाना उच्‍च गुणवत्‍ता युक्त ताजा हरा चारा खिलाना चाहिए। हरा चारा उपलब्ध न होने पर साइलेज खिलाया जा सकता है।
*गेहू के भूसे या पुआल के स्‍थान पर दलहनी फसलों का सूखा चारा या हे खिलाना चाहिए। इसके लिए मार्च के महीने में बरसीम या ल्यूसर्न को सुखाकर संग्रहित किया जा सकता है।
*गर्मियों के दिनों में खासकर मई जून के महीनों में हरे चारे की उपलब्‍धता सुनिश्चित करने के लिए वर्षभर चारा उत्‍पादन की योजना बनाकर चारा उगाना चाहिए।

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दुधारु पशुओं में आहार प्रबंधन

गौ पषुओं का महत्व भारतीय अर्थव्यवस्था में सर्वविदित है। इनका खेती के संग लगातार पूरक व अनुपूरक का संबंध रहा है। प्रीाावी आहार प्रबंध पषुओं के उत्पादन स्तर व स्वास्थ्य को सर्वधिक प्रभावित करता है। पषुपालन पर होने वाले कुल खर्च का लगभग 75 प्रतिषत पषुओं की खिलाई पिलाई पर आता है। अतः यह आवष्यक है कि जहां तक सम्भव हो गौ पषुओं को पर्याप्त चारा व पोषक तत्व, ऊर्जा, प्रोटीन, खनिज तत्व विटामिन व जल लगातार मिलते रहें। हमारे देष में हरे चारे का उत्पादन दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और दाने वाली फसलों के अन्र्तगत क्षेत्रफलों के अन्र्तगत क्षेत्रफल बढ़ रहा है। इसके परिणामस्वरुप उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भूसा व पुआल जैसे सूखे चारे ही गौ- पषुओं के मुख्य आधारिक आहार है। यह चारे पषु चाय से नहीं खाते। इनके कम अन्र्तग्रहण, निम्न पाचकता, नाइट्रोजन एवं खनिजों जैसे कुछ महत्वपूर्ण तत्वों की कमी के कारण पषुओं को संतुलित मात्रा में पर्याप्त पोषक तत्व नही मिल पाते। इन सूखे चारों में प्रोटीन की मात्रा 3 से 4 प्रतिषत पायी जाती है, जबकी पषुओं के आहार में प्रोटीन की मात्रा कम से कम 6-7 प्रतिषत होनी चाहिए जो कि पषुओं के उत्पादन के अनुसार बढ़ती रहती है। पषु पोषण खाद्य पदार्थो की उपलब्धता व उनकी कीमत, पषु प्रजाति उनकी आयु भार उत्पादन स्थिति (जैसे गर्भावस्था, दूध उत्पादन अवस्था, वृद्धि अवस्था) आदि पर निर्भर करता है। ग्रामीण अंचल में उपलब्ध क्षेत्रीय आहार संसाधनों के वैज्ञानिक रीति से समुचित उपयोग द्वारा पषुओं का उत्पादन बढ़ाना है। इसके लिए यह आवष्यक है कि पषु पोषण से प्रचलित आहारीय प्रणालियों से जुड़ी समस्याओ को समझकर उनका उचित समाधान किया जाए।

संतुलित पषु आहार
वह आहार जिसमें जीवन निर्वाह, अपेक्षित उत्पादन व स्वास्थ्य हेतु सभी पोषक तत्व (प्रोटीन, ऊर्जा, खनिज लवण एवं विटामिन आदि) समुचित मात्रा में मौजूद हों, संतुलित पषु आहार कहलाता है। पषुपालकों को यह समझना अति आवष्यक है कि पषुओं को अपने जीवन निर्वाह, शारीरिक क्रियाओं को सुचारु रुप से चलाने अथवा दूध को बढ़ाने के लिए, सभी पोषक तत्वों जैसे प्रोटीन, ऊर्जा, खनिज लवण एवं विटामिन्स की समुचित मात्रा में आवष्यकता होती है। जो कि किसी एक चारे, भूसे या दाने से पूरी नही की जा सकती है और न ही सभी पोषक तत्व किसी एक दाने अथवा खल में समुचित मात्रा में मौजूद होते है। अतः आवष्यक है कि पषुपालक अपने पषु को उसकी आवष्यकतानुसार सूखे चारों और संतुलित रातिब को उचित अनुपात में मिलाकर खिलायें।

संतुलित व पौष्टिक आहार के लाभ

  • पषुओं को सभी पोषक तत्व आवष्यकतानुसार संतुलित मात्रा में उपलब्ध कराता है।
  • पषु की दुग्ध उत्पादन क्षमता को लगभग 25-30 प्रतिषत बढ़ाता है एवं लम्बे समय तक दूध देने की क्षमता बनाये रखता।
  • पषुओं को कुपोषण से बचाता है व पषु का गर्मी में न आना, बार-बार फिरना, गर्भ न ठहरना आदि समस्याओं से छुटकारा दिलाने में मदद करता है।
  • पषुओं के दो ब्यांतों के अन्तर को कम करता है।
  • पषुपालक को पषुपालन से होने वाली आमदनी को बढ़ाता है।
  • पषु को स्वस्थ, तन्दरुस्त एवं अधिक लाभदायी बनाता है तथा अपच, भूख में कमी कमजोरी आदि समस्याओं से भी राहत दिलाता है।


संतुलित संपूरक रातिब

एक संतुलित रातिब में दलिया, चोकर/पालिष व खल का उचित सम्मिश्रण होना आवष्यक है ताकि पषु उत्पादन हेतु पर्याप्त आवष्यक पोषक तत्व उन्हें मिल सकें। संतुलित रातिब में प्रोटीन की मात्रा लगभग 20 प्रतिषत होनी चाहिए। सामान्यतः पषुपालक प्रक्षेत्र पर उपलब्ध जो भी घटक होता है उसे ही अपने पषु को खिला देते हैं जैसे मात्र दलिया या चोकर अथवा खल रातिब मिश्रण की उपलब्धता पर निर्भर करती है। इस प्रकार पषुओं के आहार में प्रोटीन की 50 प्रतिषत कमी पायी जाती है। दुधारु पषुओं की उत्पादन क्षमता के अनुसार निम्न प्रकार के संतुलित रातिब बनाकर उचित मात्रा में खिलायें जा सकते है।

पशुओं में पशु पोषण सम्बंधित समस्याएं एवं समाधान

परिचय
पशु व्यवसाय में लाभ मुख्यतः तीन कारकों जैसे पशु की नस्ल, पशु प्रबंधन एवं पशु पोषण पर निर्भर करता है। पशुओं की विकास दर एवं उत्पादकता वृद्धि में पशु पोषण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उपयुक्त आहार यह सुनिश्चित करता है कि पशु अपना वांछित शारीरिक वजन पा ले, अधिक उत्पादन करे तथा स्वस्थ रहे। दुधारू पशुओं, मुर्गी पर होने वाले कुल खर्च में से 70 प्रतिशत भाग अकेले उसके आहार पर होता है, जिससे उसका महत्व और भी बढ़ जाता है। पशुपालकों के लिए आवश्यक है कि वह पशुओं के प्रतिदिन आहार की उचित व्यवस्था करें। इस प्रकार पशुओं के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है कि उन्हें प्रतिदिन उचित मात्रा में पोषक तत्वों से भरपूर संतुलित आहार मिलना चाहिए। पशुपालकों को जानकारी होनी चाहिए कि उन्हें किस मात्रा में कौन सा आहार मिलना चाहिए।
खुराक
पशुओं द्वारा भूख को शांत करने के लिए एक समय में जो भोजन खाया जाता है उसे खुराक कहते हैं।
आहार
वैज्ञानिक दृष्टि से दुधारू पशुओं के शरीर के भार के अनुसार उसकी आवश्यकताओं जसे जीवन निर्वाह, विकास तथा उत्पादन आदि के लिए भोजन के विभिन्न तत्व जैसे प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट्स, वसा, खनिज, विटामिन तथा पानी की आवश्यकता होती है। पशु को 24 घण्टों में खिलाया जाने वाला आहार दाना व चाराद्ध जिसमें उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतू भोज्य तत्व मौजूद हों, पशु आहार कहते है
पशु आहार के आवश्यक तत्व
पशु का शरीर 75ःए जल 20ः प्रोटीनए 5ः खनिज पदार्थों एवं 1ः से भी कम कार्बोहैड्रेट का बना होता है। शरीर की संरचना पर आयु व पोषण का बहुत प्रभाव होता है, बढ़ती उम्र के साथ जल की मात्रा में कमी परन्तु वसा में वृद्धि होती है।
-कार्बोहाईडेट
-प्रोटीन
-वसा
-खनिज लवण
-विटामिन
-पानी
-कार्बोहाईडेट

कार्बोहाइड्रेट मुख्यतरू शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं। इसकी मात्रा पशुओं के चारे में सबसे अधिक होती है । कार्बोहाइड्रेट दो तरह के होते हैं। इसमें शर्कराए मॉडए हेमीसेल्युलोज ज्यादा पाचनशील तथा सेल्युलोज और सेल्युलोज से जुड़ा हैमिसेल्युलोज कम पाचनशील होता है।यह हरा चाराए भूसाए कड़वी तथा सभी अनाजों से प्राप्त होते हैं।
प्रोटीन
प्रोटीन शरीर की संरचना का एक प्रमुख तत्व है। यह प्रत्येक कोशिका की दीवारों तथा आंतरिक संरचना का प्रमुख अवयव है। शरीर की वृद्धिए गर्भस्थ शिशु की वृद्धि तथा दूध उत्पादन के लिए प्रोटीन आवश्यक होती है। कोशिकाओं की टूट.फूट की मरम्मत के लिए भी प्रोटीन बहुत जरूरी होती है। पशु को प्रोटीन मुख्य रूप से खलीए दालों तथा फलीदार चारे जैसे बरसीमए रिजकाए लोबियाए ग्वार आदि से प्राप्त होती है।
वसा
पानी में न घुलने वाले चिकने पदार्थ जैसे घीए तेल इत्यादि वसा कहलाते हैं। कोशिकाओं की संरचना के लिए वसा एक आवश्यक तत्व है। यह त्वचा के नीचे या अन्य स्थानों पर जमा होकरए ऊर्जा के भंडार के रूप में काम आती है एवम् भोजन की कमी के दौरान उपयोग में आती है। पशु के आहार में लगभग 3.5 प्रतिशत वसा की आवश्यकता होती है जो उसे आसानी से चारे और दाने से प्राप्त हो जाती है। वसा के मुख्य स्रोत . बिनौलाए तिलहनए सोयाबीन व विभिन्न प्रकार की खलें हैं।

खनिज लवण
खनिज लवण मुख्यतरू हड्डियों तथा दांतों की रचना के मुख्य भाग हैं तथा दूध में भी काफी मात्रा में स्रावित होते हैं। ये शरीर के एन्जाइम और विटामिनों के निर्माण में काम आकर शरीर की कर्इ महत्वपूर्ण क्रियाओं को निष्पादित करते हैं। इनकी कमी से शरीर में कर्इ प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं। कैल्शियमए फॉस्फोरसए पोटैशियमए सोडियमए क्लोरीनए गंधकए मैग्निशियमए मैंगनीजए लोहाए तांबाए जस्ताए कोबाल्टए आयोडीनए सेलेनियम इत्यादि शरीर के लिए आवश्यक प्रमुख लवण हैं। दूध उत्पादन की अवस्था में भैंस को कैल्शियम तथा फास्फोरस की अधिक आवश्यकता होती है। प्रसूति काल में इसकी कमी से दुग्ध ज्वर हो जाता है तथा बाद की अवस्थाओं में दूध उत्पादन घट जाता है एवम् प्रजनन दर में भी कमी आती है। कैल्शियम की कमी के कारण गाभिन भैंसें फूल दिखाती हैं। क्योंकि चारे में उपस्थित खनिज लवण भैंस की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पातेए इसलिए खनिज लवणों को अलग से खिलाना आवश्यक है।

विटामिन
शरीर की सामान्य क्रियाशीलता के लिए पशु को विभिन्न विटामिनों की आवश्यकता होती है। ये विटामिन उसे आमतौर पर हरे चारे से पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाते हैं। विटामिन ष्बीष् तो जुगाली करने वाले पशुओं के पेट में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा पर्याप्त मात्रा में संश्लेषित होता है। अन्य विटामिन जैसे एए सीए डीए र्इ तथा केए पशुओं को चारे और दाने द्वारा मिल जाते हैं। विटामिन ए की कमी से भैंसो में गर्भपातए अंधापनए चमड़ी का सूखापनए भूख की कमीए गर्मी में न आना तथा गर्भ का न रूकना आदि समस्यायें हो जाती हैं।

पानी
पशु शरीर में लगभग 75ः पानी होता हैए एक सामान्य पशु के लिए 35.40 लीटर पानी की आवश्यकता होती है।
कार्य: दूध बनानाए पोषक तत्वों को एक जगह से दूसरी जगह ले जानाए रक्त निर्माणए शरीर का तापक्रमए पाचन शक्ति बढ़ाना।
स्रोत: हरा चारा एवं स्वच्छ पानी
अतः पशुओं को स्वास्थ्य रखें के लिए सम्पूर्ण तत्वों युक्त भोजन एक निशिचत अनुपात एवं मात्रा में खिलाएं। विभिन्न प्रकार के पशुओं के लिए अलग.अलग प्रकार का आहार देना चाहिए।
पशु आहार
पशु आहार का वर्गीकरण उनमें पाए जाने वाले तत्वों के आधार पर निम्न प्रकार से किया जाता है।
पशुधन को खिलाने में उपयोग किए जाने वाले विभिन्न फ़ीड्स और फ़ोडर्स को मोटे तौर पर निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता हैरू
कद्ध चारा
खद्ध दाना
गद्ध पूरक फ़ीड
घद्ध योजक फ़ीड
कद्ध चारा फ़ीड सामग्री जिसमें 18 प्रतिशत से अधिक कच्चे फाइबर और 60 प्रतिशत से कम कुल पाचन पोषक तत्व होते हैं। उच्च क्रूड फाइबर सामग्री के कारणए वे अधिक भारी होते हैं और दाने की तुलना में उनकी पाचन क्षमता कम होती है। 1द्ध रखरखाव के प्रकार . जिसमें 3.5 प्रतिशत डीसीपी है। ;डीसीपी . डाइजेस्टिबल क्रूड प्रोटीनद्ध। हरी मक्काए जई। 2द्ध गैर.रखरखाव प्रकार . जिसमें 3 प्रतिशत से कम डीसीपी उदा। पुआलए कडबी। 3द्ध उत्पादन प्रकार . जिसमें 5 प्रतिशत से अधिक डीसीपी है। बरसीमए लुर्सन। चारा को आगे दो प्रमुख समूहों में वर्गीकृत किया जाता है जैसेरू
1- हरा चारा ध् रसीला हरा चाराः इनमें लगभग 60.90 प्रतिशत नमी होती है। चरागाहए खेती किए गए फ़ोडए पेड़ के पत्तेए जड़ की फसलें और साइलेज।
2- सूखा चारा इनमें लगभग 10.15 प्रतिशत नमी होती है जैसे। भूसाए हे ;सूखी घासद्ध और कडबी।

खद्ध दाना
ये फीडस्टफ हैं जिनमें 18 प्रतिशत से कम कच्चा फाइबर और 60 प्रतिशत से अधिक टीडीएन है। वे कम भारी होते हैं और उनकी पाचनशक्ति अधिक होती है। वे पोषक तत्वों के अच्छे स्रोत हैं और इसलिएए उनके पास चारा की तुलना में अधिक पोषक मूल्य है। कॉन्सेंट्रेट को आगे वर्गीकृत किया गया हैरू
1- एनर्जी रिच कॉन्सेंट्रेट दृ उदाहरण. अनाजए अनाज उपोत्पादए जड़ें और कंद।
2- प्रोटीन रिच कॉन्सेंट्रेट . पद्ध पौधों से प्राप्तरू तिलहनी केकए दाल चूनीए ब्रेवर के अनाज और खमीर।
पपद्ध पशु स्रोतरू मछली का चूराए मांस का चूराए खून का चूरा।
गद्ध पूरक आहार फ़ीड की खुराक बेसल फ़ीड के पोषण मूल्य में सुधार करने के लिए उपयोग किए जाने वाले यौगिक हैं ताकि किसी भी कमी का ध्यान रखा जा सके। आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले फीड सप्लीमेंट्स
1- विटामिन सप्लीमेंट्स जैसे हैं। रोविमिक्सए विटबेलेंडए अरोविट आदि।
2- खनिज सप्लीमेंट्स उदा। मिनीमिक्सए मिल्क मिनए न्यूट्रीमिल्कए अरोमिन आदि।
घद्ध फीड योगज फीड एडिटिव्स गैर.पोषक पदार्थ हैं जिन्हें आमतौर बेसल फ़ीड में मिलाया जाता है ताकि पशुओं की फीड दक्षता और उत्पादक प्रदर्शन में सुधार हो सके। कुछ आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले फीड एडिटिव्स नीचे दिए गए हैंरू 1द्ध एंटीबायोटिक्स उदा। टेरामाइसिनए जिंक बैक्टिरसिनए फ्लेवोमाइसिन आदि 2द्ध एंजाइमों उदा। एमाइलेजए लाइपेजए प्रोटीजए पेप्सिन आदि 3- हॉर्मोन्स उदा। एस्ट्रोजेनए प्रोजेस्टेरोनए हेक्सोस्टेरोल आदि 4द्ध थायरोप्रोटिन उदा। आयोडीन युक्त कैसिइन। 5द्ध प्रोबायोटिक्स उदा। माइक्रोबियल प्रजातियां। लैक्टोबैसिलस। 6द्ध बायोस्टिमुलेटर्स उदा। जीवित अंगों जैसे कि तिल्लीए यकृतए अंडाशयए चिक भ्रूण आदि के अर्कद्ध 7 एंटीऑक्सिडेंट उदा। विटामिन ई ;टोकोफेरोल्सद्धए बीएचटी ;ब्यूटाइल हाइड्रॉक्सी टोल्यूनिद्ध। 8 मोल्ड अवरोधक उदा। प्रोपियोनिक एसिडए एसिटिक एसिड। 9द्ध पेलेट ईण्ग गुरए भोजनए गुड़ए सोडियम बेंटोनाइट बाँधता है।
आहारध्खाद्य पदार्थ
संतुलित पशु आहार
संतुलित आहार उस खाद्य मिश्रण को कहते हैं जो पशुओं के शरीर को बनाये रखने के लिए तथा उनकी उचित बढ़ोतरी व दूध उत्पादन के लिए कई तरह के खाद्य पदार्थों द्वारा बनाया जाता हैए जिसे 24 घंटों में एक पशु को खिलाया जाता है। इसमें सभी आवश्यक पोषक तत्त्व जैसे उर्जाए प्रोटीनए खनिजए विटामिन आदि उचित मात्रा और सही अनुपात में प्राप्त होते हैं। किसी भी एक खाद्य पदार्थ से सारे पोषक तत्त्व तो मिल जायेंगें परन्तु उसकी मात्रा और अनुपात शरीर की जरूरत के मुताबिक नहीं होगा। इसलिए पशुओं के संतुलित आहार में विभिन्न प्रकार के हरे चारेए कई प्रकार के अनाजए खलए इत्यादि उत्पाद को मिलाकर बनाया हुआ दाना मिश्रण तथा सूखे चारे के प्रयोग में लाये जाते हैं।
संतुलित पशु आहार कैसा होना चाहिए .
– संतुलित आहार रूचिकर होना चाहिए।
– पेट भरने की क्षमता रखता हो।
– सस्ताए गुणकारीए उत्पादक तथा बदबू और फफूद रहित होना चाहिए।
– वह अफारा ना करता होए दस्तावार भी न हो और उस आहार में हरे चारे का समावेश हो।
संतुलित पशु आहार न केवल पशु की जरूरतों को पूरा करता हैए बल्कि यह दुग्ध उत्पादन की लागत को भी कम करता है। दूध देने वाले पशुओं को पोषण कि जरूरत तीन कारकों के लिए होती हैरू
1- शरीर की यथा स्थिति को बनाये रखने के लिए
2- दुग्ध उत्पादन की आवश्यकता को पूरी करने के लिए
3- गर्भावस्था के लिए
अतः पशु का आहार इन तीन जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाना चाहिएए जिससे पशु स्वस्थ्य रहेए अधिक उत्पादन दे तथा अगली पीढ़ी के लिए स्वस्थ्य बच्चे को जन्म दे।
विभिन्न संस्थानों में किए गये अनुसंधानों के अनुसार पशुओं को संतुलित आहार खिलाने से पशु उत्पादन क्षमता में 30.35ः तक की वृद्धि होती है।
थम्ब नियम
1- गाय के 2ण्5 किलोग्राम दुग्ध उत्पादन पर 1 किग्राए दाना
2- भैसों के 2 किलोग्राम दुग्ध उत्पादन पर 1 किग्राए दाना।
संतुलित आहार कैसे बनाया जाता है
परिस्थितियों के अनुसार आप अपने पशुओं के लिए संतुलित आहार बनायें। जिन किसान भाईयो के पास हरा चारा उगाने के लिए जमीन और सिंचाई का साधन हो वे अपने पशुओं के लिए हरा चारा पूरे वर्ष उगायें। अच्छे गुण वाला हरा चारा पूरा वर्ष पशुओं को भर पेट खिलाया जाये तो दूध उत्पादन का खर्च बहुत कम हो जाता है तथा सभी आवश्यक पोषक तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाते हैं।
हरे चारे
जैसा कि आप जानते हैं चारे वाली फसलें दो तरह की होती हैं।
पद्ध एक दाल फलीदार वालीरू. जैसे कृ मक्काए मकचरीए ज्वारए बाजराए जई आदि। एक दाल वाली चारे में कृ उर्जा की मात्रा अधिक होती है।
पपद्ध दो दाल वाले चारेरू. जैसे कृ बरसीमए लुर्सनए लोबियाए ग्वार आदि। दो दाल वाले चारे में. प्रोटीनए विटामिन और खनिज की मात्रा अधिक होती है।
यदि इन दोनों चारों को मिलाकर पशुओं को खिलाया जाये तो सभी तरह के पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में मिल जायेंगे। इस तरह के मिश्रित चारा उगाने के लिए आप एक कतार दो दाल वाले चारे और दो कतार एक दाल वाले चारे की बुआई करें। ऐसा करने से प्रचुर मात्रा में प्रोटीन और उर्जा युक्त हरा चारा मिलेगा।
पूरे साल हरा चारा मिलता रहे इसके लिए क्या करेंघ्
इसके लिए आप गर्मियों में दो कतार बाजरा और एक कतार लोबिया की बुआई करें। उसके बाद बरसात के मौसम में दो कतार मक्का और एक कतार लोबिया की बुआई करें और सर्दियों में बरसीम के साथ सरसों की बुआई करें। इससे आप सर्दियों में 5 कटाई ले सकते हैं और इस तरह से पूरे साल आप को हरा चारा मिलता रहेगा।
जरूरत से ज्यादा चारा उपजे तो उसका क्या करेंघ्
नवम्बर.दिसम्बर आरै मई.जून के महीनों में चारे की कमी रहती हैं। जबकि अगस्त.सितम्बर आरै मार्च.अप्रलै में हरे चारे की उपज जरूरत से ज्यादा हो सकती हैं। जिनको कमी के महीनों के लिए सुखाकर हे बनाकर या साइलेजय आचार की तरह बना कर रख लें। हे बनाने के लिए बरसीमए लुर्सन या जई का चारा ले आरै साइलेज के लिए मक्काए ज्वारए जई आदि को इस्तेमाल करें।
पशुओं का आहार व दाना मिश्रण तैयार करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखते हैं
1ण् सबसे पहले पशु की अवस्था के आधार पर शुष्क पदार्थए प्रोटीन व कुल पाच्य तत्वों का निर्धारण करें।
2ण् उसके बाद शुष्क पदार्थ के आधार पर विभिन्न आहारिक पदार्थ जैसे दानाए हरा चाराए सुखा चाराए आदि की मात्रा निर्धारित करें।
3ण् जो मात्रा शुष्क पदार्थ के आधार पर आये उससे यह देखें कि प्रोटीनए कुल पाच्य पदार्थ कितने मिल रहे हैं।
4ण् आहारों में तत्वों की मात्रा व पशु की जुल आवश्कता देखकर निर्धारत करें।
5ण् अगर किसी तत्व की मात्रा कम हो तो उसकी पूरी करने के लिए सबसे सस्ते आहार का इस्तेमाल करे यदि किसी तत्व की मात्रा ज्यादा हो तो उसे सबसे महंगे आहार की मात्रा कम करें।
गाय एवं भैसों के पाचन तंत्र के सामान्य रूप से काम करने के लिए चारे की न्यूनतम मात्रा आवश्यक है। हमारे देश में चारे की अधिक मात्रा खिलानी चाहिए जिससे राबितए दाना मिश्रणद्ध की कम मात्रा खिलानी पड़े। उत्तम चारे जैसे बरसीमए लुर्सनए मक्का आदि भरपेट देने से दाना मिश्रण की मात्रा कम की जा सकती है। कल बरसीम या उसके साथ 1.2 किलो भूसा खिलाने से 8.10 लीटर दूध का उत्पादन प्रतिदिन ले सकते हैं।
दाना मिश्रण कैसे बनाते है
अच्छा पशु दाना सस्ते तथा साफ चीजों को मिलाकर बनाया जाता है। उदाहरण के लिए मूगफली या तीलध्बिनौला या सरसों या अलसी का खलए मोटे अनाजए चोकरए चुन्नीए भूसी तथा खनिज मिश्रण व सादा नमक लेकर दाना बना लें। दाना मिश्रण बनाते समय यह ध्यान रखें कि तैयार दाना मिश्रण में प्रोटीन 14.16ः तथा कुल पाच्य तत्व कम से कम 65.68ः हो अतः निम्न अनुपात में ही दाना मिश्रण बनाएं।

खनिज मिश्रण का महत्व
– बछड़ेध्बछियों की वृद्धि में सहायक है।
– पशु द्वारा खाए गए आहार को सुपाच्य बनाता है।
– दुधारू पशु के दूध उत्पादन में वृद्धि करता है।
– पशु प्रजनन शक्ति को ठीक करता है।
– पशुओं को ब्यानाए के आस दृ पास होने वाले रोगों जैसे दुग्धज्वरए किटोसिसए मूत्र में रक्त आता आदि का रोकथाम करता है।

SOURCE- नानाजी देशमुख पशुचिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय, जबलपुर (म.प्र.)

 

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