सब्जियों का उत्पादन की नवीनतम पद्धतियां
भारत एक प्रमुख सब्जी उत्पादक देश है। यहाँ सब्जियों की खेती पर्वतीय क्षेत्रों से लेकर समुद्र के तटवर्ती भागों तक सफलतापूर्वक की जाती है। हमारे देश की जलवायु में काफी भिन्नता होने के कारण देश के बढ़ती हुई जनसख्या को देखते हुए इसे और बढ़ाने की आवश्कता है। एक अनुमान वर्ष 2020 तक देश की आबादी 135 करोड़ के लगभग होगी जिसके लिए 15 करोड़ टन सब्जी की आवश्कता होती। हमारे देश में कुपोषण की समस्या से निपटा जा सकता है। सब्जियों के अधिक उत्पादन से जहाँ हम एक ओर अपने भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु अधिक सब्जी का प्रयोग कर सकेगें वहीं अतिरिक्त पैदावार को विदेशों में बेचकर पहले से कहीं अधिक विदेशी मुद्रा भी कम सकेगे।
सब्जी अनुसधान द्वारा उन्नतशील किस्मों व संकर के विकास के साथ-साथ फसल उत्पादन की उच्च तकनीकों का विकास भी किया गया है। कुछ सब्जियों की मौसमी खेती करने के लिए किस्में निकली गई हैं जो किसान को बहुत अधिक लाभ देती है। कीड़े तथा बीमारियाँ सब्जी फसलों को बहुत अधिक नुकसान करते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर कई सब्जियों में ऐसी किस्में निकाली गई है, जिनमें कीड़े व बीमारी नहीं लगती है। कुछ सब्जियां अभी तक कम जानी पहचानी रही है। ऐसी सब्जियों की उप्तादन तकनीक अपनी जलवायु व मिट्टी के अनुकूलन तैयार की गई है, जिससे आज इन नई की पैदावार बढ़ाने के लिए पौधे नियामकों का प्रयोग किये गये हैं तथा आज कई प्रकार के पौध नियामकों के सही प्रयोग की तकनीक किसानों के लिए उपलब्ध है सब्जियों की खेती नर्सरी अथवा पौधशाला में पौध तैयार करना एक विशेष तकनीकी काम है, जो किसान सफल पौध तैयार नहीं कर सकते हैं ऐसी सब्जियों की सफल खेती भीं नहीं कर सकते हैं। सब्जियों की पौध को साधारणतः तथा असाधारण मौसम दशाओं में सफलतापूर्वक उगाने के लिए अब वैज्ञानिक तकनीक उपलब्ध हैं जिन्हें अपनाकर सब्जियों की लाभदायक खेती की जा सकती है।
सब्जयों की अधिकतम लेने के लिए जैविक खाद, जीवाणु खाद, रासायनिक खादों तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों के प्रयोग की सही जानकारी होना आवश्यक है। विभिन्न प्रकार की खेती प्रणालियों जैसे-एकल खेती, मिश्रित खेती, अन्त्तः खेती, सहयोगी तथा रिले खेती आदि में सब्जियों के फसल चक्रों को सफलतापूर्वक सम्मिलित कर प्रति इकाई क्षेत्र से एक निश्चित समय में बहुत अधिक लाभ कमाया जा सकता है।
नई उन्नत किस्में
आज हमारे देश में अधिकतर सब्जियों की उन्नत किस्में, अगेती, मध्यम तथा पिछेती मौसमों के लिए उपलब्ध हैं:
सब्जियों की उन्नत किस्में
फसल | किस्में |
मध्यकालीन | गोल्डन एकर, प्राइड ऑफ़ इण्डिया, ग्रीन एक्सप्रेस आई.ए.एच.एस-3, आई.ए.एच.एस.5, आई.ए.एच.एस-6, बी.एस.एस.-50 श्री गणेश गोल, अर्ली ड्रम हेड |
पिछेती | पूसा ड्रम हेड, बी.एस.एस.-115 बी.एस.एस.-32, लेट ड्रम हेड, गंगा, कावेरी |
फूलगोभी | |
अगेती | अर्ली कुँवारी, पूसा दीपाली, पन्त शुभ्रा, पूसा अर्ली सिंथेटिक |
मध्यकालीन | पूसा कातकी, दिपलिका, जापानी विकसित, पूसा सिंथेटिक, पूसा शुभ्रा, पूसा हाईबिंड-2 |
पिछेती | पूसा स्नो बौल, पूसा स्नो बौल के-1 और लेट स्नो बौल |
बैंगन | |
लंबा | स्वर्ण प्रतिभा, पूसा पेर्प्रलक्लस्टर, पन्त सम्राट, आजाद क्रांति |
गोल | स्वर्ण मणि, स्वर्ण मणि श्यामली, कशी संदेश, पन्त ऋतुराज, पूसा क्रांति |
संकर किस्में | स्वर्ण शोभा, स्वर्ण शक्ति, स्वर्ण अजय |
मिर्च | के.ए.-२. इंडेम-6, भाग्यलक्ष्मी, के-२ कल्यानपुर लाल, अर्का लोहित, ए.आर.सी.एच-२२३६ |
टमाटर | |
साधारण किस्में | स्वर्ण लालिमा, स्वर्ण नवीन, अर्का आभा, काशी अमृत, काशी अनुपम |
संकर किस्में | स्वर्ण समृद्धि, स्वर्ण वैभव, स्वर्ण सम्पदा, काशी हाईब्रिड-1, काशी हाईब्रिड-२, |
लौकी | अर्का बहार, काशी कोमल, काशी गंगा, पूसा समर, प्रोलिफिक लॉग, पूसा मेघदूत, पूसा मजूरी, पूसा नवीन, इंडेम-204 खीरा |
खीरा | |
साधारण किस्में | स्वर्ण अगेती, स्वर्ण शीतल, स्वर्ण पूर्णा |
संकर किस्में | प्रिया, पूसा संयोग, इंडेम-9531 |
भिन्डी | परभनी क्रांति, अर्का अभय, वर्षा उन्नत, वर्षा उपहार, अर्का अनामिका, आई.आई.वी.आर.-10 |
मटर | अर्केल, स्वर्ण अमर, स्वर्ण मुक्ति, जवाहर मटर-1, बोनेविले, पन्त उपहार |
प्याज | अर्का कल्याण, अर्का निकेतन, पूसा रेड, अर्का प्रगति, एन-53, एग्रीफाउंड लाईट रेड, एग्रीफाउंड डार्क रेड, |
रोग एवं कीट प्रतिरोधी किस्मों का विकास
रोग एवं कीट प्रतिरोधी किस्मों का विकास से फसल सुरक्षा में प्रयोग किए जाने वाले रसायनों में काफी कमी की जा सकती है। इससे उत्पादन की लागत कम आती है साथ ही उपभोक्ता के स्वास्थ्य और परिस्थितिकी पर भी प्राकृतिक असर नहीं पड़ता है।
संकर किस्मों का विकास
संकर किस्मों का तात्पर्य प्रथम संतति समुदाय का व्यवसायिक स्तर पर अधिक उपज, कीट एवं एंव रोग के प्रति अवरोधिता, पहल का एक समान रंग, आकार, गुण तथा अच्छी भंडार क्षमता होती है। जापान, अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों में सब्जियों का अधिकतम क्षेत्र संकर किस्मों के अंतर्गत है जबकि हमारे देश में मात्र 10% क्षेत्र में संकर सब्जियों में 35% क्षेत्र टमाटर के अंतर्गत, 30% पत्तागोभी तथा 18% बैगन के अंतर्गत है। अन्य सब्जियों जैसे –भिन्डी, मिर्च, फूलगोभी, खरबूजा, तरबूजा तथा अन्य कद्दू वर्गीय सब्जियों के अंतर्गत 16% क्षेत्र है।
बे-मौसमी सब्जी प्रजातियाँ
कई सब्जियां में बे-मौसम की खेती के लिए नई व उन्नत किस्में का विकास किया गया है तथा इनकी खेती बहुत अधिक लाभप्रद है। इनमें मुख्य है, प्याज में एगीफोंड डार्क रेड, अर्का कल्याण, बसंत-78 एवं एन-53 खरीफ की खेती के लिए, टमाटर में ‘पूसा संकर-1’ गर्मी में देर से खेती के लिए त्तथा “पूसा शीतल” जाड़ों में उगाने के लिए, पत्तागोभी इमं “पूसा अगेती” गर्मी में पैदा करने के लिए, “पूसा चेतकी” गर्मी के लिए तथा “उस हिमानी” दिसंबर से फरवरी के महीनों में बुआई के लिए, शलगम की “पूसा श्वेती” किस्म को गर्मी तथा बरसात के मौसम में बोने के लिए, पालक में न ”पूसा भारती” की मुख्य जाड़े के मौसम के अलावा बसंत तथा गर्मी में उगाने की सिफारिश है। टमाटर की नई किस्म “पूसा सदाबहार” तथा मिर्च की किस्म “पूसा सदाबहार” को लगभग पूरे वर्ष खेती हेतु उपयुक्त पाया गया है।
कुछ नई महत्पूर्ण शीतकालीन विदेशी सब्जियां
अनुसन्धान से कुछ नई महत्पूर्ण शीतकालीन विदेशी सब्जियों को अपनी जलवायु तथा मिट्टी दशाओं में सफलतापूर्वक उगाने की तकनीक किसानों के लिए उपलब्ध हुई है। ऐसी सब्जियों में ब्रोकोली, ब्रसुल स्पुराऊट, चायनीज कौबेज, लीक पार्सले, सेलरी, लौटुस, चैरी टमाटर, रेड कैबेज, एसपैरागस, स्नो-पी आदि प्रमुख हैं। मुख्य तौर पर इनकी खेती जाड़ों के मौसम में की जाती है। इन सब्जियां की अभी तक मांग बड़े शहरों के सितारा होटलों में तथा पर्यटक स्थलों पर अधिक है। इन सब्जियों की खेती करने से पहले इनकी बाजार मांग को जान लेना आवश्यक है तथा इन्हें निर्यात भी किया जा सकता है। ये सब्जियां भी आमदनी का अच्छा साधन है।
पोषक तत्वों का संतुलित प्रयोग
सब्जियों की खेती अन्य फसलों की तुलना में प्रति इकाई क्षेत्र से कई गुणा अधिक उपज देती है। इनकी अच्छी उपज लेने के लिए आवश्यक है कि संतुलित पोषक तत्वों का उपयोग किया जाय। पौधों की वृद्धि और समुचित विकास के लिए 16 पोषक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन पौधे पानी तथा वायुमंडल से प्राप्त करते हैं जबकि शेष 13 तत्व भूमि से लेते हैं। इन पोषक तत्वों में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश को हम विभिन्न उर्वरकों के रूप में देते हैं। इसके अतिरिक्त सूक्षम पोषक तत्वों जैसे बोरोन, जिंक मालिब्डेनम, आयरन, मैग्नीज, कापर, सल्फर, कैल्शियम, मौग्निशियम तथा क्लोरीन का सब्जियों में प्रयोग नहीं किया जाता है। सब्जियों में मुख्य रूप से बोरोन, जिंक मालिब्डेनम तथा आयरन की अधिक आवश्कता पड़ती है। टमाटर, ब्रोकली तथा फूलगोभी आयरन की कमी के लिए काफी संवेदनशील है। अधिक पी-एच मान वाली भूमि में लोहा की उपलब्ध ता कम हो जाती है।
जैव उर्वरकों का उपयोग
सब्जियों की खेती में जैव उर्वरकों का उपयोग काफी प्रभावी पाया गया है। जैव उर्वरकों में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीव वातावरण से नाइट्रोजन लेकर पौधों को पहुंचाते हैं। सूक्ष्म जीव मृदा के अंदर स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत करते हैं और पौधों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नाइट्रोजन देते हैं। प्याज में एजोस्पिरलम बैसिलिएंस तथा वैस्कुलर आरबस्कुलर माइकोराइजा वी.ए,.एम. का नर्सरी तथा रोपण के मस्य प्रयोग करने से 229 किवंटल प्रति हेक्टेयर अतिरिक्त उपज प्राप्त की गई तथा नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की संस्तुत मात्रा में 25% की बचत भी हुई। इन जैव उर्वरकों के प्रयोग से वानस्पतिक वृद्धि के साथ-साथ अधिक उपज मिलती है। इसके अतिरिक्त इनके प्रयोग से विभिन्न पोषक तत्वों जैसे- नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैंग्निशियम, जिंक. कापर तथा मैग्नीज की उपलब्ध बढ़ जाती है।
सब्जियों में खरपतवार नियन्त्रण बहुत महत्वपूर्ण है। खरपतवार जहाँ एक तरफ सब्जियों के पौधों से पोषक तत्वों, नमी हवा, प्रकाश आदि के लिए संघर्ष करते हैं वहीं दूसरी तरफ कीट और रोग व्याधियों को फैलाने वाले सूक्ष्म जीवों की आर्कषित करते हैं।
सब्जियों की खेती में जल प्रबंध
सब्जियों की अधिक उपज, गुण तथा स्वाद को बनाये रखने के लिए समुचित जल प्रबंध बहुत आवश्यक है। अभी हाल के वर्षों में कुछ सब्जियों में सिंचाई की ड्रिप विधि अच्छी साबित हुई है। इस विधि से सिंचाई करने से 50-60% तक जल की बढ़त होती है और सब्जियों की उपज में भी काफी वृद्धि होती क्योंकि पौधों को पानी बराबर नियंत्रित मात्रा में मिलता रहता है। नियंत्रित मात्रा में पानी मिलने से खरपतवार भी कम उगते हैं तथा ऐसी संकर किस्में जो अधिक नमी के प्रति काफी संवेदनशील है, उनके लिए काफी लाभप्रद होता है। ड्रिप अवधि के जरिये पौधों के लिए आवश्यक घुलनशील तत्वों की आपूर्ति करना सुविधाजनक होता है क्योंकि इसमें पोषक तत्व सीधे पौधे की जड़ों की मिल जाते हैं।
सब्जी उत्पादन में वृद्धि नियामकों का उपयोग
सब्जी उत्पादन में वृद्धि नियामकों का प्रयोग का प्रचलन काफी बढ़ रहा है। आकिज्न जैसे आई.ए.ए.आई.बी.ए. २-4 डी तथा जिब्रेलीन द्वारा टमाटर, बैगन, मिर्च तथा मूली के बीजों का उपचार करने से अनुकरण तथा पौधों की बढ़वार और उपज में काफी वृद्धि होती है। आकिज्न , जिब्रेलिन, एथेलिन के प्रयोग से कद्दू वर्गीय सब्जियों में लिंग परिवर्तन द्वारा उपज में बहुत अधिक वृद्धि की जा सकती है। इसी प्रकार खीरे की फसल में 1000 पी.पी. एम. सान्द्र के जिब्रेलिक अम्ल के दो बार, प्रथम दो सत्य पत्ती अवस्था पर तथा दूसरी चार सत्य पत्ती अवस्था पर छिडकने से जायंगीय वंशक्रमों को बनाये रखा जा सकता है। एथरेल का 50-100 पी.पी. एम. घोल खीरे, खरबूजे, लौकी में मादा फूलों की संख्या बढ़ा देता है जिसके फलस्वरूप अधिक फल लगते हैं। टमाटर में जब अधिक तथा कम तापक्रम पर फल लगने की समस्या आती है उस दशा में पी.सी.पी.ए. का 50-100 पी.पी. एम. के दो छिड़काव पहला रोपाई के एक सप्ताह बाद तथा दूसरा रोपाई के चार सप्ताह बाद करने से टमाटर के लीफ कर्ल वायरस रोग का प्रभावी नियंत्रित किया जा सकता है।
सब्जियों की कार्बनिक खेती
सब्जीयों पर बहुत से कीट और बीमारियों का प्रकोप होता है जिनके नियंत्रण के लिए बहुत से कीटनाशी रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन कीटनाशी रसायनों का पूर्णरूप से विखंडन न होने पर वे अवशेष के रूप में मानव शरीर में पहुंच जाते हैं जिससे कैंसर आदि भयावह रोगों के उत्पन्न होने का खतरा रहता है। इसी वजह से आजकल कार्बनिक विधि से उगाई गयी सब्जियों को उगाने से लेकर तुड़ाई उपरान्त तक हानिकारक रसायनों के प्रयोग से दूर रखा जाता है। अमेरिका में राष्ट्रीय कार्बिनक मानक बोर्ड जैसी संस्था है जो कि सब्जियों को उगाने तथा उसमें रोग तथा कीट प्रंबधन पर बल देती है। ब्रिटेन में कार्बनिक ढंग से उगाई गई सब्जियों को पूर्ण रूप से वैज्ञानिक मान्यता मिली है और उन पर कार्बनिक का लेबल लगा होता है। वहाँ ब्रिटिश आर्गेनिक फारमर्स तथा आर्गेनिक ग्रोवर एसोसिएशन है जिससे उपभोक्ता को कार्बनिक ढंग से उगाई गई सब्जियों की आपूर्ति की जाती है। हमारे देश में कार्बनिक विधि से उगाई गई सब्जियों की दिल्ली, मुंबई, चेन्नई तथा कोलकत्ता जैसे महानगरों में काफी मांग है।
सब्जी उत्पादन में समन्वित कीट प्रंबधन
सब्जियों की टिकाऊ खेती की प्रणाली को अपनाने एक लिए यह अंत्यंत आवश्यक है कि सब्जियों में कीट नियन्त्रण के लिए समन्वित कीट प्रंबधन को अपनाया जाए। अन्य फसलों से भिन्न, सब्जियों की बहुत कम अंतराल पर बार-बार तुड़ाई करने की आवश्कता होती है जिससे उनमें हानिकारक कीटनाशी दवाओं के अवशेष बने रहते हैं। समन्वित कीट प्रबंधन को अपनाते समय यह ध्यान देना आवश्यक है कि उनका दृष्टिकोण पर्यावरण मित्रता निभाने के साथ लागत की ओर हो।
- फसल विशेष के कीटों के बारे में सही जानकारी प्राप्त करना एवं उनकी पहचान करना।
- फेरोमोन प्रपंच एवं सर्वेक्षण द्वारा कीटों की संख्या पर परिवीक्षण/निगरानी करना। इसके लिए 3-5 दिनों के अंतर पर खेत में एक बार कीटों का सर्वेक्षण करना।
- कीट का अत्याधिक व आर्थिक नुकसान करने के समय की जानकारी रखना।
- खेत की गर्मियों में गहरी जुताई करके खुला छोड़ना।
- खेत को खरपतवार मुक्त रखना
- कीटग्रस्त भागों की छटाई तथा क्षति ग्रस्त पौधों को निकालना तथा नष्ट करना।
- उचित फसल चक्र अपनाना ।
- कीट प्रतिरोधी जातियों को प्राथमिकता के आधार पर उगाना ।
- स्वस्थ बीज, उचित दुरी, समय पर बुआई एवं उचित समय सिंचाई करना था अन्य सस्य क्रियाओं का समय-समय पर ध्यान देना।
- उर्वरकों का संस्तुत मात्रा और कार्बनिक खादों का प्रयोग करना।
- कीटों को आर्कषित करने वाली फसल को मुख्य फसल के पास लगाना एवं उचित समय पर आर्कषित करने वाली फसल को काट लेना ।
- हानिकारक कीटों के प्राकृतिक शत्रु कीटों (परजीवी/परभक्षी) का संरक्षण एवं प्रयोग का र्जैविक नियन्त्रण को बढ़ावा देना।
- सेक्स फेरोमोंस तथा चिपकने वाले ट्रेप लगाकर विभिन्न फसलों के नर पतंगों को पकड़ना और एकत्रित करके नष्ट करना।
- वानस्पतिक कीटनाशकों जैसे- निम्बीसिडीन, निर्माक, निमारिन तथा अचूक इत्यादि के प्रयोग को बढ़ावा देना।
- आई.पी.एम. आर्थिक नुकसान होने की आंशका में मान्यता प्राप्त अवशिष्ट कीटनाशकों का विवेकपूर्ण प्रयोग किया जाना ।
नियंत्रित दशा में सब्जी उत्पादन
नियंत्रित वातावरण में सब्जी उत्पादन से अभिप्राय है सब्जियों को तापमान, धूप तथा वर्षा और अन्य विषम अवस्थाओं से बचाना। हमारे देश की शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में पालीहाउस को नियंत्रित करने के लिए उपकरण लगा लिए जाये तो अत्यधिक ऊँचे तापमान वाले क्षेत्रों में भी प्रतिकूल मौसम की सब्जियां उगाई जा सकती है। नियंत्रित अवस्था में उगाई जाने वाली सब्जियों की गुणवत्ता अधिक होने से उनकी निर्यात में काफी अच्छी संभावनाएं रहती है साथ ही नियंत्रित दशा में सब्जियों की प्रति इकाई क्षेत्र में सामान्य उत्पादन की तुलना की कई गुना अधिक उपज मिलती है। इसी कारण सब्जियों की कार्बनिक खेती पालीहाउस में आसानी से अपने जा सकती है।
हमारे देश में पालीहाउस में सब्जी उत्पादन संबधी अनुसन्धान की दिशा में रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन (डी.आर.डी.ओ.) ने सराहनीय कार्य किया है। इस संस्थान ने सोलर ग्रीनहाउस पर अनुसधान का कार्य करके लेह, लद्दाख के प्रत्येक घर में सोलर ग्रीन हाउस के अंदर सब्जी उत्पादन के कार्य को संभव बनाया है। भारत में मात्र 100 हेक्टेयर क्षेत्र में ग्रीनहाउस के अंतर्गत खेती की जा रही है जबकि जापान में 54,000 हेक्टेयर, चीन में 48,000 हेक्टर, स्पेन में 25,000 हेक्टर, दक्षिण कोरिया में 21,000 हेक्टेयर, इटली में 18,500 हेक्टर, तुर्की में 10,000 हेक्टर, यूएसए में 4,000 हेक्टर, इजराइल में, 1,500 हेक्टर तथा कनाडा में 400 हेक्टर क्षेत्र में ग्रीन हाउस बनाकर सब्जियों की खेती की जा रही है।
सब्जियों पर आधारित सस्य प्रणाली
अधिकाशं सब्जियां कम अवधि वाली होती है, अतः इन्हें विभिन्न फसल चक्रों में आसानी से समाहित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त छोटे और मझोले किसान सब्जियों को पूरे वर्ष खेती करके अच्छा लाभ काम सकते हैं। सब्जियों का फसल चक्र में समायोजन करने से सस्य गहनता 300-400% तक प्राप्त की जा सकती है। उत्तर भारत में आसानी से मूली, शलजम, चुकदंर, फूलगोभी, पत्तागोभी की रबी में दो फसलों ली जा सकती है, इसके अतिरिक्त लंबी अवधि वाली अन्य फसलों के रूप में उगाया जा सकता है। टमाटर, फूलगोभी तथा पत्तागोभी में पालक, प्याज तथा मूली का अंतः सस्य फसल के रूप में प्रयोग काफी लाभप्रद साबित हुआ है। विभिन्न अनुसन्धान केन्द्रों पर पाए गये सब्जियों पर आधारित कुछ प्रभावी फसल चक्रों का वर्णन दिया गया है।
सब्जियों पर आधारित कुछ प्रभावी फसल चक्रों
- खरीफ प्याज-आलू-लिबिया
- भिन्डी-टमाटर-करेला
- आलू-टमाटर-भिन्डी
- लोबिया-फूलगोभी-भिन्डी
- लोबिया-फूलगोभी-प्याज
- भिन्डी-टमाटर-चौलाई
- भिन्डी-मूली-फूलगोभी-स्क्वेश-लोबिया
- भिन्डी-पालक-आलू-खरबूज
- बैगन-मटर-करेला
- मक्का-आलू-कद्दू
- मक्का-टमाटर-तरबूज
अतिरिक्त आय का साधन बेबी कार्न
भारत के किसानों की मुख्य समस्या अपनी उपज का उचित मूल्य न मिलना है। वास्तव में कटाई के बाद अधिक मात्रा में फसलों के उत्पाद बाजार में जाने से उनको अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिला पाता है। इन समस्याओं से निपटने क लिए आवश्यक है कि किसानों को अपनी परम्परागत फसलों से हटकर कुछ ऐसी फसलों को उगाना होगा, जिनकी देश और विदेश में काफी मांग हो।
बेबी कार्न एक ऐसी ही फसल है जिसकी देश के महानगरों के पांच सितारा होटलों और पश्चिमी देशों के यूरोप एवं अमेरिका में भी पर्याप्त मांग है। अब देश के छोटे-छोटे शहरों में भी इसकी लोकप्रियता काफी बढ़ हरी है। इसका उपयोग सूप, सलाद, वेजिटेबल बिरयानी, मिक्स वेजिटेबल तथा चाइनीज भोज्य पदार्थों में अधिक किया जाता है। इससे भोजन की गुणवत्ता में भी बढ़ोतरी होती है।
बेबी कार्न मूलतः भुट्टा ही होता है जो अपूर्ण, अपरिक्क्व एवं अविकसित अवस्था का होता है। इसी शिशु भुट्टे को बेबीकार्न कहा जाता है। इस भूट्टे का दाना, बीज बनने से पूर्व ही उपयोग में लाया जाता है। इसे तैयार करने के लिए कृषि वैज्ञानिक ने एक विशेष तकनीक अपनाई है जिसमें इसमें बीज या दाने नहीं बन पाते हैं। इसके लिए परागण क्रिया से पहले ही नर फूलों को नष्टकर केवल मादा फूलों को ही रहने दिया जाता है। जिससे भुट्टे में दानों का विकास ठीक ढंग से नहीं होता और इसी डेन रहित भुट्टे को बेबी कार्न कहते है। इसके भीतरी भाग को काटकर सिरका आदि में डुबोकर परिरक्षित कर लिया जाता है। आवश्कता पड़ने पर इसका उपयोग खाने के लिए करते हैं।
आज जब कुपोषण की समस्या विकराल होती जा रही है और प्रदूषण हमारे खाद्य पदार्थों एवं शाक –सब्जियों में बढ़ता जा रहा है। ऐसे में शाक-सब्जियों में कीटनाशी दवाओं के अंधाधुंध प्रयोग से ये हमारे शरीर में प्रवेश कर रहे हैं तब बेबी कार्न की महत्ता और भी बढ़ जाती है। यह सभी प्रकार के कीटनाशी विष के प्रभाव से पूर्ण सुरक्षित है। ये उपयोगी फसल भुट्टे की हरी-हरी पत्तियों से ढकी होने के कारण विषाक्त कीटनाशी समस्याओं एक प्रभाव से सर्वथा मुक्त होती है।
अनेक लोग अच्छी गुणवत्ता वाले भोज्य पदार्थों के मोहताज हैं। कमजोर शरीर, देर से मानसिक विकास व अंधापन आदि अनेक रोग कुपोषण के परिणाम के फलस्वरूप होते हैं। जिससे इसकी महत्ता और बढ़ जाती है। इसमें कैलोरी व कोलेस्ट्रोल कम तथा रेशा ज्यादा होता है। वैज्ञानिकों का मत है कि बेबी कार्न से प्राप्त तत्वों से मनुष्य के शरीर एवं दिमाग का संतुलित विकास होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से इसका सेवन अति उत्तम है। पौष्टिकता में भी यह अन्य सब्जियों फूलगोभी, पत्तागोभी, टमाटर, खीरा, बैगन से कम नहीं है।
कार्न के पोषक मूल्य की अन्य सब्जियों के साथ तुलना प्रति (100 ग्राम)
पोषक तत्व | बेबी कार्न | फूलगोभी, | पत्तागोभी, | टमाटर | बैगन | खीरा |
आद्रता (प्रतिशत) | 89.10 | 90.30 | 92.10 | 94.10 | 92.50 | 96.40 |
वसा (ग्रा.) | 0.20 | 0.04 | 0.20 | 0.20 | 0.20 | 0.20 |
प्रोटीन (ग्रा.) | 1.90 | 2.40 | 1.70 | 1.00 | 1.00 | 0.60 |
कार्बोहाइड्रेट(मि. ग्रा.) | 8.20 | 6.10 | 5.30 | 4.10 | 5.07 | 2.40 |
कैल्शियम(मि. ग्रा.) | 28.00 | 34.00 | 64.0 | 18.00 | 30.00 | 19.00 |
फास्फोरस (मि. ग्रा.) | 86.00 | 50.00 | 26.00 | 18.00 | 27.00 | 12.00 |
लौह तत्व (मि. ग्रा.) | 0.10 | 1.00 | 0.70 | 9.80 | 0.60 | 0.10 |
विटामिन (आई.यू.) | 64.00 | 95.00 | 75.00 | 735.00 | 130.0 | 0.00 |
थायमिन (मि. ग्रा.) | 0.05 | 0.06 | 0.05 | 0.06 | 0.10 | 0.02 |
रिबोप्लेविन(मि. ग्रा.) | 0.08 | 0.08 | 0.05 | 0.04 | 0.05 | 0.02 |
एस्कर्बिंक एसिड (मि. ग्रा.) | 11.00 | 10.0 | 62.00 | 29.00 | 5.00 | 10.00 |
नियासिन (मि. ग्रा.) | 0.03 | 0.70 | 0.03 | 0.60 | 0.60 | 0.10 |
वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित शोध रिपोर्ट के अनुसार यह पोषक तत्वों जैसे कैल्शियम, लोहा व विटामिनों (विटामिन’ए’ ‘बी’ व ‘सी’) आदि सेपरिपूर्ण है। अधिकाँश सब्जियों में फास्फोरस की मात्रा 21-27 मिग्रा. प्रति 100 ग्राम से अधिक नहीं होती, लेकिन बेबी कार्न में 86 मिग्रा. फास्फोरस विद्यमान है।
बेबी कार्न की खेती मक्के की खेती जैसी ही होता है। यह उन सभी खेतों में उग सकती है जिनमें मक्के की खेती होती है। इसकी उन्नतशील संकर प्रजातियों में हिम-129, प्रकाश, मेह-14 व गोल्डन बेबी आदि प्रमुख है। इसकी खेती किसी भी मौसम में की जा सकती है। उत्तरी मैदानी भागों में फरवरी से सितबर तक, पूर्वी भाग में जनवरी से सिंतबर तक तथा दक्षिण एवं पशिचम भारत में पुरे साल बुवाई की जा सकती है। इसकी खेती के लिए 35-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। इसकी बुआई करने के लिए खेत की अच्छी तरह जुताई करके पंक्ति से पंक्ति 60 सें.मी. एवं पौधे से पौधे 30 सें. मी. की दुरी पर बुवाई करनी चाहिए। इसमें 125 किलोग्राम यूरिया, 125 किलोग्राम सिंगिल सुपर फास्फेट म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। यूरिया की आधी मात्रा तथा शेष उर्वरकों की पूरी मात्रा बुआई के समय प्रयोग करें। यूरिया के आधी मात्रा बुवाई के 20-30 दिन बाद फसल के घुटने के बराबर आ जाने पर करनी चाहिए।
यह फसल बुआई के 45-50 दिन की भीतर तैयार हो जाती है जो दूसरी अन्य फसलों की तुलना में बहुत कम है। इसकी खेती में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इसकी तुड़ाई रेशे निकलने से पहले या तुरंत बाद, परन्तु परागण से पहले करनी चाहिए। यदि भुट्टों में बीज पड़ गये तो इसकी गुणवत्ता कम हो जायेगी व अच्छे दाम नहीं मिलेंगे।
इसका कोई भी हिस्सा बेकार नहीं जाता, इसके बचे हुए छिलकों, डंठलों और रेशों के चारे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसमें 13.२%, प्रोटीन, 4.4% वसा, 34.8 रेशा तथा 6.5% राख पायी जाती है। यह पशुओं के लिए उपयोगी और स्वास्थ्यवर्धक है।
बेबी कार्न को सलाद, सूप, अचार, पकौड़े व मिश्रित सब्जी इत्यादि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। विदेशों में इसको अपने आहार में शामिल कर लिया गया है। इसके पौष्टिक गुणों को देखते हुए भारतीय लोगों को भी इसे अपने आहार में शामिल कर लेना चाहिए। ऐसा तभी होगा जब इसकी उपलब्धि हर बाजार में सुनिश्चित होगी। इसके लिए इस फसल के बारे में प्रचार-प्रसार जानी चाहिए। इसके उत्पादन के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान की जानी चाहिए। इसके निर्यात की भी उचित व्यवस्था की जाए, ताकि किसानों को इसका अधिकतम मूल्य प्राप्त हो सके।
शिमला मिर्च
वानस्पतिक नाम- कै सिप्सकम एनम, कुल –सोलेनेसी
भारत में शिमला मिर्च की व्यवसायिक खेती तमिलनाडु, कर्नाटक, हिमाचलप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कुछ भागों में की जाती है। इसे बुलानोज, बड़ी मीठी मिर्च, घंटीनुमा मिर्च तथा शिमला मिर्च के नाम से जाना जाता है, लेकिन उत्तरी भारत में यह शिमला मिर्च के नाम से ही लोकप्रिय है। पौष्टिकता की दृष्टि से यह विटामिन तथा खनिज लवणों का अच्छा स्त्रोत है। इसमें विटामिन ‘ए’ ‘बी’ एवं ‘सी’ टमाटर से अधिक पाया जाता ही। चरपराहट रहित होने के कारण इसे विटामिन ‘सी’ की प्राप्ति हेतु कच्चा या सलाद के रूप में भी खाया जा सकता है।
उन्नतशील किस्में
कैलोफोर्निया वंडर, येलो वंडर, अर्का मोहनी, अर्का गौरव, अर्का बसंत, पूसा दीप्ती इत्यादि।
संकर (हाइब्रिड) किस्में
भारत, इंद्रा, सन-1090, ग्रीन गोल्ड इत्यादि।
कैलोफोर्निया वंडर
इसके पौधे ओजस्वी, सीधे तथा अधिक फल देने वाले होते हैं तथा फल वर्गाकार, चिकना, मोटा गुदे वाला, चिकना, मोटा गुदे वाला, हरा रंग लिए हुए तीन-चार प्रकोष्ठ का होता है। पकने पर फल का रंग चमकीला सिंदूरी हो जाता है। इस किस्म की औसत उपज 120-150 किवंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
येलो वंडर
इस किस्म के पौधे बौने तथा अधिक फल देने वाले होते हैं। फल नीचे की ओर झुके, तीन चार प्रकोष्ठों वाले व मध्यम मोटाई का गुदा लिए होता है। इसकी पैदावार 100-125 किंवटल प्रति हेक्टेयर होती है।
हाइब्रिड भारत
यह किस्म इंडो अमेरिकन हाइब्रिड सीड कम्पनी, बगलौर द्वारा निकाली गयी है। इसके फल चार प्रकोष्ठीय, मोटे गुदे वाले, 8-10 सें.मी. लंबे तथा लगभग 150 ग्राम वजन होते हैं। यह तम्बाकू विषाणु रोग के प्रति सहनशीलता है। इसकी उपज 400-500 किंवटल प्रति हेक्टेयर होती है।
अर्का मोहनी
इसमें फूल तथा फल एक बार लगते हैं। फल नीचे को ओर झुके हुए गहरे हरे रंग के मोटे गुदे वाले एवं 3-4 प्रकोष्ठ युक्त होते हैं। फल 80-100 ग्राम औसत वजन के होते हैं। यह किस्म गर्मी एवं शीत दोनों ही मौसम के लिए उपयुक्त है। घनी पत्तियाँ होने के कारण फल में सनस्केल्ड नहीं होता है। इसकी औसत उपज 200-250 किंवटल प्रति हेक्टेयर होती है।
अर्का गौरव
इसमें बार-बार फूल एवं फल लगते हैं। पहल गहरा हरा, तीन-चार प्रकोष्ठ युक्त, मध्यम आकार का होता है। फल का औसत वजन 70-80 ग्राम तथा उपज 180-250 किवंटल होती है। पत्तियों फलों को ढंके रहती है, इसलिए सनस्केल्ड का प्रकोप नहीं हो पाता है। यह किस्म जीवाणु झुलसा के प्रति सहिष्णु है।
अर्का बसंत
फल क्रीमी सफेद, शंकूअकार और ऊपर की ओर लगते हैं। इसके फल को अधिक समय तक भंडारित किया जा सकता है। फल सुगंधित एवं कुरकुरा होता है। औसत उपज 150-200 किंवटल प्रति हेक्टेयर है। यह निर्यात के लिए उपयुक्त किस्म है।
भूमि
क्षारीय तथा भारी भूमि को छोड़कर इसे सभी प्रकार की भूमियों में सफलतापूर्वक पैदा किया जा सकता है। लेकिन उत्तम उपज के लिए बुआई दोमट भूमि अच्छी पाई गई है। ऐसी मिट्टी जिसका पी.एच. मान 6 से 7.5 के बीच हो खेती के लिए उपयुक्त होती है।
बीजदर
एक हेक्टेयर खेत के लिए सामान्य किस्मों की 750-900 ग्राम तथा संकर किस्मों की 250 ग्राम बीज की आवश्कता पड़ती है।
बुआई का समय एवं पौधा तैयार करना
शरद ऋतु की फसल के नर्सरी में बीज की बुआई अगस्त माह में तथा वसंत ऋतु के लिए नर्सरी में बीज की बुआई नबम्बर माह में करनी चाहिए। शिमला मिर्च के बीज सर्वप्रथम पौधशाला में बुआई करके पौधा तैयार कर लेते हैं। तत्पश्चात उनका रोपण मुख्य खेत में करते हैं।
रोपण एवं दुरी
नर्सरी में जब पौधा 30 दिन की हो जाए या उनमें 4-5 पत्तियाँ आ जाएँ तो वे रोपण के लिए तैयार हो जाती है। नर्सरी से पौध उखाड़ने के पहले हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। ऐसा करने से पौधे आसानी से निकाले जा सकते हैं, तथा जड़ों को कम क्षति पहुंचती है। पौधों को अच्छी प्रकार से तैयार किये हुए खेत में लगाने के लिए पंक्ति से पंक्ति 60 से.मी. तथा पौधा 40 सें.मी, की दुरी रखते हैं। पौध लगाने से पहले मिट्टी में फ्युराडान (एक ग्राम प्रति पौधा) के हिसाब से पौध लगाने वाले स्थान पर डाल देना चाहिए। इससे फसल दीमक के प्रकोप से बच जाती है।
खाद एवं उर्वरक
खेत की तैयारी के समय ही 30-40 टन गोबर की सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर खेत में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त 100 किग्रा, नाइट्रोजन, 50 किग्रा. फास्फोरस और 50 किग्रा. पोटाश सामान्य किस्मों में तथा 200 किग्रा. नाइट्रोजन, 100 किग्रा. फास्फोरस और 100 किग्रा. पोटाश संकर किस्मों में प्रयोग करना चाहिए। फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की तिहाई मात्रा पौध रोपण के समय पंक्तियों में देनी चाहिए। शेष नाइट्रोजन की मात्रा तीन बराबर भागों में पौध रोपण के बाद क्रमशः 20 दिन, 40 दिन एवं 60 दिन बाद देनी चाहिए। इससे अच्छी पैदावार में काफी सुगमता होती है।
खरपतवार नियन्त्रण एंव मिट्टी चढ़ाना
अगस्त में बोई गई फसल में 3-4 निकाई एंव नवम्बर में बोई गई फसल को दो बार निकाई करना चाहिए। रासायनिक विधि द्वारा भी खरपतवार नियन्त्रण किया जा सकता है। इसके लिए रोपण से पूर्व स्टाम्प के 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने से खरपतवार की रोकथाम हो जाती है। पौध रोपण के तीस दिन बाद जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए ताकि पौधों की जड़ों के पास की मिट्टी पानी से बैठने न पावे और वायु का संचार बराबर बना रहे।
सिंचाई
पौध रोपण के तुरंत बाद एक हल्की सिंचाई करनी चाहिए। अच्छी फसल के लिए यह आवश्यक है कि भूमि में पर्याप्त नमी हो। इसके लिए हमेशा 10-15 दिन में अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
फलों की तुड़ाई
पूर्ण विकसित और बड़े आकार के स्वस्थ हरे फल बिक्री के लिए उत्तम रहते हैं। फलों की तुड़ाई, पौध रोपण के 90-95 दिन बाद शुरू हो जाती है और 15 दिन के अंतर में 4-5 बार तुड़ाई की जाती है।
उपज
शिमला मिर्च की औसत उपज 80-180 किंवटल प्रति हेक्टेयर होती है। कुशल प्रंबध और उत्तम तकनीक द्वारा उपज को 400-500 किंवटल प्रति हेक्टेयर तक बढ़ाया जा सकता है।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
लाही: इसके नवजात एवं वयस्क छोटे हरे/भूरे/काले रंग के होते हैं जो पत्तियों की निचली सतह या कोमल टहनियों से चिपक कर रस चूसते हैं विषाणु फैलाते हैं।
मोनोक्रोटोफास 1.0 मिली. या मेटासिस्टाक्स 1.5 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से 7 दिन पर दो बार छिडकें।
लीफ हॉपर (फुदका): इसके शिशु एवं वयस्क पत्तियों से चिपक कर चूसते हैं। अधिकता की अवस्था में पत्तियों पर छोटे-छोटे धब्बे दिखाई देते हैं तथा पतियाँ पीली पड़ जाती है।
मोनोक्रोटोफास 1.0 मिली. या मेटासिस्टाक्स 1.5 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से 7 दिन पर दो बार छिडकें।
प्रमुख रोग, लक्षण एवं उपचार
आद्रगलन : पौधशाला में बिछड़ों का मरना, मिट्टी की सतह से कीच ऊपर तक जलसिक्त सड़न होना ।
बेबिस्टिन(२ग्रा./किग्रा.) से बीजोपचार तथा पौधशाला में क्यारियों की ब्लूकॉपर 0.3% या कैप्टान 0.२% घोल से सिंचाई करें।
श्यामवर्ण एन्थ्रेकनोज: पत्तियों तथा फलों पर भूरे काले रंग के धब्बे, पत्तियों का झड़ना था फलों का आकार बिगड़ना।
बेबिस्टिन(२ग्रा./किग्रा.) से बीजोपचार तथा बेबिस्टिन 0.1% या फोल्टाफ या कवच के 0.२% घोल का छिड़काव ।
पत्रधब्बा: पत्तियों की निचली सतह पर काजल के समान काले फुफुन्द की उपस्थिति एवं उग्रता की स्थिति में पत्तियों का पीला पड़ना या झड़ना बेबिस्टिन के 0.२% घोल का छिड़काव ।
स्प्राउटिंग ब्रोकोली
वानस्पतिक नाम-ब्रेसिका आलेरिसया किस्म इटैलिका , कुल क्रुसीफेरी
स्प्राउटिंग ब्रोकोली गोभी वर्गीय सब्जियों के अंतर्गत आती है, जिसमें पुष्प कलिकाओं के असंख्यवार विभाजित होकर एक संगठित आकार बने भाग को खाते हैं। अंतर इतना होता है कि फूलगोभी की भांति इसके भांति इसके शीर्ष ठोस नहीं होते और छोटे-छोटे शीर्ष के पुंज रहते है। इसका उपयोग मुख्य रूप से सब्जी व सूप के रूप में किया जाता है। इसमें प्रोटीन तथा विटामिन “ए” व ”सी” प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। हमारे देश में इसकी खेती अभी नई है। परन्तु इसका उपयोग होटलों में बहुतायत से किया जा रहा है। जिसके कारण इसकी मांग और भी बढ़ गयी है।
उन्नतशील प्रजातियाँ
ब्रोकोली की किस्में मुख्यतया तीन प्रकार की होती है। श्वेत, हरी व बैगनी रंग की। इनमें हरे रंग की गठी हुई शीर्ष वाली किस्में ज्यादा पसन्द की जाती है। परिपक्वता के आधार पर ब्रोकोली की किस्मों को अगेती, मध्यावधि व पिछेती वर्गों में विभाजित किया है।
अगेती किस्म: ये किस्में रोपण के पश्चात 60-70 दिन में ही तैयार हो जाती है। इनकी अच्छी वृद्धि के लिए मध्यम ठंडक उपयुक्त है।”डी” सिक्को “ग्रीन बड”व स्पटिन” आदि अगेती किस्में हैं।
मध्यावधि किस्म: ग्रीन स्प्राउटिंग मीडियम ” एक प्रमुख किस्म है, जो लगभग 100 दिन में तैयार हो जाती है।
पिछेती किस्म: पिछेती किस्मों में – ग्रीन स्प्राउटिंग लेट” एक प्रमुख किस्म है, जो लगभग 120 दिन में तैयार हो जाती है।
इनके अतिरिक्त जैसे ‘बालथम”- 29 ग्रीन माउन्टेन’ कोस्टल तथा अटलांटिक कुछ ऐसी किस्में हैं जो अगेती तथा पिछेती दोनों में उगाई जाने के लिए उपयुक्त है।
ब्रोकोली की कुछ संकर किस्में भी विकसित की गयी हैं जो इस प्रकार हैं –सर्दन कोमेट, प्रीमियम कोरौना, स्टिफ, कापक, ग्रीन सर्फ (लेट) किस्में हैं जो अच्छी उपज देती है।
भूमि और खेत की तैयारी
ब्रोकोली की खेती यों तो सभी प्रकार की भूमि की जा सकती है। परन्तु अच्छी जल निकास वाली दोमट भूमि जिसमें जीवांश प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो, इसकी खेती के लिए अच्छी होती है। क्षारीय भूमि (लवणयुक्त) में इसकी खेती करने की सिफारिश नहीं की जाती है। रेतीली भूमि में खेती करने के लिए पर्याप्त मात्रा में हरी खाद, कार्बनिक पदार्थ एवं सड़ी गोबर की खाद डालना अत्यंत आवश्यक होता है।
खेती की तैयारी
ब्रोकोली की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए खेत की मिट्टी अच्छी प्रकार से तैयार करनी चाहिए। पहली जुताई मिट्टी वाले हल से तथा उसके बाद २-3 जुताई देशी हल से यह कल्टीवेटर से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य चला देना चाहिए जिससे ढेलें इत्यादि टूट जाएं। खरपतवार को निकाल कर खेत को अच्छी प्रकार समतल कर लेना चाहिए और अंतिम जुताई के समय गोबर या कम्पोस्ट की खाद मिट्टी में मिला देना चाहिए।
बीज की मात्रा तथा बुआई का समय
बीज को सर्वप्रथम पौधशाला में बुआई करते हैं और एक हेक्टेयर ब्रोकोली की खेती के लिए 500 ग्राम बीज की आवश्कता पड़ती है। पौधशाला में बीज की बुआई का उचित समय अगेती फसल के लिए सितम्बर से मध्य अक्तूबर तक तथा मध्यावधि और देर से तैयार होने वाली किस्मों के लिए अक्तूबर से मध्य नवम्बर तक है।
दुरी तथा रोपण
ब्रोकोली की पौध रोपण की उचित दुरी पंक्ति से पंक्ति 45-50 सें.मी. तथा पौधों के बीच की दुरी 40-45 सें.मी, रखते हैं।
खाद तथा उवर्रक
ब्रोकोली की अच्छी फसल के लिए खेत पर्याप्त मात्रा में जीवांश का होना अत्यंत आवश्यक है। अतः खेत में 25-30 टन सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद तथा 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्र फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा व फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा अंतिम जुताई या रोपण से पूर्व खेत में अच्छी प्रकार मिला देना चाहिए तथा शेष आधी नाइट्रोजन की मात्रा दो बराबर भागों में बाँटकर खड़ी फसल में 30 व 45 दिन बाक टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए।
फसल की सिंचाई
पौधों को अच्छी वृद्धि के लिए मिट्टी में पर्याप्त मात्रा में नमी का होना अत्यंत आवश्यक है। जून के महीने में 4-5 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। वर्षा न हो आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। सितम्बर के बाद 10-15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
फसल की कटाई
अगेती फसल कटाई के लिए दिसम्बर, मध्यावधि किस्में जनवरी से फरवरी तथा पिछेती किस्में मध्य फरवरी के बाद तैयार हो जाती है। कटाई के समय यह ध्यान रखना चाहिए कि कलियाँ खिलना आरंभ होने से पहले काट समय यह ध्यान लेना चाहिए तथा काटते समय शीर्ष के साथ 15 सें.मी. डंठल उसके साथ अवश्य रखना चाहिए।
बोरर (छेदक)
इसके पिल्लू डायमंड बैकमौथ के पिल्लू से बड़े औरे हरे रंग के होते हैं जिनके आरीनुमा पैर देखे जा सकते है। मुख्यतः पिल्लू पौधे के मध्य भाग को खाते है और जाला बनाकर रहते है। गोभी के साथ सरसों की खेती करें तथा सायपरमेथ्रिन 0.२ मिली, तथा पडान 1 ग्रा.प्रतिलीटर घोल का 7-10 दिन के अंतर पर बारी-बारी से छिड़काव करें।
सेमीलूपर
इसके पिल्लू उचक-उचक कर चलते हैं लंबे हरे रंग के होते हैं। ये पत्तियाँ काटकर खाते हैं।
डायमंड बैकमौथ के लिए बताये गये उपायों के अनुसार नियन्त्रण करें।
लाही
इसके नवाजत एवं वयस्क छोटे हरे/भूरे/काले रंग के होते हैं जो पत्तियों की निचली सतह या कोमल टहनियों से चिपक कर रस चूसते हैं और विषाणु फैलाते हैं।
मोनोक्रोटोफास 1.0 मिली. या मेटासिस्टाक्स 1.5 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से 7 दिन पर दो बार छिडकें।
प्रमुख रोग, लक्षण एवं उपचार
आद्रगलन : पौधशाला में बिछड़ों का मरना, मिट्टी की सतह से कीच ऊपर तक जलसिक्त सड़न होना ।
बेबिस्टिन(२ग्रा./किग्रा.) से बीजोपचार तथा पौधशाला में क्यारियों की ब्लूकॉपर 0.3% या कैप्टान 0.२% घोल से सिंचाई करें।
श्याम विगलन या ब्लैकरॉट : पत्ती के किनारे से V आकार में पीला पड़ना, सुखाना तथा शिराओं का काला पड़ना, उग्रता की अवस्था में पत्तियों का आंशिक या पूर्णरूप से सुखना एवं फसल का पीला दिखना तथा भंडारण में फूलगोभी, बंदगोभी का सड़ना। गर्म पानी से बीजोपचार (52 सें. पर 30 मिनट तक डुबोकर) बोरिक एसिड का रोपाई के 10 दिन के बाद से 3 से 4 बार 5 ग्रा. प्रति 20 लीटर पानी में घोल बनाकर तरल साबुन के साथ छिड़काव।
डाउनी मिल्ड्यू
पौधशाला में नवजात बिछड़ों या खेत में बड़े पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर कपास की तरह सफेद मटमैले रंग के फुफुन्द का आक्रमण, पत्तियों की ऊपरी सतह पर काले-काले धब्बों के अनगिनत समूहों का दिखाई देना। ब्लूकोपर या ब्लाईटाक्स के 0.२% घोल का छिड़काव करें।
घेरकीन
घेरकीन खीरा की तरह ही कूकरबीटेसी परिवार की सब्जी है। इसे पिकलिंग कुकुम्बर भी कहा जाता है। इसके कोमल लगभग २-२.5 इंच लंबे सीधे फलों को सलाद या आचार के रूप में व्यवहार किया जाता है।
इसे औद्योगिक फसल भी कहते हैं क्योंकि पिकलिंग (आचार) उद्योग में इसका काफी महत्व है।
घेरकीन
घेरकीन की खेती मुख्य रूप से कर्नाटका में होती है तथा विदेशों में निर्यात किया जाता हिया। कर्नाटक में 40 से अधिक प्रतिष्ठान हैं जो घेरकीन को विदेशों में खासकर यू.एस, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, स्पेन तथा दक्षिण कोरिया में निर्यात करते हैं। विदेशों में निर्यात के कारण इसकी खेती अनुबंधित खेती के रूप में होता है। घेरकीन की खेती कर्नाटका में लगभग सोलह हजार हेक्टेयर में होती है जिसके कुल उपज का 90% भाग निर्यात किया जाता है, तथा 10% ही आंतरिक उपयोग में लाया जाता है।
घेरकीन शीघ्र बढ़ने वाला लत्तदार सब्जी फसल है जो 60-70 दिन में तैयार हो जाता है। 7-10 ग्राम के फल की तोड़ाई की जाती है। कैश क्रॉप होने के बावजूद निर्यात में कठिनाई का सामना करना पड़ता है क्योंकि इसे ब्राइन (नमक घोल) या विनेगर में 24 घंटा के अंदर प्रोसेसिंग करना पड़ता ही, जिसके लिए कुशल मजदूरों की आवश्यकता होती है।
खीरा की तरह ही घेरकीन “मोनोसियस “ पौधा है जिसमें पुरुष फूल एवं मादा फूल एक ही पौधे पर अलग-अलग लगते हैं। पुरुष फूल पहले निकलते हैं।
जलवायु
यह गर्म मौसम की सब्जी है तथा इसके लिए लंबे समय तक गर्म मौसम मिलना चाहिए। सूर्य की रौशनी भी पर्याप्त मात्रा में मिलना आवश्यक है।
औसत तापक्रम: 30-35 सें.
अधिकतम: 40 सें. के आसपास
निम्नतम: 20-25 सें.
मिट्टी
हल्की मिट्टी, बलुआही दोमट या चिकनी दोमट
आम्लीयता : 6.0-7.0 के बीच
मिट्टी का तापक्रम: 18 सें.-22 के बीच
लगाने का समय खरीफ : जून-जुलाई
गर्मी : फरवरी-मार्च
दुरी
नाली या मेड़ विधि में : 100 सें.मी. X 25-30 सें.मी.
थाला विधि में : 1 मी. X 0.90-1 मी.
3-4 बीज प्रति थाला
बीजदार
२-२.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
खाद की मात्रा
कम्पोस्ट : 150-200 किवंटल प्रति हेक्टेयर
यूरिया: 150-200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
सिंगल सुपर फास्फेट : 250-300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
एम. ओं.पी.: 75-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
उपज : प्रथम तोड़ी, बुआई के 50-55 दिन के बाद उपज -15-20 टन
प्रमुख कीट एवं नियन्त्रण
एन्थ्रेकनोज: पत्तियों तथा फलों पर भूरे काले रंग के धब्बे, पत्तियों का झड़ना तथा फलों का आकार बिगड़ना।
बेबिस्टिन(२ग्रा./किग्रा.) से बीजोपचार तथा बेबिस्टिन 0.1% या फोल्टाफ या कवच के 0.२% घोल का छिड़काव ।
पाउडरी मिल्ड्यू: कपनुमा या मटमैले पाउडरनुमा फफूंद का पत्तियों तथा पत्रवृन्तों या फलों पर उपस्थित होना।
बेबिस्टिन या टापसिन या कैराथिन के 0.1% घोल का छिड़काव करें।
डाउनी मिल्ड्यू: कपनुमा, मटमैले रंग के फफूंद का पत्तियों की निचली सतह या लत्ती तथा फलों पर आक्रमण।
ब्लूकार्पर या ब्लाईटाक्स के 0.२% घोल का छिड़काव करें।
रोग उपचार
एपिलैक्ना भृंग: इसके वयस्क एवं नवजात दोनों ही पत्तियों को खरोंच कर खाते हैं और उन्हें जाली जैसा बना देते हैं।
कार्बराइल २ ग्राम तथा पडान 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 10 दिन पर बारी-बारी से छिड़काव करें।
मकड़ी (माईट): ये मकड़ी पत्तियों की निचली सतह पर रहती हैं और रस चूसकर पत्तियों को हानि पंहुचाती जिसके फलस्वरूप पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं।
डायकोफाल 3 मिली. या केलथेल 1 मिली. प्रति लीटर 10 दिन के अंतराल पर दो बार छिडकें।
लीफ माईनर: ये कीट बहुत छोटे हैं जो पत्तियों की ऊपरी सतह में टेढ़ी-मेढ़ी सुरंग बनाकर ऊतकों को खाते हैं।
नियंत्रण के लिए मोनो क्रोटोफास 1.5 मिली. या पडान 1 ग्राम प्रति लीटर का छिड़काव 7-10 दिन पर दो बार करें।
फ्रेंचबीन (फरसबीन) की वैज्ञानिक खेती
फरसबीन अथवा फ्रेंचबीन झारखण्ड की एक प्रमुख की फसल है। इसकी खेती रांची, लोहरदगा, लातेहार, गुमला एवं हजारीबाग जिलों में साल भर सफलतापूर्वक होती है। बसंत एवं शरद ऋतु में झाड़ीदार किस्में तथा बरसात एंव शरद ऋतु में लतदार किस्मों की खेती की जाती है। दलहनी फसल होने के कारण यह वायुमंडलीय नाइट्रोजन को भूमि से संचित करती है जिससे जमीन की उवर्रता बढ़ती है एवं अगली फसल को नाइट्रोजन का लाभ मिलता है। फ्रेंचबीन का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें अधिक मात्रा में सहजपाच्य प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेटस तथा विटामिन पाए जाते हैं।
फ्रेंचबीन में पाए जाने वाले पोषक तत्व (प्रति 100 ग्राम खाने योग्य भाग)
नामी | 91.4 ग्रा. मि. | मैग्नेशियम | 38.0 मि. ग्रा. |
प्रोटीन | 1.7 ग्रा. | मैगनीज | 0.12 मि. ग्रा. |
वसा | 0.1 ग्रा. | जस्ता | 0.41 मि. ग्रा. |
रेशा | 1.8 ग्रा. | विटामिन ‘ए’ (कैरोटिन) | 132.0 माइक्रोग्राम |
कार्बोहाइड्रेट | 4.5 ग्रा. | ||
खनिज तत्व | 0.5 ग्रा. | विटामिन ‘बी’-1’ | 0.08 मि. ग्रा. |
कैल्शियम | 50.0 मि. ग्रा. | विटामिन ‘बी’-2’ | 0.06 मि. ग्रा. |
फास्फोरस | 28.0 मि. ग्रा. | नियासिन (नकोटिनिक अम्ल) | 0.30 मि. ग्रा. |
पोटाशियम | 129.0 मि. ग्रा. | ||
गंधक | 37.0 मि. ग्रा. | फोलिक अम्ल | 15.5 मि. ग्रा. |
सोडियम | 4.3 मि. ग्रा. | विटामिन ‘सी’- | 24.0 मि. ग्रा. |
लोहा | 1.7 मि. ग्रा. | ऊर्जा | 26.0 किलो कैलोरी |
तांबा | 0.21 मि. ग्रा. |
फरसबीन की उन्नत किस्में
क) झाड़ीदार किस्में
स्वर्ण प्रिया: इसकी फलियाँ सीधी, लम्बी (13.58 सें.मी.). चपटी/ (1.26 से.मी.). मुलायम, रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। फलियाँ बुआई से 45-50 दिन में तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 100-120 किंव/हे. है। इसके परिपक्व चमकीले लाल-भूरे रंग के, बड़े आकारयुक्त बीजों को दाल(राजमा) के रूप में भी उपयोग किया जा सकता है। बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, प्लांडू से विकसित इस किस्म के बीज से प्राप्त किये जा सकते है।
अर्का कोमल
भारतीय बागवानी अनुसधान, बेगलुर से विकसित इस किस्म की फलियाँ सीधी, लंबी (15.1 सें.मी.) चपटी (1.08 सें.मी.), मुलायम, रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। इसकी भंडारण क्षमता अच्छी है तथा दूर बाजार में भेजने के लिए यह किस्म उपयुक्त है। बुआई से 45 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 120 किंव/हे. है। इस किस्म के बीज बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, प्लांडू से प्राप्त किये जा सकते हैं।
पन्त अनुपमा
इसकी फलियाँ लंबी (125.5 सें.मी.) गोल (0.98 सें.मी. व्यास), चिकनी, रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। फलियों की पहली बुआई के 55-60 दिन बाद की जाती है। यह किस्म मोजैक विषाणु रोग के प्रति मध्यम रूप से अवरोधी है। इसकी उपज क्षमता 90 किंव/हे. है। इसके बीज गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर से प्राप्त किये जा सकते है।
एच.ए.एफ. बी.-1
इस किस्म की फलियाँ मुलायम, लंबी (16.07 सें.मी.), गोल (1.0 सें.मी,) चिकनी, रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 50 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 180-130 किंव/हे. है। इस किस्म के बीज बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, प्लांडू से प्राप्त किये जा सकते हैं।
एच.ए.एफ. बी.-2
इस किस्म की फलियाँ मुलायम, लंबी (16.72 सें.मी.), गोल (1.0 सें.मी,) चिकनी, रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 50 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 150-200 किंव/हे. है। इस किस्म के बीज बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, प्लांडू से प्राप्त किये जा सकते हैं।
कन्टेन्डर
इसकी फलियाँ लंबी (15.18 सें.मी.), गोल (1.05 सें.मी,) रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 59 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 120-150 किंव/हे. तक है। इसके बीज निगम तथा बाजार से उपलब्ध हो सकते हैं।
पूसा पार्वती
इस किस्म फलियाँ मुलायम, लंबी (13.70 सें.मी.), गोल (1.0 सें.मी,) रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 50 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 200-२50 किंव/हे. तक है। इसके बीज निगम तथा बाजार से उपलब्ध हो सकते हैं।
ख) लतदार किस्में
स्वर्णलता: इसकी फलियाँ मुलायम, लंबी (13.41 सें.मी.), गोल (1.04 सें.मी, व्यास), गूदेदार , रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 60-65 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 120-140 किंव/हे. तक है। इस किस्म के बीज बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, प्लांडू, रांची से प्राप्त किये जा सकते हैं।
सी.एच.पी.बी. 1127 : इसकी फलियाँ मुलायम, लंबी (12.70 सें.मी.), गोल (1.04 सें.मी, व्यास), गूदेदार , रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 60-65 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 150-180 किंव/हे. तक है। इस किस्म के बीज बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, प्लांडू, रांची से प्राप्त किये जा सकते हैं।
सी.एच.पी.बी. 1820 : इसकी फलियाँ मुलायम, लंबी (13.43 सें.मी.), गोल (1.04 सें.मी, व्यास), गूदेदार , रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 50-55 दिनों बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 180-200 किंव/हे. तक है। इस किस्म के बीज बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, प्लांडू, रांची से प्राप्त किये जा सकते हैं।
बिरसा प्रिया
इसकी फलियाँ लंबी (13.43 सें.मी.), गोल (1.0 सें.मी, व्यास), गूदेदार, रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 50 दिन बाद फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 1२0-150 किंव/हे. तक है। इस किस्म के बीज बागवानी एवं बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, कांके, रांची से प्राप्त किये जा सकते हैं।
पूसा हिमलता
इसकी फलियाँ लंबी (1२.89 सें.मी.), गोल (1.17 सें.मी, व्यास), गूदेदार , रेशारहित एवं हरे रंग की होती है। बुआई से 50-55 दिनों में फलियाँ पहली तुड़ाई योग्य हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 130-160 किंव/हे. तक है। भारतीय कृषि अनुसधान के कटराइन, हिमाचल प्रदेश स्थित क्षेत्रीय केंद्र से विकसित इस किस्म के बीज वहीं से प्राप्त किये जा सकते हैं।
भूमि का चुनाव
फ्रेंचबीन ऐसे तो सभी प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है, लेकिन अच्छी उपज के लिए जैविक पदार्थ से परिपूर्ण, उचित जल निकासयुक्त, हल्की मिट्टी फ्रेंचबीन के लिए उपयुक्त होती हैं। अधिक आम्लिक मिट्टी में 25 किवंटल/हे. की दर से बुआई से एक महीना पहले कृषि में प्रयुक्त चूना मिलाना अच्छा रहता है। खेत की तैयारी के लिए 3-4 बार जुताई आवश्यक की जानी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
दलहनी फसल होने के कारण इसमें नाइट्रोजन उर्वरक की कम मात्रा में आवश्यकता होती है फिर भी उन्नत खेती के लिए प्रति हेक्टेयर 200-250 किवं. सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय मिला देना उचित होता। किग्रा. यूरिया, 315 किग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 85 किग्रा. यूरिया, 315 किग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 85 किग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय खेत में अच्छी तरह से मिला देनी चाहिए। पुनः 60 किग्रा. यूरिया बुआई के 25-30 दिन बाद टापड्रेसिंग के रूप में पौधों की जड़ से दूर प्रयोग करनी चाहिए।
बुआई
झाड़ीदार फ्रेंचबीन की बसंत ऋतु की फसल के लिए फरवरी के पहले सप्ताह में एवं शरद-शीत ऋतु की फसल के लिए सिंतबर के दूसरे पखवाड़े में बुआई करना उपयुक्त होगा। लतदार किस्मों की बरसाती खेती के लिए जून माह के दूसरे सप्ताह में एवं शरद-शीत ऋतु की फसल के लिए सिंतबर के दूसरे पखवाड़े में बुआई करना उपयुक्त होगा। बरसाती फसल की बुआई मेड़ पर करनी चाहिए जबकि बाकी मौसमों की फसल के लिए बुआई समतल जमीन में कर सकते हैं। बुआई क्यारी बनाकर पंक्तियों में करनी चाहिए। पंक्ति से पंक्ति की दुरी झाड़ीदार फ्रेंचबीन के लिए 45 सें.मी. एवं लतदार फ्रेंचबीन के लिए 1 मीटर रखनी उचित होगी। दोनों प्रकार की किस्मों के लिए बीज से बीज की दुरी 15-20 सें.मी. रखी जा सकती है। बीज २-3 सें.मी. गहराई पर बोने चाहिए। एक हेक्टेयर खेत की बुआई के लिए झाड़ीदार फ्रेंचबीन के लगभग 50-70 किग्रा. एवं लतदार फ्रेंचबीन के 22-25 किग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है।
फसल की देखरेख
बीज के उचित अंकुरण के लिए बोने से एक या दो दिन पहले खेत में हल्की सिंचाई करने जरुरी है। अंकुरण के बाद आवश्कतानुसार सप्ताह में एक या दो बार सिंचाई करनी आवश्यक है। पौधों में फूल आने से पहले एक सिंचाई अवश्य करनी चाहिए, इससे फलियाँ अधिक लगती हैं। फलियाँ भरने के समय भी फसल में सिंचाई की आवश्यकता होती है।
खड़ी फसल में समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिय ताकि पौधे अच्छी तरह विकसित हो सकें। बुआई से 25-30 दिनों के बाद गुड़ाई करके पौधों की जड़ों के पास यूरिया प्रयोग करना ठीक होगा एवं उसके पश्चात पौधों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। इस समय एक हल्की सिंचाई करनी आवश्यक होती है।
लतदार फ्रेंचबीन में बढ़ती हुई लतर को सहारा देने के लिए सुखी डालियों का प्रयोग करें या पंक्ति में बांस की खूँटी गाड़कर उसमें तार या सुतली बाँध देनी चाहिए। इस प्रकार सहारा देने से फसल से पैदावार अच्छी मिलती है तथा देखभाल में सुविधा होती है।
तुड़ाई एवं विपणन
फरसबीन की फलियों की तुड़ाई मुलायम अवस्था में की जाती है। फूल आने के लगभग 15 दिन बाद फलियाँ तुड़ाई योग्य हो जाती है। फलियों की तुड़ाई सुबह अथवा शाम के समय करनी चाहिए जिससे फलियाँ ज्यादा ताजा अवस्था में बाजार पहुंच सके तथा उनके उचित दाम मिल सके। तुड़ाई उपरांत फलियों की छंटाई करके अच्छी फलियों का रगं, आकार एवं आकृति के अनुसार श्रेणीकरण कर लें। बांस की टोकरी या पटसन के बारे में उन्हें भरकर स्थानीय बाजार में ले जाना ठीक रहता है। वर्गीकृत फलियों को बाजार में बेचने में सुविधा होती है तथा उनका उचित मूल्य मिलता है।
रोग एंव कीट नियन्त्रण
रोग
एन्थ्रेकनोज: इस बीमारी के कारण फलियों एंव पत्तियों के ऊपर काले-पीले धब्बे पड़ जाते हैं। प्रभावित पत्तियाँ सिकुड़ या सुख जाती हैं। इससे बचने के लिए स्वस्थ पौधों से बीज संग्रह करना चाहिए तथा बुआई से पहले बीजों को बाविस्टीन दवा (२.5 ग्रा./किलोग्राम बीज) से उपचारित कर लेना चाहिए।
खड़ी फसल में, डाईथेन एम्-45 दवा २ ग्रा.प्रति लीटर पानी में मिलकर 15 दिन के अन्तराल पर २-3 बाद छिड़काव करना चाहिए।
रस्ट
इस रोग से प्रभावित पत्तियों की दोनों सतहों पर छोटे, गोल, भूरे रंग के पाउडर जैसे उभरे हुए दाने आटे हैं। प्रभावित पत्तियां सुख का गिर जाती हैं। रोकथाम के लिए वीटावैक्स 1 ग्रा. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
जीवानुज झुलसा (बैक्टीरियल ब्लाईट)
इस रोग से प्रभावित पत्तियों के ऊपर भूरे रंग के दाग पड़ जाते हैं एवं दाग का घेरा हुआ अंध हल्का पीला हो जाता है। फलियों पर काले धब्बे पड़ जाते है। इसके लिए नियन्त्रण के लिए स्ट्रप्टोसाईकिलन दवा 5.0 ग्रा. प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। साथ ही स्वस्थ पौधों से बीज संग्रह करके बुआई करनी चाहिए।
मोजैक
इस बीमारी से फ्रेंचबीन के पत्ते सिकुड़ जाते अहिं तथा उन पर हरे-पीले धब्बे बन जाते हैं। रोगी पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। रोगोर दवा 1.0 मि.ली./ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें। इस प्रकार वाहक कीड़ों का नियंत्रण करने से इस बीमारी का प्रसार कम हो जाता है।
कीट
लाही या एसिड
ये बहुत छोटे काले रग के कीड़े मुलायम पत्तियों, शाखाओं, फलों एवं फूलों का रस चूसते हैं जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं तथा उनकी बढ़वार रुक जाती है। इसके बचाव के लिए रोगोर या नुकसान दवा २ मि.ली. या जैविक कीटनाशक डेल्फीन (बी.टी.) दवा 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए।
पर्यावरण एवं स्वास्थ्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कीट नियंत्रण हेतु खेत में नीम की खली (10 किवं/हे.) का प्रयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त 40 ग्राम नीम के बीज का चूर्ण रातभर पानी में भिंगोकर छान लें एवं इसे 1 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें अथवा 1 मि.ली. नीम का तेल 1 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव किया जा सकता है। नीम की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए किसान अपने खेत की उत्तर दिशा में या बंजर जमीन पर अधिक से अधिक नीम के पौधे लगाकर आत्मनिर्भर बन सकते हैं।
वैज्ञानिक पद्धति से सब्जियों का उत्पादन की नवीनतम पद्धतियां
सब्जी पाठशाला
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