साइलेज: हरे चारे के संरक्षण की एक चमत्कारी विधि
डॉ॰ अशोक पाटिल, सहायक प्राध्यापक, पशु पोषण विभाग
पशुचिकित्सा एवं पशुपालन महाविधालय, महू (म॰ प्र॰)
भारत में ४४ प्रतिशत दाने, ३८ प्रतिशत हरे चारे तथा ११ प्रतिशत मोटे चारे की कमी है, इस कमी को पूरा करने के लिए हमे चारे का उपयुक्त समय पर संरक्षण करना बहुत जरूरी है। बरसात में हरे चारे बहुत अधिक मात्रा में पाये जाते है। इसी समय अगर हम इस हरे चारे का संरक्षण साइलेज के रूप में कर ले तो इस समस्या से निपटा जा सकता है। दुधारू जानवरों को यदि हरा चारा नही देंगे तो इन पशुओं में प्रोटीन और विटामिन की मात्रा में भारी कमी आ जाती है, जिससे पशु पूरी क्षमता के अनुसार दूध नही देता और इससे पशुपालक को नुकसान उठाना पड़ता है, इन सब बातों के ध्यान में रखते हुए बरसात के दिनो में साइलेज के रूप में चारा संरक्षण बहुत जरूरी है। हरे चारे को हवा की अनुपस्थिति में गड्ढे के अन्दर रसदार परिरक्षित अवस्था में रखनें से चारे में लैक्टिक अम्ल बनता है जो हरे चारे का पीएच कम कर देता है तथा हरे चारे को सुरक्षित रखता है। इस सुरक्षित हरे चारे को साईलेज (Silage) कहते हैं।
साइलेज बनाने के लिये कुछ अवश्यक निर्देश:
1. जिस चारे से साइलेज बनाना हो, उसमें शुष्क पदार्थ की मात्रा ३०-४० प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिये। यदि नमी अधिक हो, तो इसे सूखा लेना चाहिये और यदि नमी कम हो तो, साइलेज बनाते समय चारे पर पानी छिड़कना चाहिए।
2. बड़े पौधों को काटकर छोटा कर लेना चाहिए। यदि पत्तियों की साइलेज बनानी हो तो उन्हें शाखाओं से तोड़कर अलग कर लेना चाहिए।
3. साइलेज बनाने वाले हरे चारे में काफी मात्रा में कार्बोहाइड्रेट उपलब्ध होनी चाहिए। यदि इनकी कमी हो, तो साइलेज बनाने वाले कुल चारे की मात्रा का दो प्रतिषत शीरा छिड़क कर इस कमी को दूर कर लेना चाहिए, ताकि किण्वन के समय साइलेज को सुरक्षित रखने के लिये अम्ल बन सकें।
साइलेज बनाने के लिये उपयोगी फसलें:-
उपयुक्त व अच्छी साइलेज बनाने के लिये साइलेज बनाने वाले चारे में काफी मात्रा में कार्बोहाइड्रेट तथा नमी होना अवश्यक है। हमारे यहां मक्का एवं ज्वार साइलेज बनाने के लिये सर्वोत्तम चारे हैं, साइलेज बनाने वाली फसल को फूलते समय ही काटा जाना चाहिये, क्योंकि इस समय इनमें पोषक तत्व अधिक मात्रा में होते हैं। सुबह ओस छूटने के बाद चारे को काटकर, दोपहर तक के लिये खेत पर फैलाकर छोड़ देना चाहिये जिससे कि कुछ नमी इसमें से सूख जाये। दोपहर के बाद इस चारे के बण्डल बांधकर एक क्रम से लगा लेना चाहिये।
गर्त विधि: इस विधि में साइलेज बनाने के लिये विभिन्न स्थानों पर आयताकार अथवा गोलाकार भूमिगत कच्चे या पक्के गड्ढ़े बनाये जाते हैं। इनकी गहराई, चारे की मात्रा तथा वहां के पानी की सतह पर निर्भर होती है। प्रक्षेत्रों पर सबसे ऊंचे एवं ढालू स्थान पर, जहां पानी से सतह काफी दूर हो, यह गड्ढे़ बनाये जाते हैं।
1. गडढ़ों की दीवारें दीवारें लम्बवत् चिकनी तथा हवा बंद होनी चाहिए, जिससे चारे में हवा न पहुच पाये।
2. दीवारें काफी सुदृढ़ होनी चाहिये, ताकि किण्वन के समय पैदा हुए दबाव को भली-भांति सहन कर सकें।
गड्ढे को भरना : गड्ढे को चारे से भरते समय इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि चारा खूब दबाकर भरा जाये, जिससे उसमें हवा न रहने पाये। अतः जो चारा भरना हो, उसको गड्ढे में सतह लगाकर पैर से खूब दबाते जाते हैं। बड़े गड्ढे में यह कार्य चारे के ऊपर बैलों की दॉय चलाकर भी किया जा सकता हैं।
गड्ढा भरते समय यदि मौसम खराब जान पड़े तो उस पर अस्थायी छप्पर या टीन डालकर छाया कर लेनी चाहिये। कभी-कभी वर्षा का पानी गड्ढा भरने में रूकावट डालता है, जैसा कि अधिक वर्षा पड़ने वाले स्थानों में देखा गया है। ऐसे समय में पानी से भीगा हुआ चारा की परत के बाद भूसे की एक तह लगा देते हैं और उसके बाद फिर हरे चारे की परत। इसी प्रकार परत दर परत हरा चारा और भूसा भरते जाते है, और इसको अच्छे से दबाकर भर देते हैं
गड्ढे का आतिशीघ्र अथवा बहुत धीरे-धीरे भरना बहुत ही हानिकारक हैं। यदि गड्ढा बहुत शीघ्र भरा जाता है, तो चारा भली भांति दब नहीं पाता और उसमें हवा रह जाती है, जो साइलेज को खराब कर देती है। अधिक धीरे-धीरे भरने से चारा सूखने का भय रहता है, जिसमे अच्छी साइलेज नहीं बनतीं।
गड्ढे को खोलना: लगभग ५० से ८० दिन गड्ढे में बंद रखने के पश्चात् यह चारा अचार का रूप धारण कर लेता है, जो हरे चारे से बिल्कुल समान होता है। इसी को साइलेज कहते हैं। । पूरा गड्ढा न खोलकर, उसमें एक किनारे से ही साइलेज निकालनी चाहिए। ऐसा न करने से गड्ढे की साइलेज के सड़ने गलने का भय रहता हैं।
1. साइलेज बनकर तैयार हो जाती है अच्छी बनी साइलेज का रंग बादामी हरा होना चाहिये ओर इसमें अच्छी गंध आनी चाहिये। जिसमें स्पष्ट अम्लत्व की गंध तथा स्वाद हो, ब्युटायरिक अम्ल तथा फफूंदी बिल्कुल न हो। इसका पी.एच. ३.५ से ४.२ हो और १० प्रतिशत से कम अमोनिया नाइट्रोजन इसमें उपस्थित हो।
साइलेज बनाने से लाभ :-
कुछ फसलें जिनमें कि अंतिम अवस्था में कीड़े लगने का भय रहता है, फूलते समय साइलेज के लिये कट जाने पर यह भय दूर हो जाता हैं।
साइलेज सूखे चारे की अपेक्षा थोड़े स्थान में ही रखी जा सकती है, इस प्रकार स्थान की बचत होती हैं।
हरे चरे अपनी पौष्टिक अवस्था में काफी समय सुरक्षित रखे जा सकते हैं, जो जाड़े के मौसम एवं चारे के आभाव में पशुओं को खिलाये जाते हैं।
साइलेज खिलाने से दाने की बचत होती हैं।
बरसात के मौसम में उगे हुए चारे, जो कुछ समय के बाद बेकार हो जाते है, इस ढंग से कुसमय के लिये सुरक्षित रखे जा सकते हैं।
जिस भूमि पर साइलेज के लिये फसल बोई गई हो, वह भूमि फसल कट जाने पर रबी बोने के लिये प्रयुक्त हो सकती हैं। इस प्रकार भूमि को खाली कर दूसरी फसल देने के काम में की जा सकती हैं।
बीजयुक्त मिली-जुली घास-पात जो ’हे’ बनाने के लिये उपयुक्त नहीं होती, अच्छी प्रकार की साइलेज में परिणित हो सकती हैं।
मानसून के समय में जबकि घास का सुखाना काफी कठिन होता है, साइलेज आसानी से बनाई जा सकती हैं।
एक बार जो पशु साइलेज खा लेता है, वह उसे बार-बार खाना पसंद करता है, क्योंकि यह बहुत स्वादिष्ट होती है।
साइलेज अधिक पाचक एवं पौष्टिक् होने के कारण पशु को अधिक स्वस्थ एवं उत्पादक बनाने में सहायक होती है।
डेरी गायों के लिये साइलेज मुख्य रूप से एक बहुत अच्छा चारा है, क्योंकि इसे खिलाने से उनका दूध बढ़ता हैं।
बादामी साइलेज – यदि चारे के गड्ढे मे पैकिंग ठीक प्रकार नहीं होती तो उसमें उपस्थित वायु के कारण किण्वन होने पर तापक्रम अधिक बढ़ जाता हैं, जिसके फलस्वरूप ऐसी साइलेज बन जाती है इसमें ऑक्सीकरण होने के कारण आवष्यक तत्वों का ह्रास हो जाता है।
1. हल्की बादामी या पीली बादामी साइलेज- यह उन कच्ची फसलों से तैयार होती है, जिनमें शुष्क पदार्थ की मात्रा ३० प्रतिशत होती है। इसमें तापक्रम १००० फारेनहाइट से अधिक नहीं होने पाता। चूंकि पशु इसको बड़े चाव से खाते हैं, अतः यह सर्वोत्तम साइलेज मानी जाती हैं।
2. हरी साइलेज – इस प्रकार की साइलेज बनाने में तापक्रम 90 फारेनहाइट से अधिक नहीं होने पाता। इनमें कैरोटीन की मात्रा भी काफी होती है। चूंकि तापक्रम कम रखा जाता है, अतः पोषक तत्व भी अधिक नष्ट नहीं होते। इसमें पशुओं को लुभाने वाली महक आती है, जिससे वे इसे खूब चाव से खाते हैं।
3. खट्टी साइलेज – जब अधपकी हरी फसलें साइलेज बनाने के लिये प्रयुक्त होती हैं, तो वे गड्ढे की तली में दबकर बैठ जाती है तथा बहुत कम हवा अपने में शोषित कर पाती है। अतः किण्वन भली-भांति न होकर तापक्रम भी कम रह जाता है। इस प्रकार बनी हुई साइलेज अधूरी रह जाती है और खाने में इसका स्वाद खट्टा होता हैं।