लाभप्रदता के लिए आवश्यक है डेयरी पशुओं में रिपीट ब्रीडिंग का समाधान

0
781

लाभप्रदता के लिए आवश्यक है डेयरी पशुओं में रिपीट ब्रीडिंग का समाधान

के.एल. दहिया

पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, कुरूक्षेत्र, हरियाणा।

बेशक, कृषि एक मुख्य व्यवसाय है लेकिन कृषि के साथ पशुपालन करना आदिकाल से प्रचलित है। कृषि और पशुपालन एक–दूसरे के पूरक हैं। पशुओं खासतौर से नर पशुओं का खेती के कार्य करने और उनके चारे के लिए खेतों में चारा उत्पादन सहस्त्राब्दियों से प्रचलित है। दुधारू पशुओं द्वारा उत्पादित दूध का उपयोग मानवीय आहार के रूप में किया जाता है। भारत में 2018–19 में 187.75 मीट्रिक टन दूध का उत्पादन हुआ और इसी के साथ भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दुग्ध उपलब्धता 394 मि.ली. है (PIB 2019)। भारत में लगभग 96 प्रतिशत दूध गायों और भैंसों द्वारा उत्पादित किया जाता है (Rani et al. 2018)।

डेयरी पशुओं में पशुओं की प्रजनन क्षमता पशुपालकों की आय का प्रमुख निर्धारक है जिसका आंकलन डेयरी पशुओं में मादा द्वारा प्रतिवर्ष एक संतान पैदा करने की क्षमता से किया जाता है। उन्नत पशुपालन व्यवसाय के लिए यह आवश्यक है कि दुधारू मादा समय पर मद में आए और गर्भधारण कर ले। दुधारू पशुओं में प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने वाले कई कारणों में से रिपीट ब्रीडिंग है जिसे हिन्दी में पुनरावृन्त प्रजनन, सामान्य बोलचाल की भाषा में बार–बार फिरना, गर्भ न ठहरना भी कहा जाता है। पशुपालकों तथा कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियनों के लिये प्रजनन की यह समस्या अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं ज्वलन्त है क्योंकि इससे पशुपालकों को गाय/भैंस के गर्भ धारण न कर पाने के कारण आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। यह समस्या न केवल दुग्ध उत्पादन को कम करती है, बल्कि गाय/भैंस से प्राप्त होने वाली संतान की संख्या को भी कम करती है। इसके साथ ही डेयरी पशुओं का शुष्क काल बढ़ने से अतिरिक्त चारे एवं आहार से भी पशुपालकों को अर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।

रिपीट ब्रीडिंग क्या है?

यदि गाय/भैंस मद में आने पर गर्भाधान कराने के बाद 21 दिनों में दोबारा से मद में आ जाती है तो यह पशुपालकों के लिए चिंता का विषय बन जाता है। रिपीट ब्रीडिंग ऐसी समस्या है जिसमें गाय/भैंस तीन या तीन से अधिक बार गर्भाधान कराने के बावजूद भी गर्भधारण नहीं कर पाती तथा अपने नियमित मदचक्र में बनी रहती है। सामान्य परीक्षण के दौरान वह लगभग निरोगी लगती है और कारण का पता लगाना भी मुश्किल होता है। ऐसे पशुओं को रिपीट ब्रीडर अथवा पुनरावृन्त प्रजनक कहते हैं और ऐसे पशुओं की इस समस्या को रिपीट ब्रीडिंग अर्थात पुनरावृन्त प्रजनन कहते हैं।

रिपीट ब्रीडिंग की दर एवं आर्थिक नुकसान

विभिन्न शोधों के अनुसार गायों एवं भैंसों में रिपीट ब्रीडिंग की समस्या की दर 5 से 35 प्रतिशत पशुओं में पायी जाती है (Purohit 2008)। गायों की तुलना में भैंसों में रिपीट ब्रीडिंग की समस्या कम होती है, फिर भी विभिन्न शोधों के अनुसार, भैंसों में यह समस्या 0.70 से 30.0 प्रतिशत तक पायी गई है (Saraswat and Purohit 2016)। डेयरी पशुओं में रिपीट ब्रीडिंग की समग्र दर 6.64 प्रतिशत दर्ज की गई है (Khaja et al. 2012)। एक शोध के अनुसार एक डेयरी गाय एवं भैंस के पालने का प्रति दिन का खर्च क्रमशः लगभग 50 एवं 60 रूपये आता है (Singh et al. 2017)। यदि एक गाय/भैंस केवल एक बार ही रिपीट होती है तो उसका शुष्क काल बढ़ने के साथ–साथ, 1050/1260 अर्थात मोटे से तौर पर लगभग 1150 रूपये का अतिरिक्त आर्थिक नुकसान 21 दिनों में होता है। भारत में 20वीं पशुधन गणना के अनुसार 12.575 करोड़ गायें एवं भैंसें (दुधारू एवं शुष्क) हैं (GOI 2019)। अब यदि इन दुधारू एवं शुष्क गायों-भैंसों में से लगभग 10 प्रतिशत अर्थात 125.75 लाख ही केवल एक बार रिपीट होती हैं तो लगभग 2640.75 करोड़ रूपये का नुकसान 21 दिन में चारे पर खर्च के रूप में हो जाता है जो कि राष्ट्र को प्रत्यक्षतौर पर एक बहुत बड़ा आर्थिक नुकसान है।

रिपीट ब्रीडिंग समूहीकरण

गर्भाधान के बाद डिंबाशय (ओवरी) में बनने वाले उचित आकार और क्रियाशील कोर्पस लुटियम से उचित मात्रा में प्रोजेस्टेरोन हॉर्मोन स्त्रावित होने से ही गर्भधारण होता है। लेकिन रिपीट ब्रीडिंग से प्रभावित पशुओं में कोर्पस लुटियम का आकार और क्रियाशीलता सामान्य से कम होने की स्थिति में गर्भधारण के लिए प्रोजेस्टेरोन हॉरमोन कम मात्रा में स्त्रावित न होने के कारण गर्भ नहीं ठहरता है। गाय एवं भैंसों में मदचक्र 21 दिन का होता है। गर्भाधान करने के बाद कुछ मादाएं 21 दिन से पहले और कुछ 21 दिन बाद मद में आती हैं। हालांकि, बहुत से शोधों में गर्भाधान के बाद भ्रूण मृत्यु की समयावधि तो व्यक्त की गई है लेकिन आसान भाषा में अभी तक यह परिभाषित नहीं है कि भ्रूण मृत्यु 21 दिन से पहले या बाद मद में आने वाली गाय/भैंस को किस श्रेणी में रखा जाये। अतः सुविधानुसार ऐसी मादाओं को दो समूहों में बांटा जाता है, जो इस प्रकार हैं:

  1. अर्ली रिपीटर्स: प्राकृतिक या कृत्रिम गर्भाधान के बाद 17 से 24 दिनों के अंदर निषेचन विफलता या प्रारंभिक भ्रूण की मृत्यु के कारण मादा दोबारा से मद के लक्षण परिलक्षित करती है। इस दौरान भ्रूण की मृत्यु होने पर मदावस्था की अवधि प्रभावित नहीं होती है और न ही गर्भपात के लक्षण दिखायी देते हैं। ऐसे पशुओं में 21 दिन पर ही मद के लक्षण दिखायी देते हैं और मादा दोबारा से मद में आ जाती है जिसके निम्नलिखित संभावित कारण हैं:
    • निषेचन विफलता: आमतौर पर यह पाया गया है कि किसी भी कारण से कमजोर डिंब (ओवम) के निषेचन से बने भ्रूण के सफल विकास की संभावना कम होती है (Hansen 2002)।
    • प्रारंभिक भ्रूण मृत्यु: डिंब के शुक्राणु द्वारा निषेचित होने के बाद बनने वाला प्रारंभिक भ्रूण गर्भाशय में प्रवेश करने पर 6-7 दिन बाद ब्लास्टोसिल बनने की प्रक्रिया से गुजरता है। यह समयावधि बहुत ही नाजुक होती है और इसी दौरान सबसे अधिक भ्रूण मृत्यु होने की संभावना होती है (Shelton et al. 1990)। गर्भाधान एवं निषेचन के बाद गर्भावस्था के सरंक्षण के लिए कॉर्पस लुटियम द्वारा प्रोजेस्टेरोन हॉर्मोन का संश्लेषण आवश्यक होता है। लेकिन कॉर्पस लुटियम के उचित आकारावस्था में न बन पाने के कारण प्रोजेस्टेरोन हॉर्मोन उचित मात्रा में स्त्रावित न होने से प्रारंभिक अवस्था में ही भ्रूण की मृत्यु हो जाती है (Helmer et al. 1989)।

स्पष्ट रूप से सामान्य स्वस्थ पशुओं में 20–50 (31.6) प्रतिशत भ्रूण मृत्यु के कारण रिपीट ब्रीडिंग की समस्या पायी जाती है (Arthur et al. 1989, Humblot 2001)। इसका मतलब है कि प्रत्येक गर्भाधान के बाद औसतन 20–50 प्रतिशत मादाएं मद में लौट आती हैं। कई पर्यावरणीय कारकों जैसे कि पोषण, जलवायु, आंतरिक पशु कारकों को पशुओं में प्रारंभिक भ्रूण हानि का कारण बताया जाता है (Ayalon 1978, Pope 1988, Thatcher et al. 1994)।

  1. लेट रिपीटर्स: ऐसी मादाओं में गर्भाधान के 24–54 दिन के बीच भ्रूण मृत्यु होने पर कॉर्पस लुटियम का आकार छोटा होने से मादाओं में मद के लक्षण दिखायी देते हैं। आमतौर पर 24 से 35 दिन के बीच भ्रूण मृत्यु होने पर गर्भपात के लक्षण दिखायी नहीं देते हैं लेकिन 35 से 54 दिन के बीच गर्भित मादाओं में भ्रूण और जेर बन जाती है जिस कारण गर्भपात के लक्षण भी स्पष्ट दिखायी देते हैं। हालांकि, अर्ली रिपीटर्ज की तुलना में लेट रिपीटर्ज में भ्रूण हानि की दर कम अर्थात 14.7 प्रतिशत है (Humblot 2001) लेकिन यह अधिक आर्थिक नुकसान का कारण बनती है (Grimard et al. 2006), क्योंकि आमतौर पर ऐसी गायों/भैंसों के दोबारा गर्भ ठहरने में बहुत देरी हो जाने से उनके पालन–पोषण का खर्च बढ़ जाता है।

रिपीट ब्रिडिंग के कारण

रिपीट ब्रीडिंग के कारण पशुपालकों को दैनिक नुकसान उठाना पड़ता है। अतः पशुपालकों को रिपीट ब्रीडिंग के समाधान के लिए इसके कारणों का विस्तारपूर्वक ज्ञान होना अतिआवश्यक है जो इस प्रकार हैं:

  1. आनुवंशिक कारण: भ्रूण की मृत्यु के आनुवांशिक कारणों में क्रोमोसोमल दोष, व्यक्तिगत जीन और आनुवंशिक प्रभाव शामिल हैं (VanRaden & Miller 2006)। क्रोमोसोमल दोष पशुओं में प्रारंभिक गर्भावस्था के नुकसान का प्रमुख कारण हैं (King 1990)। निषेचन के समय अगुणित पैतृक गुणसूत्र सेट के युग्मन के दौरान कई प्रकार की असमानताएं हो सकती हैं, जो बाद में भ्रूण के लिए घातक होती हैं। क्रोमोसोमल असामान्यताएं एक से अधिक शुक्राणुओं (पॉलीस्पर्मिया) द्वारा डिंब में प्रवेश होने से उत्पन्न हो सकती हैं। गुणसूत्र असामान्यताएं, कुल भ्रूण हानि का लगभग 20% कारण हो सकती हैं (King 1990)।
  2. प्रजनन तंत्र के विकार: मादा पशु की प्रजनन नली में वंशानुगत, जन्म से अथवा जन्म के बाद होने वाले कई विकार ऐसे हैं जो गर्भधारण में समस्या पैदा करते हैं। प्रजनन नली के अंगों में किसी एक खंड का न होना, डिंबाशय का झल्लरिका (फिम्ब्रीया) के साथ जुड़ जाना, डिंबाशय में रसौली, गर्भाशय ग्रीवा का टेढ़ा होना (किंक्ड सर्विक्स), डिंब वाहिनियों में रूकावट, गर्भाशय की अंतर्गर्भाशयकला (एंडोमेट्रियम) में विकार होने से गाय/भैंस में गर्भधारण न होने की समस्या पायी जाती है।
  3. आंतरिक प्रजनन (इनब्रीडिंग): आनुवंशिक कारणों के अलावा, कई प्रजनन विशेषताएं इनब्रीडिंग से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती हैं। भ्रूण अस्तित्व में आनुवंशिक परिवर्तन, भ्रूण में ही या एक उपयुक्त अंतर्गर्भाशय वातावरण प्रदान करने की क्षमता के संबंध में मादाओं के बीच अंतर आनुवंशिक संघटन के कारण हो सकता है। निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि एक ही कुल के पशुओं का आपस में प्रजनन करवाने से उनकी प्रजनन क्षमता कम होती है (Cassell et al. 2003, VanRaden & Miller 2006)।
  4. आयु एवं ब्यांत: रिपीट ब्रीडिंग का एक कारक मादा पशु की उम्र है जो गर्भाधान और भ्रूण के जीवित रहने की दर में उतार-चढ़ाव के लिए जिम्मेदार है। बड़ी उम्र की गायों की तुलना में ओसर मादाओं (हिफर्ज) में गर्भाधान का प्रतिशत अधिक होता है (Kuhn et al. 2006)। रिपीट ब्रीडिंग के संबंध में विभिन्न शोधों की भिन्न-भिन्न टिप्पणियां हैं। कुछ शोधों के अनुसार यह समस्या पहले ब्यांत के पशुओं में कम है (Yusuf et al. 2012, Crive et al. 2019) तो कुछ के अनुसार दूसरे, तीसरे और चौथे ब्यांत (Bonneville-Hébert et al. 2011) में सबसे अधिक पायी जाती है। लेकिन फिल्ड लेवल पर आमतौर पर यह पाया जाता है कि जैसे-जैसे पशु की ब्यांत संख्या बढ़ती है तो उनमें रिपीट ब्रीडिंग की समस्या भी बढ़ती है।
  5. पशु प्रजाति: रिपीट ब्रीडिंग की समस्या पशु की प्रजाति पर भी निर्भर करती है। शोध के अनुसार भारत में संकर नस्ल की गायों में 17.57 प्रतिशत, भैंसों में 12.74 प्रतिशत और देशी गायों में 8.64 प्रतिशत पशुओं में कठिन प्रसव, जेर रूकना, गर्भाशयशोथ, अंतःगर्भाशयशोथ एवं गर्भाशय में मवाद (पायोमेट्रा) के कारण रिपीट ब्रीडिंग की समस्या पायी जाती है (Verma et al. 2018)।
  6. मौसम एवं वातावरण का प्रभाव: भारत ऋतुओं का देश है। जैसे-जैसे वातावरण का तापमान बढ़ता है तो डेयरी पशुओं, खासतौर से भैंसों में प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल रूप से प्रभाव दिखायी देने लगता है। आमतौर पर यह देखने में आता है कि भारत में रिपीट ब्रीडिंग की समस्या बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत एवं शिशिर ऋतुओं में घटते क्रम में प्रभावित करती हैं। अर्थात रिपीट ब्रीडिंग की सबसे अधिक समस्या बसंत ऋतु में, जबकि शिशिर ऋतु में सबसे कम पायी जाती है। हवा का तापमान एवं गति, सापेक्ष आर्द्रता, सौर विकिरण, और वायुमंडलीय दबाव, पशुधन को प्रभावित करने वाले मुख्य प्राकृतिक भौतिक पर्यावरणीय कारकों में शामिल हैं।
READ MORE :  DOUBLING OF FARMERS INCOME THROUGH SELECTION OF DAIRY COW

बसंत ऋतु में प्रकाश अवधि और तापमान की भिन्नता को समस्या का कारण माना जाता है जो पशुओं में मदचक्र के अंतःस्रावी विनियमन (एंडोक्राइन रेगुलेशन) को प्रभावित करते हैं (Crivei et al. 2019)। गर्मी के मौसम में उष्मीय तनाव के कारण मद के लक्षण और तीव्रता में कमी होने से पशुओं में मौन मदकाल होता है जिससे गर्भधारण करने की क्षमता पर कुप्रभाव पड़ता है (Khan et al. 2016, Verma et al. 2018, Crivei et al. 2019)। हेमंत ऋतु में पशुओं के उष्णीय आराम (थर्मल कम्फर्ट) में होने से रिपीट ब्रीडिंग की समस्या कम देखने में आती है (Crivei et al. 2019)।

भैंस को एक मौसमी प्रजनन प्रजाति माना जाता है और मादाओं में दिन की बढ़ती अवधि के साथ–साथ ग्रीष्म ऋतु के दौरान उनकी प्रजनन में कमी देखने को मिलती है (Perera 2008, Verma et al. 2018)। भैंसों में, वर्ष के ठण्डे मौसम के दौरान सबसे अधिक प्रजनन क्षमता पायी जाती है।

  1. दुग्धोत्पादन: अधिक दुग्धोत्पादन करने वाले पशुओं में दुग्धकाल के समय प्रजनन क्षमता कम पायी जाती है। ऐसे पशुओं में निषेचन दर, खासतौर से गर्मी के मौसम में सबसे कम होती है (Butler 2000, Cerri et al. 2009)।
  2. मद की सही पहचान न होना: गर्भधारण ठहरना मादा द्वारा प्रदर्शित मद के लक्षणों पर निर्भर करने के साथ-साथ पशुपालक के ज्ञान पर भी निर्भर करता है। यदि पशुपालक को मद के सही लक्षणों का ज्ञान नहीं है तो उसके पशुओं में आमतौर पर प्रजनन की समस्या पायी जाती है। यदि मादा को उसके प्रारंभिक मदकाल में ही गर्भाधान करवाया जाता है तो डिंबोत्सर्जन के समय तक शुक्राणु निश्चिल हो जाते हैं। इसी प्रकार काफी देरी से अथवा मदकाल के समाप्त होने पर गर्भाधान करवाने के कारण डिंब का निषेचन योग्य समय निकल जाने से रिपीट ब्रीडिंग की समस्या बढ़ जाती है।
  3. मौन मदकाल: आमतौर पर मदकाल के समय मादाएं रंभाना, योनि से तरल स्राव, खाना-पीना एवं दुग्ध उत्पादन कम करना, दूसरे पशुओं पर चढ़ना इत्यादि विशेष लक्षण प्रदर्शित करती हैं लेकिन मौन मदकाल के कारण पशुपालक की मादाओं के सही मदकाल का पता नहीं चल पाता है और समय पर गर्भाधान न होने के कारण रिपीट ब्रीडिंग से पीड़ित हो जाती हैं। मौन मदकाल की दर संगठित डेरी फार्म एवं ग्रामीण क्षेत्रों में क्रमश: 10-12 एवं 30-60 प्रतिशत तक है (अर्चना एवं अन्य 2012)।
  4. पोषण संबंधी कारण: ब्याने के बाद, दुधारू पशुओं में दुग्ध उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ पोषक तत्वों की आवश्यकता भी उल्लेखनीय रूप से बढ़ जाती है जो आमतौर पर आहारीय सेवन से भी अधिक होती है। इसके परिणामस्वरूप, नकारात्मक ऊर्जा संतुलन की स्थिति पैदा होती है। इस अवधि के दौरान, शारीरिक रखरखाव और दुग्ध उत्पादन के लिए शरीर में मौजूद ऊर्जा के भण्डारण का इस्तेमाल होता है। इसीलिए, अधिक दूध देने वाले पशुओं में शरीर में नकारात्मक ऊर्जा होने से प्रजनन क्षमता में कमी हो जाती है (Nebel and McGilliard 1993)। नकारात्मक ऊर्जा के कारण शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी हो जाती है जिससे गर्भाशयशोथ एवं संक्रमण की दर बढ़ने से प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है (Rani et al. 2018)।

रक्त में इंसुलिन की उच्च परिसंचारी सांद्रता डिंब की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालती है (Garnsworthy et al. 2008)। दूधारू पशुओं को ग्लूकोजेनिक-लिपोजेनिक आहार खिलाने से प्रजनन में कुछ लाभदायक प्रभाव होते हैं (Garnsworthy et al. 2009, Friggens et al. 2010)। लिपोजेनिक आहार, प्रीवोवुलेटरी फॉलिकल से इस्ट्राडाइऑल बढ़ाता है, बशर्ते कि प्रोजेस्टेरोन उत्पादन और ब्लास्टोसिस्ट विकास दर के लिए पशु को आहर दिया गया है, जो भ्रूण मृत्यु दर को कम करता है (Leroy et al. 2008)। इसके अलावा, सांद्र पूरक (कंसनट्रेट) आहार खिलाने के परिणामस्वरूप दुग्ध उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ यकृत रक्त प्रवाह और प्रोजेस्टेरोन हॉर्मोन की चपापचय वृद्धि होने से भ्रूण मृत्यु दर बढ़ने का जोखिम बढ़ जाता है (Sangsritavong et al. 2002)।

  1. आसन्न-प्रसवा विकार: दुग्ध ज्वर और किटोशिश जैसे चपापचयी विकारों से प्रभावित होने की स्थिति में दुधारू पशुओं में गर्भाधान अवधि से पहले मदचक्रों की संख्या में कमी होने से सामान्य प्रजनन क्षमता प्रभावित हो सकती है (Crivei et al. 2019)। चपापचयी विकार, कठिन प्रसव और जेर रूकने के कारण गर्भाशयशोथ, सबसे महत्वपूर्ण विकारों में से एक है, जो लंबे समय तक प्रसव के बाद गर्भाधान का समय अधिक होने से दो ब्यांत के बीच बढ़ते अंतराल के कारण बहुत अधिक आर्थिक हानि का कारण बनता है, जिसके परिणामस्वरूप मादा पशुओं का प्रतिस्थापन (रिप्लेस्मेंट) बढ़ जाता है।
  2. गर्भाशय संक्रमण: गर्भाशय और डिंबवाहिनियों का संक्रमण गर्भाशय रोगजनकों के कारण हो सकता है। यह संक्रमण, विशिष्ट और गैर-विशिष्ट, दो प्रकार का होता है।
    • विशिष्ट संक्रमण: विशिष्ट गर्भाशय संक्रमण कई प्रकार के वायरस, बैक्टीरिया और प्रोटोजोआ के कारण होता है। ये सूक्ष्मजीव रक्त संचार या गर्भाधान के समय योनि के माध्यम से गर्भाशय में प्रवेश करते हैं। प्राकृतिक गर्भाधान के समय ये सूक्ष्मजीव आसानी से सांड से मादा या मादा से सांड में पहुंच जाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप संक्रमित मादाओं में भ्रूण मृत्यु, बांझपन या गर्भपात की समस्या देखने को मिलती है। कुछ मादाओं में गर्भाधान के बाद गर्भाशय में मवाद भी हो जाती है (Rani et al. 2018)।
    • गैर-विशिष्ट संक्रमण: गैर-विशिष्ट रोगजनक मुख्य रूप से जीवाणु होते हैं जो पशु के बीमार होने के दौरान या गर्भाधान के समय गर्भाशय में प्रवेश करते हैं। कृत्रिम गर्भाधान के समय योनि या वीर्य में मौजूद एच्छिक जीवाणु गर्भाशय संक्रमण का कारण हो सकते हैं जो गर्भधारण क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं। कभी-कभी इनके कारण गर्भाशयशोथ भी हो जाती है। इनके कारण, गर्भाशय में भ्रूण के पहुंचने से पहले ही सूजन हो जाती है (Rani et al. 2018)।
READ MORE :  समेकित कृषि प्रणाली: टिकाऊ पशुपालन तथा कृषि उत्पादन का जरिया

संक्रामक रोगों में ट्रायकोमोनास फीटस, विब्रियो फीटस, ब्रुसेलोसिस, आई.बी.आर-आई.पी.वी., कोरिनीबैक्टेरियम पायोजनीज तथा अन्य जीवाणु व विषाणु शामिल हैं। इस रोगों के कारण गर्भाशय में सूजन हो जाती है जिससे भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में ही मृत्यु हो जाती है।

  1. अंत:स्रावी विकार: डिंबोत्सर्जन के बाद डिंब डिंबवाहिनी में प्रवेश करता है जहाँ पर उसका शुक्राणु द्वारा निषेचन होता है। इसी के साथ डिंबग्रंथि में डिंबोत्सर्जन वाले स्थान पर कोर्पस लुटियम बनता है जिसका मुख्य कार्य प्रोजेस्टेरोन हॉर्मोन बनाना होता है। यह हॉर्मोन प्रारंभिक भ्रूण के लिए उचित वातावरण बनाने के साथ-साथ उसका पोषण भी करने सहायक होता है जिसकी उचित मात्रा में स्रवण न होने कारण प्रारंभिक भ्रूण की मृत्यु हो सकती है और रिपीट ब्रीडिंग का कारण बनता है। डिंबोत्सर्जन न होना, फोलिकुलर अध:पतन, डिंबोत्सर्जन में देरी रिपीट ब्रीडिंग के अन्य कारणों में से हैं।
  2. सांड से संबंधित कारक: सांड और वीर्य से संबंधित कारकों के कारण भी रिपीट ब्रीडिंग हो सकती है। सांडों के बीच प्रजनन भिन्नता पायी जाती है जो मादाओं की गर्भाधान दर को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण निर्धारक प्रतीत होता है। सांड की आयु, वीर्य की मात्रा और विकृत शुक्राणुओं के अनुपात को प्रभावित करती है। व्यस्क सांडों में वीर्य की मात्रा अधिक, जबकि सबसे कम विकृत शुक्राणु होते हैं। सांड की नस्ल का भी वीर्य की गुणवत्ता और गर्भाधान दर पर प्रभाव पड़ता है (Saraswat & Purohit 2016)। इसके अलावा सांडों में संक्रामक रोगाणु प्रारंभिक भ्रूण मृत्यु और मादाओं में रिपीट ब्रीडिंग का एक संभावित कारण हो सकते हैं।
  3. अकुशल कृत्रिम गर्भाधान: पशुधन में कृत्रिम गर्भाधान के बढ़ते उपयोग के साथ-साथ उच्च प्रजनन दर के लिए गर्भाधान तकनीक, गर्भाधान का समय और गर्भाशय में वीर्यरोपण का स्थान आदि भी महत्वपूर्ण है। गर्भाधान तकनीशियनों के बीच गर्भाधान दर में काफी भिन्नता पायी जाती है (Thirunavukkarasu & Kathiravan 2009) और मद के सापेक्ष 30 प्रतिशत से भी अधिक पशुओं में गलत गर्भाधान किया जाता है (Sharma et al. 2008) जिसकी प्रवृति लगातार बढ़ रही है।
  4. जागरूकता एवं प्रशिक्षणों की कमी: हालांकि, पशुपालन विभाग समय-समय पर पशुपालकों का ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है लेकिन पशुपालकों की अधिक रूचि दवाई लेने में होती है न कि ज्ञान अर्जित करने में। अतः ज्ञानोपार्जन की रूचि न होने के कारण वे इन शिविरों का उचित लाभ नहीं उठा पाते हैं। इसी प्रकार विभागीय कर्मचारियों का कौशल बढ़ाने के लिए भी समय-समय पर विशेष प्रशिक्षणों का आयोजन किया जाता है लेकिन अपंजीकृत तकनीशियन भी गैर कानूनी रूप से कृत्रिम गर्भाधान के कार्य में हैं जिनके लिए देश में कोई भी रोक-टोक नहीं है जो पशुओं में रिपीट ब्रीडिंग का एक मुख्य कारक हैं।

उपचार निवारण

प्रजनन क्षमता आनुवंशिकी व गैर आनुवंशिकी कारकों द्वारा नियन्त्रित एक जटिल घटनाक्रम है। प्रजनन क्षमता न केवल प्रजातियों व नस्ल के बीच, बल्कि एक नस्ल के पशुओं के बीच भी बदलती है। यहाँ तक कि अच्छा खान-पान व प्रबन्धन भी एक निम्न आनुवंशिकी वाले पशु की उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ा सकते हैं। डेयरी पशुओं में प्रजनन क्षमता को बढ़ाने के लिए सभी स्तरों पर उनकी आनुवंशिक गुणों में सुधार करना महत्त्वपूर्ण है। एक सही प्रजनन कार्यक्रम, पशु उत्पादन प्रणाली का एक जरूरी हिस्सा है। पशुओं की उत्पादन क्षमता व शारीरिक स्वरूप में सुधार लाना बहुत जरूरी है।

  1. रिपीट ब्रीडर पशुओं में सही समस्या का पता लगाने के लिए पशु चिकित्सक से ही परीक्षण व उपचार कराना चाहिए। ऐसे पशुओं को कई बार परीक्षण के लिये बुलाना पड़ सकता है क्योंकि एक बार पशु को देखने से पशु चिकित्सक का किसी खास नतीजे पर पहुंचना कठिन होता है। डिंबग्रंथि से डिंब निकलता है या नहीं, इसका पता पशु के मदकाल में तथा 10 दिन बाद पुन: परीक्षण करके लगाया जा सकता है। दस दिन के बाद परीक्षण करने पर पशु की और भी बहुत सी बीमारियों का पता पशु चिकित्सक लगा सकते हैं। अत: पशु चिकित्सक की सलाह पर पशुओं को परीक्षण तथा इलाज के लिये अवश्य दिखाना चाहिये।
  2. आमतौर पर आनुवंशिक कारणों और प्रजनन तंत्र के विकारों का कोई ठोस हल नहीं होता है और ऐसी मादाएं रिपीट ब्रीडिंग एवं बांझपन से पीड़ित ही रहती हैं।
  3. मादा पशुओं में इनब्रीडिंग करवाने से बचना चाहिए।
  4. मादा के मदकाल का पशुपालक को विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए उसे पशु में मद के लक्षणों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है ताकि सही मदावस्था में गर्भाधान कराया जा सके। सही मदावस्था में न होने की दिशा में उसका जबरदस्ती गर्भाधान नहीं कराना चाहिए तथा कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन को भी अनावश्यक रूप से पशु ‌‌‌का गर्भाधान ‌‌‌नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे रिपीट ब्रीडर की संख्या बढ़ती है और पशु को कई और बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता है।
  5. पशुपालकों को हर उम्र के पशुओं के ‌‌‌आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कुपोषण के शिकार पशु की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। पशुओं को आवश्यकतानुसार हरा और सूखा चारा देने के साथ-साथ खनिज मिश्रण और विटामिन्स आदि भी खिलाने चाहिए। आसन्न-प्रसवा पशुओं को चपापचयी विकारों से बचाने के लिए विशेष खानपान और रखरखाव पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
  6. मौसमी प्रभाव को कम करने के लिए पशुओं का रखरखाव सही रखना चाहिए।
  7. मदकाल में पशु के गर्भाशय से ‌‌‌श्लेश्मा एकत्रित कर सी.एस.‌‌‌टी. परीक्षण कराया जा सकता है जिससे गर्भाशय के अंदर रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं का पता लग जाता है तथा उन पर असर करने वाली दवा भी ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार उस दवा के ‌‌‌प्रयोग से गर्भाशय के संक्रमण को नियन्त्रित किया जा सकता है।
  8. डिंब वाहिनियों में अवरोध रिपीट ब्रीडिंग का एक मुख्य कारण है, जिसका पता एक विशेष तकनीक, जिसे मोडिफाइड फेनॉल सल्फोप्थेलिन टेस्ट कहते हैं, द्वारा लगाया जा सकता है। इस टेस्ट के दौरान फेनॉलप्थेलिन डाई को प्रभावित गर्भाशय में डाला जाता है और 30 मिनट बाद इस डाई को पेशाब में टेस्ट किया जाता है। यदि डाई पेशाब में नहीं पाई जाती है तो उस मादा पशु की डिंब वाहनियों में अवरोध होता है।
  9. देरी डिंबोत्सर्जन में 24 घंटे के अंतराल पर 2–3 बार गर्भाधान कराने से अच्छे ‌‌‌परिणाम मिलते हैं।
  10. अंत:स्रावी विकारों के लिए कुछ विशेष हारमोन्स जी.एन.आर.एच. आदि लगाए जाते हैं।
  11. रिपीट ब्रीडर पशु को गर्भाशय ग्रीवा (सर्विक्स) के मध्य में गर्भाधान करना उचित है क्योंकि कुछ पशुओं में गर्भधारण के बाद भी मदचक्र जारी रहता है।
  12. गर्भाधान से संबंधित नवीनतम जानकारी के लिए समय-समय पद गर्भाधान तकनीशियनों को प्रशिक्षण अवश्य दिया जाना चाहिए।
  13. पशुपालकों को विभाग द्वारा आयोजित जागरूकता एवं प्रशिक्षण शिविरों में अवश्य ही सकारात्मक भागीदारी निभानी चाहिए और नवीनतम जानकारी हासिल करनी चाहिए।

रिपीट ब्रीडिंग का घरेलू इलाज

बार गर्भाधान के बाद जो गाय/भैंस गर्भधारण नहीं कर पाती है तो पशुपालक उनको कुछ-न-कुछ घरेलू इलाज अवश्य देते हैं। अतः पशुपालक ऐसे पशुओं को मद चक्र के पहले या दूसरे दिन निम्नलिखित घरेलू उपचार गुड़ और नमक के साथ दिन में एक बार भी दे सकते हैं:

  • पहले चार दिन एक मूली (White radish) प्रतिदिन मादा पशु को खिलाएं।
  • 5 से 8 दिन: अगले चार दिन तक ग्वारपाठा (Aloe vera) का एक पत्ता प्रतिदिन खिलाएं।
  • 9 से 12 दिन: प्रतिदिन चार मुट्ठी सहजन (Moringa oleifera) के पत्ते खिलाएं।
  • 13 से 16 दिन: प्रतिदिन चार मुट्ठी हाड़जोड़ (Cissus quadrangularis) का तना खिलाएं।
  • 17 से 20 दिन: प्रतिदिन चार मुट्ठी कढ़ी पत्तों (Murraya koenigii) को थोड़ी सी (5 ग्राम) हल्दी के साथ मिलाकर खिलाएं।
READ MORE :  ALL INDIA ARTICLE WRITING COMPETITION FOR DR.C.M.SINGH EXCELLENCE AWARD 2021 TO BE GIVEN ON INDIAN VETERINARY DOCTOR’S DAY-30th NOVEMBER 2021

फिर भी यदि, मादा पशु ने गर्भ धारण नहीं किया है तो एक बार फिर से उपचार दोहराएं।

पशुपालक ऐसे पशुओं को एक रोटी पर लगभग 10 मि.ली. सरसों का तेल और 5 ग्राम हल्दी लगातार, दिन में एक बार, 7-10 दिन भी दे सकते हैं।

संक्षेप

इसमें कोई शक नहीं है कि रिपीट ब्रीडिंग के कारण राष्ट्र को व्यापक स्तर पर आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। इसका कोई कारगर समाधान भी नहीं है लेकिन पशुपालकों के ज्ञान एवं कौशल अर्जित करने से इस समस्या की दर को अवश्य कम किया जा सकता है। अतः पशुपालकों के लिए यह आवश्यक है कि पशुओं का उचित प्रबंधन और खानपान के साथ-साथ मादा पशुओं के मद चक्र और उसके मद के लक्षणों की पहचान कर उसको समय पर गर्भधारण करवाना चाहिए। और गर्भ न ठहरने की स्थिति में अपने पशु चिकित्सक की सेवाएं अवश्य प्राप्त करनी चाहिए।

जनन समस्याओं के लिए मुझे न करो बदनाम।

बेहतर रखरखाव हो तो करूंगी समय पर सब काम।।

बचपन से खिलाओ मुझे संतुलित आहार।

सही उमर में पहला बच्चा देकर लाऊंगी बहार।।

गर्मी में आने के मेरे हैं लक्षण तीन-चार।

बेचैनी, तार, रंभना, मूत्र बार-बार।।

दाना, चारा, तूड़ी में खनिज लवण का दो तड़का।

देरी से गर्भित होने का न हो कभी फड़का।।

बच्चा लेकर 60 दिन दो मुझको आराम।

फिर बनाओ अगला बच्चा लेने का प्रोग्राम।।

दो महीने के गर्भ की डाक्टर से कराओ जांच।

गर्भ खाली रहने की कभी न आए आंच।।

सस्ते और साधारण से ये नुस्खे अपनाओ।

समय पर मनवांछित बच्चा पाकर पूरा लाभ कमाओ।।

‌‌‌संदर्भ

  1. Arthur, G.H., Noakes, D.E. and Pearson, H. (1989). Veterinary Reproduction and Obstetrics. 7th, E.L.B.S. publication. p: 417.
  2. Ayalon, N., 1978. A review of embryonic mortality in cattle. Reproduction, 54(2), pp.483–493.
  3. Bonneville-Hébert, A., Bouchard, E., Tremblay, D.D. and Lefebvre, R., 2011. Effect of reproductive disorders and parity on repeat breeder status and culling of dairy cows in Quebec. Canadian Journal of Veterinary Research, 75(2), pp.147-151.
  4. Butler, W.R., 2000. Nutritional interactions with reproductive performance in dairy cattle. Animal reproduction science, 60, pp.449-457.
  5. Cassell, B.G., Adamec, V. and Pearson, R.E., 2003. Maternal and fetal inbreeding depression for 70-day nonreturn and calving rate in Holsteins and Jerseys. Journal of dairy science, 86(9), pp.2977-2983.
  6. Cerri, R.L., Rutigliano, H.M., Chebel, R.C. and Santos, J.E., 2009. Period of dominance of the ovulatory follicle influences embryo quality in lactating dairy cows. Reproduction, 137(5), pp.813-823.
  7. Crivei, I.C., Ruginosu, E., Sănduleanu, C., Borș, S.I., Bugeac, T., Dascălu, L.D. and Creangă, Ș., 2019. INCIDENCE OF REPEAT BREEDING SYNDROME IN HOLSTEIN FRIESIAN CATTLE. Lucrări Științifice-Universitatea de Științe Agricole şi Medicină Veterinară, Seria Zootehnie, (72), pp.33-37.
  8. GOI, 2019, 20th Livestock Census–2019, All India Report. Govt. of India. Ministry of Fisheries, Animal Husbandry & Dairying. Department of Animal Husbandry & Dairying. Animal Husbandry Statistics Division. Krishi Bhawan, New Delhi.
  9. Grimard, B., Freret, S., Chevallier, A., Pinto, A., Ponsart, C. and Humblot, P., 2006. Genetic and environmental factors influencing first service conception rate and late embryonic/foetal mortality in low fertility dairy herds. Animal reproduction science, 91(1-2), pp.31-44.
  10. Hansen, P.J., 2002. Embryonic mortality in cattle from the embryo’s perspective. Journal of Animal Science, 80(E–suppl_2), pp.E33–E44.
  11. Helmer, S.D., Hansen, P.J., Thatcher, W.W., Johnson, J.W. and Bazer, F.W., 1989. Intrauterine infusion of highly enriched bovine trophoblast protein-1 complex exerts an antiluteolytic effect to extend corpus luteum lifespan in cyclic cattle. Reproduction, 87(1), pp.89-101.
  12. Humblot, P., 2001. Use of pregnancy specific proteins and progesterone assays to monitor pregnancy and determine the timing, frequencies and sources of embryonic mortality in ruminants. Theriogenology, 56(9), pp.1417-1433.
  13. Khaja, M., Dhabale, R.B., Prakash, N., Tandle, M.K. and Basawaraj, A., 2012. Incidence of repeat breeding in cattle of Bidar taluka Karnataka, India. International Journal for Agro Veterinary and Medical Sciences (IJAVMS), 6(1), pp.11–13.
  14. Khan, A., Mushtaq, M.H., Hussain, A., Khan, A., Khan, A. and Nabi, H., 2016. Incidence of repeat breeding in varying breeds of buffaloes and cattle in different climatic conditions in Khyber Pakhtunkhwa (Pakistan). Buffalo Bulletin, 35(3), pp.445-454.
  15. King, W.A., 1990. Chromosome abnormalities and pregnancy failure in domestic animals. In Advances in veterinary science and comparative medicine (Vol. 34, pp. 229-250). Academic Press.
  16. Kuhn, M.T., Hutchison, J.L. and Wiggans, G.R., 2006. Characterization of Holstein heifer fertility in the United States. Journal of Dairy Science, 89(12), pp.4907-4920.
  17. Nebel, R.L. and McGilliard, M.L., 1993. Interactions of high milk yield and reproductive performance in dairy cows. Journal of dairy science, 76(10), pp.3257-3268.
  18. Perera, B.M.A.O., 2008. Reproduction in domestic buffalo. Reproduction in Domestic Animals, 43, pp.200–206.
  19. 2019. Union Minister Shri Giriraj Singh addresses National Milk Day celebration; Thanks Prime Minister Shri Narendra Modi for protecting farmers’ interest by not joining RCEP; Milk production increases by 36.35 % from 137.7 MT in 2013–14 to 187.75 MT in 2018–19. Press Information Bureau. Government of India.
  20. Pope, W.F., 1988. Uterine asynchrony: a cause of embryonic loss. Biology of reproduction, 39(5), pp.999–1003.
  21. Purohit, G.N., 2008. Recent developments in the diagnosis and therapy of repeat breeding cows and buffaloes. CAB Rev: Perspect Agric Vet Sci, Nutr Nat Res, 3(62), pp.1–34.
  22. Rani, P., Dutt, R., Singh, G. and Chandolia, R.K., 2018. Embryonic mortality in cattle—A review. Int J Curr Microbiol App Sci, 7(7), pp.1501–1516.
  23. Sangsritavong, S., Combs, D.K., Sartori, R., Armentano, L.E. and Wiltbank, M.C., 2002. High feed intake increases liver blood flow and metabolism of progesterone and estradiol-17β in dairy cattle. Journal of dairy science, 85(11), pp.2831-2842.
  24. Saraswat, C.S. and Purohit, G.N., 2016. Repeat breeding: Incidence, risk factors and diagnosis in buffaloes. Asian Pacific Journal of Reproduction, 5(2), pp.87–95.
  25. Sharma, H.C., Dhami, A.J., Sharma, S.K., Sarvaiya, N.P. and Kavani, F.S., 2008. Assessment of estrus detection and insemination efficiency of AI workers in buffaloes through plasma progesterone profile under field conditions. The Indian Journal of Animal Sciences, 78(7).
  26. Shelton, K., De Abreu, M.G., Hunter, M.G., Parkinson, T.J. and Lamming, G.E., 1990. Luteal inadequacy during the early luteal phase of subfertile cows. Reproduction, 90(1), pp.1-10.
  27. Singh, J.K., Singh, R., Singh, J.P., Mishra, S.K., Kumar, R. and Raghuvanshi, T., 2017. A Study of the Cost and Returns of Milk Production of Cow and Buffalo and to Find Out the Break–Even Point of Dairy Enterprise; in Faizabad District of Eastern Uttar Pradesh, India. Int. J. Curr. Microbiol. App. Sci, 6(11), pp.3928–3938.
  28. Thatcher, W.W., Staples, C.R., Danet-Desnoyers, G., Oldick, B. and Schmitt, E.P., 1994. Embryo health and mortality in sheep and cattle. Journal of Animal Science, 72(suppl_3), pp.16-30.
  29. Thirunavukkarasu, M. and Kathiravan, G., 2009. Factors affecting conception rates in artificially inseminated bovines. Indian Journal of Animal Sciences, 79(9), p.871.
  30. VanRaden, P.M. and Miller, R.H., 2006. Effects of nonadditive genetic interactions, inbreeding, and recessive defects on embryo and fetal loss by seventy days. Journal of dairy science, 89(7), pp.2716-2721.
  31. Verma, S., Srivastava, S., Verma, K.R., Saurabh, K.A. and Yadav, S.K., 2018. Incidence of Repeat Breeding in Cows In and Around Kumarganj, Faizabad (Uttar Pradesh), India. International Journal of Current Microbiology and Applied Sciences ISSN, pp.2319-7706.
  32. Yusuf, M., Rahim, L., Asja, M.A. and Wahyudi, A., 2012. The incidence of repeat breeding in dairy cows under tropical condition. Media Peternakan, 35(1), pp.28-31.
  33. अर्चना वर्मा, एस.एस. लठवाल एवं प्रज्ञा भदौरिया, 2012, भैंसों मे मौन मदकाल (Silent heat) की समस्या एवं उसका प्रबन्धन। डेरी समाचार, राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान, करनाल (भा.कृ.अनु.परि.) 42(2):6
Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON