भारत में वन्यजीवों की संरक्षण के लिए कदम और कानून
बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए दुनिया भर में वनों की कटाई हो रही है। पर्यावरण के क्षेत्र में प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए पूरे मानव समुदाय हेतु वन बहुत आवश्यक हैं। हालांकि मनुष्य के लालच ने उन्हें लकड़ी को जलाकर कोयला बनाने के लिए और पेड़ों को काटने या खेतों, आवासीय, वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए भूमि प्राप्त करने के अलावा विभिन्न रूपों में वस्तुओं का उपयोग करने के लिए उन्हें अग्रसर किया है।
बिगड़ती स्थिति मनुष्य के स्वार्थ को दर्शाती है क्योंकि वे नए पेड़ लगाकर उन्हें फिर से जीवंत करने के लिए कदम न उठाते हुए जंगलों को लगातार काट रहे हैं। अफसोस की बात है कि वनों की कटाई फिर से पेड़ लगाने की तुलना में तेज दर पर हो रहा है। नतीजतन प्राकृतिक आवास और जैव विविधता को भारी क्षति उठानी पड़ी है। जंगलों के अंधाधुंध विनाश के कारण वातावरण में आर्द्रता बढ़ी है। इसके अलावा उन क्षेत्रों में जहां पेड़ों को हटाया जा रहा है, वे धीरे-धीरे बंजर भूमि में बदल रहे हैं।
वनों की कटाई की वजह से कई खतरनाक प्रभाव देखने को मिले है जिनमें प्रमुख है जानवरों के आश्रयों का विनाश, ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि, बर्फ के ढक्कन, ग्लेशियरों का पिघलना, जिसके कारण समुद्र के स्तर में वृद्धि हो रही है, ओजोन परत कम हो रही है और तूफान, बाढ़, सूखा आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती घटनाएं। पृथ्वी पर जीवन को बचाने के लिए वनों की कटाई को रोकने के लिए क्या किया जा सकता है? वन आवरण को बचाने के कुछ तरीके निम्नलिखित हैं:
वन प्रबंधन
कई शताब्दियों से वनों की कटाई को रोकने या कम करने के लिए वैश्विक प्रयास किये जा रहे हैं क्योंकि लंबे समय से यह सबको पता है कि जंगलों की कटाई ने पर्यावरण को नष्ट कर दिया और कुछ मामलों में तो यह देश के पतन का कारण भी बनता जा रहा है। टोंगा में, दक्षिण प्रशांत क्षेत्र के एक इलाके में 170 से अधिक द्वीपों का एक फैला हुआ समूह, सरकार ने वन को कृषि भूमि में बदलने को लेकर अल्पकालिक लाभ (जिसके परिणामस्वरूप और भी दीर्घकालिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं) से बचने के लिए उपयुक्त नीतियां बनाई हैं। 17वीं और 18वीं शताब्दियों के दौरान जापान में शोगन ने अगली शताब्दी में वनों की कटाई को रोकने और फिर से जंगलों को विकसित करने के लिए एक उच्च तकनीक प्रणाली विकसित की। यह लकड़ी के अलावा किसी अन्य उत्पाद का उपयोग करके और सदियों से कृषि के लिए इस्तेमाल होने वाली जमीन का प्रभावी उपयोग करके किया गया था।
सोलहवीं शताब्दी में जर्मनी के भूमि मालिकों ने वनों की कटाई की समस्या से निपटने के लिए रेशम की खेती पद्धति विकसित की। हालांकि यह सब नीतियां सीमित थी क्योंकि वे पर्यावरण के अधीन हैं जैसे कि अच्छी बारिश, शुष्क मौसम का न होना और अच्छी मिट्टी का होना (ज्वालामुखी या ग्लेशियरों के माध्यम से)। इसका कारण यह है कि पुरानी और कम उपजाऊ जमीन के पेड़ इतनी धीरे-धीरे विकसित होते हैं कि वे आर्थिक लाभप्रद साबित नहीं होते हैं। इसके अलावा चरम शुष्क मौसम वाले क्षेत्रों में परिपक्व होने से पहले फसल को जलाने का खतरा भी है।
उन क्षेत्रों में जहां “स्लेश-एंड बर्न” प्रक्रिया (जो पर्यावरण की दृष्टि से स्थायी नहीं है) को अपनाया गया है, स्लेश-एण्ड-चार विधि तीव्र वनों की कटाई को रोकता है और मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट भी बंद हो जाती है क्योंकि यह परंपरागत स्लेश-एंड बर्न विधि के नकारात्मक चरित्रों को उजागर करती है। इस प्रकार उत्पादित जैवचर को फिर से मिट्टी में डाल दिया जाता है। यह न केवल एक टिकाऊ कार्बन सिकुड़न विधि है बल्कि यह मिट्टी संशोधन के संदर्भ में भी बहुत फायदेमंद है। बायोमास के मिश्रण से यह टेरा प्रीता, जो ग्रह पर सबसे अच्छी मिट्टी, का उत्पादन करती है। यह एकमात्र मिट्टी का ज्ञात प्रकार है जो मिट्टी को पुनर्जीवित करती है।
दुनिया के कई हिस्सों में विशेष रूप से पूर्वी एशियाई देशों में वृक्षारोपण वन भूमि का क्षेत्र बढ़ रहा है। दुनिया के सबसे बड़े 50 देशों में से 22 देशों में जंगलों के क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। एशिया में 2000 और 2005 के बीच 1 मिलियन हेक्टेयर जंगल में वृद्धि हुई है। एल साल्वाडोर में उष्णकटिबंधीय जंगलों ने 1992 और 2001 के बीच 20 प्रतिशत की वृद्धि की। इन प्रवृत्तियों के आधार पर 2050 तक वैश्विक वनों के क्षेत्र में आच्छादन में 10 प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है।
पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना में, जहां बड़े पैमाने पर जंगलों का विनाश किया गया है, सरकार ने हर सक्षम नागरिक को 11 से 60 वर्ष की उम्र के बीच हर साल 3 से 5 पौधों को लगाने का आदेश सुनाया है या इसी तरह की वन सेवाएं करने को कहा है। सरकार का दावा है कि 1982 से चीन में कम से कम 1 अरब पेड़ लगाए गए हैं। हालाकि अब इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि चीन में हर साल 12 मार्च “पौधें लगाने के दिवस” के रूप में मनाया जाता है।
इसके अलावा इससे चीन की ग्रीन वॉल नामक परियोजना की शुरूआत भी हुई है जिसका उद्देश्य पेड़ के रोपण के विस्तार से गोबी रेगिस्तान को बढ़ने से रोकना है। हालांकि लगभग 75 प्रतिशत पेड़ों के जलने से यह परियोजना बहुत सफल नहीं रही है, और लचीली प्रणाली (लचीले तंत्र) के माध्यम से कार्बन का नियमित रूप से मुआवजा एक बेहतर विकल्प होगा। 1970 के दशक से चीन में वन क्षेत्र में 47 मिलियन हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। चीन की कुल भूमि के 4.55 प्रतिशत में लगभग 35 अरब पेड़ों की वृद्धि हुई है। दो दशक पहले वनों का क्षेत्र 12 प्रतिशत था जो अब 16.55 प्रतिशत है। पश्चिमी देशों में लकड़ी के उत्पादों की बढ़ती मांग, जिसे अच्छी तरह से तैयार किया गया है, ने वन प्रबंधन और वन उद्योगों द्वारा लकड़ी के उपयोग में वृद्धि को जन्म दिया है।
वन संरक्षण में स्वैच्छिक संगठनों का योगदान
आर्बर डे फाउंडेशन द्वारा वर्षावनों के बचाव के लिए शुरू किया गया कार्यक्रम पुण्य का कार्य है जो वनों की कटाई को रोकने में मदद करता है। फाउंडेशन वर्षावन भूमि को मौद्रिक धन से खरीदता है और इससे पहले कि लकड़ी की कंपनियां इसे खरीदें फाउंडेशन इसे संरक्षित करता है। आर्बर डे फाउंडेशन भूमि को कटाई से बचाता है। यह भूमि पर रहने वाले जनजातियों के जीवन के तरीकों की रक्षा करता है। संगठन जैसे कि सामुदायिक वानिकी इंटरनेशनल, प्रकृति संरक्षण, वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर, संरक्षण इंटरनेशनल, अफ्रीकी संरक्षण फाउंडेशन और ग्रीनपीस भी वन निवासों के संरक्षण पर ध्यान देते हैं।
विशेष रूप से ग्रीनपीस ने भी वनों के नक्शे बनाये हैं जो अब भी बरकरार हैं और यह जानकारी इंटरनेट पर चित्रित की गई है। वेबसाइट HowStuffWorks ने अधिक सरल विषयगत नक्शा बनाया है जो मानव उम्र (8000 साल पहले) से मौजूद वनों की मात्रा का प्रतिनिधित्व करता है। वर्तमान में यह भी जंगलों के कम स्तर को दर्शाता है। ग्रीनपीस मैप और HowStuffWorks के नक़्शे इस प्रकार वृक्षारोपण की मात्रा को चिन्हित करते हैं जो मनुष्यों द्वारा की गई जंगलों की क्षति की मरम्मत के लिए जरूरी है।
वनों की कटाई को नियंत्रित करने के मामले में क्योटो प्रोटोकॉल बहुत महत्वपूर्ण है। क्योटो प्रोटोकॉल और इसके क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (CDM) ने “वनीकरण और पुनर्वनरोपण” को उठाया है। वनों से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों को मापने और रिपोर्ट करने में क्योटो प्रोटोकॉल की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके तहत नब्बे के दशक के बाद से भूमि के वह क्षेत्र जिसमें कोई वन-आश्रय नहीं किया जा सकता उसे वाणिज्यिक या स्वदेशी पेड़ प्रजातियों से बदला जाता था। संयुक्त राज्य अमेरिका भी जंगलों में शुद्ध ग्रीनहाउस गैस जब्ती पर उपाय और रिपोर्ट बना कर कार्य करता है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCC) ने वनों की कटाई और गिरावट से कम किए गए उत्सर्जन के रूप में जाना जाने वाले बेहतर वन प्रबंधन पर बातचीत की। इसका उद्देश्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए वनों की कटाई और वन गिरावट और जलवायु परिवर्तन को कम करना है। यह विकासशील देशों में जंगलों के स्थायी प्रबंधन और वन कार्बन के भंडार को बढ़ाने की भूमिका पर जोर देती है।
सार्वजनिक सहकारिता और जागरूकता
सार्वजनिक सहकारिता और वन संरक्षण के लिए जागरूकता भी आवश्यक है। वन संरक्षण के लिए हम जरूरी कदम उठा सकते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में सामुदायिक वानिकी के माध्यम से पौधों को बढ़ावा देना, जंगलों के रोपण और जंगलों के संरक्षण के लिए प्रचार और जागरूकता कार्यक्रम चलाने के द्वारा वन क्षेत्र में वृद्धि करना। सरकार को गांवों में वन सुरक्षा समितियाँ बनाने और जागरूकता फैलाने और वनों की कटाई को रोकने के लिए काम करना चाहिए। प्रदूषण से लोगों को बचाने के लिए लोगों को जंगलों के संरक्षण के साथ अधिक से अधिक पेड़ लगाने की जरूरत है। अगर इसे ध्यान में नहीं रखा गया तो हम सभी के लिए शुद्ध हवा और पानी प्राप्त करना मुश्किल होगा।
1973 में पर्यावरणवादी, सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट, ने पहाड़ी इलाकों में चिपको आंदोलन शुरू किया जिसमें पहाड़ी इलाके की महिलाएं पेड़ों को गले लगा कर उन्हें जंगल माफियों द्वारा कटने से बचाती थी। इसी तरह 1993 में पांडुरंग हेगड़े के नेतृत्व में कर्नाटक में अप्पीको आंदोलन शुरू किया गया था जिसके तहत वनों को संरक्षित करने का एक सक्रिय प्रयास किया गया था।
भारत में वन संरक्षण के लिए कदम और कानून
भारत में वनों की सुरक्षा के लिए 1981 में फारेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया (FSI) की स्थापना की गई थी। FSI वन और पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार के तहत काम कर रहा एक संगठन है। इसका प्राथमिक कार्य वनों के क्षेत्र को मापने के लिए देशव्यापी सर्वेक्षण के माध्यम से देश के वन धन को इकट्ठा और मूल्यांकन करना है। किसी भी संगठन के विशेष अनुरोधों पर FSI अपने कर्मियों के लिए परियोजना आधारित विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित करता है। इन सभी के अलावा इसमें डाटा प्रोजेक्ट रिपोर्ट का एक बड़ा संग्रह भी है जो पर्यावरणवादियों के लिए बहुत उपयोगी है।
देश को जंगलों की गंभीर कमी और इसके प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है। वन सुरक्षा कानून 1980 और इसके संशोधन 1981 और 1991 में किए गए ताकि वनों को संरक्षित किया जा सके। राष्ट्रीय वन नीति 1988 में अस्तित्व में आई। इसका निर्माण करने का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा करते हुए पारिस्थितिक संतुलन को संरक्षित करना है। नीति का उद्देश्य वनों के संरक्षण और देश भर में गहन वन कार्यक्रमों को लागू करना है।
जंगलों को आग से बचाने के लिए इंटीग्रेटेड फारेस्ट प्रोटेक्शन स्कीम (IFPS) तैयार की गई। इसे वन संरक्षण के साथ वन संरक्षण और प्रबंधन तकनीक के संयोजन से बनाया गया था। यह योजना पूर्वोत्तर राज्यों और सिक्किम के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुई है और इन क्षेत्रों में जंगलों को बचाने के लिए संसाधनों की कमी भी पूरी हुई है। यह योजना 100% केंद्र प्रायोजित है। इसका मुख्य उद्देश्य राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को बुनियादी ढांचा प्रदान करना है और आग से जंगलों को बचाने और इसके उचित प्रबंधन करना है।
वन शिक्षा निदेशालय वन और पर्यावरण मंत्रालय के अधीन है और इसका प्राथमिक कार्य राज्यों को, वन अधिकारियों और क्षेत्रीय वन अधिकारियों को प्रशिक्षण देना है। वर्तमान में तीन केंद्रीय वन अकादमियां देश में मौजूद हैं। ये क्रमशः ब्य्र्निहत (असम), कोयंबटूर (तमिलनाडु) और देहरादून (उत्तराखंड) में हैं और साथ ही कुर्सियांग के रेंजर्स कॉलेज भी (पश्चिम बंगाल) पूर्व वन क्षेत्र में हैं। भारत सरकार वन रेंजर्स कालेजों का संचालन करती है। हालांकि वन शिक्षा निदेशालय ने गैर-वन संगठनों को प्रशिक्षण देने का कार्य भी शुरू कर दिया है।
पर्यावरण के विकास में सक्रिय लोगों की सहायता से पारिस्थितिक पुनर्स्थापना, पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, पर्यावरण विकास, भूमि में गिरावट, वनों की कटाई और जैव विविधता को नुकसान की जांच के उद्देश्य से राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम शुरू किया गया था।
भारत 1.4 अरब लोगों का देश है जहां घनी आबादी वाले क्षेत्रों में जंगलों पर लगातार दबाव रहता है और लोग सीमांत भूमि पर खेती करने को मजबूर हो रहे हैं जहां की घास अधिक से अधिक क्षेत्र को बंजर बनाने में योगदान दे रही है। देश के जंगलों पर जबरदस्त सामाजिक-आर्थिक दबाव है। भारत ने कृषि भूमि की सुरक्षा के लिए परिधि बाड़ लगाने और सुरक्षा के साथ मिट्टी के क्षरण और मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए एक बागान प्रणाली की स्थापना की है।
वन्यजीवों को संरक्षित करने की आवश्यकता
हमें हमारे वन्य जीवन को अमूल्य संपत्ति के रूप में देखना होगा। उनके बचाव के बारे में सोचना तभी संभव है अगर हम न केवल वन्य जीवन को बचाए बल्कि उन्हें पनपने का अवसर भी प्रदान करें। यदि आवश्यक हो तो हमें उन्हें उचित वातावरण में रखकर उनकी संख्या बढ़ाने में योगदान देना होगा।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर अभ्यारण्य, वन्यजीव पार्क, राष्ट्रीय उद्यान आदि शामिल हैं। भारत में वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम’, ‘वन संरक्षण अधिनियम’, ‘राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना’, ‘टाइगर परियोजना’, ‘राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य’, ‘जैव-क्षेत्रीय रिजर्व कार्यक्रम’ आदि चल रहे हैं।
इन योजनाओं के कारण कुछ प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाया गया है। इसमें शेर, बब्बर शेर, एक सींग वाला गेंडा, हाथी, मगरमच्छ आदि शामिल हैं। न केवल ये सब पशु बल्कि कई प्रकार के पौधे और पेड़ों ने भी एक नया जीवन प्राप्त करना शुरू कर दिया है। अब उन सभी के जीवन को बचाए रखना आवश्यक है।
भारत में वन्यजीवों की रक्षा के उपाय
पर्यावरण और वन मंत्रालय ने देश में वन्य जीवन को बचाने और संरक्षण के लिए कई उपाय किए हैं। ये उपाय निम्नानुसार हैं: –
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के प्रावधानों के तहत वन्यजीवों के शिकार के खिलाफ कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है जिसमें उनके शोषण और वाणिज्यिक शोषण शामिल हैं। सुरक्षा और खतरे की स्थिति के अनुसार जंगली जानवरों को कानून के विभिन्न कार्यक्रमों में रखा गया है। मोरों को कानून के अनुसूची 1 में रखा जाता है जो उन्हें कानून के तहत उच्चतम संरक्षण देता है।
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 अपने प्रावधानों के उल्लंघन से संबंधित अपराधों के लिए दंड के प्रावधान प्रदान करता है। जंगली जानवरों के खिलाफ अपराध करने के लिए इस्तेमाल किए गए किसी उपकरण, वाहन या हथियार को जब्त करने हेतु एक प्रावधान इस कानून में भी है।
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के प्रावधानों के तहत संरक्षित क्षेत्र तैयार किए गए हैं जिनमें देश भर में राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों, महत्वपूर्ण वन्यजीवों के आवास शामिल हैं ताकि वन्यजीव और उनके निवास सुरक्षित हो सकें।
- वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो को वन्यजीव, जंगली जानवरों और उनके उत्पादों के अवैध व्यापार के नियंत्रण के लिए गठित किया गया है।
- केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत वन्य जीवन के खिलाफ अपराध करने वाले लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार दिया गया है।
- राज्य / केंद्र शासित सरकारों से अनुरोध किया गया है कि वे संरक्षित क्षेत्रों में और आसपास के इलाकों में गश्ती बढ़ाएं।
- अधिकारियों द्वारा राज्य के जंगल और वन्यजीव विभागों पर बारीकी से निगरानी की जा रही है।
आज जिस तरह से मानवीय दोष के कारण पर्यावरण ख़राब हो रहा है उसके लिए जंगलों को सख्ती से बचाने और बनाए रखने की बहुत बड़ी जरूरत है। केवल ऐसा करने से हम सभी जीवों के भविष्य को बचा सकते हैं।
दुनियाभर के वैज्ञानिक, सभी समझदार लोग, पर्यावरण विशेषज्ञ, आदि वन संरक्षण की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। सरकारों ने जंगली प्रजातियों की रक्षा के लिए अभयारण्य और भंडार भी बनाए हैं जहां घास उखाड़ना भी प्रतिबंधित है।
जंगल संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण काम संभवतः ‘वृक्षारोपण’ सप्ताह देखकर किया नहीं जा सकता। इसके लिए वास्तव में महत्वपूर्ण योजनाओं की तर्ज पर काम करने की आवश्यकता है। यह भी एक या दो सप्ताह या महीनों के लिए नहीं बल्कि सालों के लिए। यह एक बच्चे को सिर्फ जन्म देने जैसा ही नहीं बल्कि बच्चे की परवरिश और देखभाल के लिए उचित व्यवस्था करना, न केवल दो से चार साल तक, जब तक वह परिपक्वता प्राप्त न कर ले। तभी तो पृथ्वी का जीवन उसके पर्यावरण और हरियाली की सुरक्षा संभव हो सकती है।
प्रकृति हमारे लिए सभी आवश्यक संसाधन प्रदान करती है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को देखना समय की आवश्यकता है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए हमें भोजन, पानी और वायु की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए केवल प्रकृति की मात्रा का उपयोग करना चाहिए। इस संदर्भ में पर्यावरण सुधार के लिए वनों की कटाई को नियंत्रित करना बहुत आवश्यक है।
वन्यजीवों का संरक्षण कैसे हो
प्रकृति और अन्य वन्यजीवों की प्रजातियों के महत्व को पहचानने के लिए वन्यजीवों का संरक्षण आवश्यक है। वन्यजीवों में ऐसे वनस्पति और जीव (पौधे, जानवर और सूक्ष्मजीव) शामिल हैं, जिनका मनुष्यों के द्वारा पालन–पोषण नहीं होता हैं।वन्य जीवों, वनस्पतियों और उनके आवासों की सुरक्षा करना ही संरक्षण है। लुप्तप्राय पौधें और जानवरों की प्रजातियों को उनके प्राकृतिक निवासस्थान के अंतर्गत सुरक्षा प्रदान करने के लिए वन्यजीवों का संरक्षण महत्वपूर्ण है ।
सबसे प्रमुख चिंता का विषय यह है कि वन्यजीवों के निवासस्थान की सुरक्षा किस प्रकार की जाए ताकि भविष्य में वन्यजीवों की पीढ़ियां और यहां तक की इंसान भी इसका आनंद ले सकें। मनुष्य द्वारा बड़े पैमाने पर जंगली जानवरों और पक्षियों की हत्या, एक गंभीर खतरा है जो कि वन्य जीवन अपने अस्तित्व के लिए सामना कर रहा है। जिसके कारण खाद्य श्रृंखला और पारिस्थितिक तंत्र अस्तव्यस्त हो जाती हैं।
हम एक उदाहरण की मदद से बेहतर समझ सकते हैं, एक जंगली जानवर के रूप में सांप की त्वचा से फैंसी चमड़े के सामान को बनाने की बहुत ज्यादा मांग है, इसलिए साँप की त्वचा बाजार में ऊंची कीमत पर बेचीं जाती है। आसानी से पैसा कमाने के लिए कुछ लोगों ने बड़ी संख्या में सापों को अंधाधुंध मारना शुरू कर दिया, जिसकी वजह से खाद्य श्रृंखला में बाधा आती है और प्रकृति में असंतुलन पैदा होता है। सांप किसान के दोस्त होते है, क्योंकि यह कीड़े, चूहें जो कि फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, इनको खा लेते हैं । इसलिए, प्रकृति में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने और संरक्षण के लिए वन्य जीवन को संरक्षित करना बहुत ही महत्वपूर्ण है।
भारत की पारिस्थितिक व भौगोलिक दशाओं में विविधता के कारण यहां अनेक प्रकार के जीव–जंतु भी पाये जाते हैं। संपूर्ण विश्व में कुल जीव–जंतुओं के 15,00000 ज्ञात प्रजातियों में से लगभग 81,000 प्रजातियां भारत में मिलती हैं। देश में स्वच्छ और समुद्री जल की मछलियों की 2500 प्रजातियां हैं। भारत में पक्षियों की 1200 प्रजातियां तथा 900 उप–प्रजातियां पायी जाती हैं। अफ्रीकी, यूरोपीय एवं दक्षिण–पूर्वी एशियाई जैव तंत्रों के संगम पर अवस्थित होने के कारण भारत में इनमें से प्रत्येक जैव–तंत्र के विचित्र प्राणी भी पाये जाते हैं। जहां लकड़बग्घा एवं चिंकारा अफ्रीकी मूल के हैं। वहीं भेड़िया, हंगल व जंगली बकरी यूरोपीय मूल के हैं। इसी तरह दक्षिण–पूर्ण एशियाई जैव–तंत्र के जानवरों में हाथी व हूलक गिबन प्रमुख हैं।
वन्य जीवन के समुचित अध्ययन हेतु भारत को पांच पारिस्थितिकीय उप–क्षेत्रों में विभक्त किया गया है–
- हिमालयपर्वत श्रृंखला: इस पुनः तीन उप–क्षेत्रों में विभाजित किया गया है:
a.हिमालय की तलहटी: उत्तरी भारत के स्तनपायी, जैसे–हाथी, सांभर, दलदली हिरण, चीतल तथा जंगली भैंस इस क्षेत्र में पाये जाते हैं।
b.पश्चिमी हिमालय (उच्चतम क्षेत्रों पर): जंगली गधा, जंगली बकरी, भेड़े, जंगली हिरण तथा कस्तूरी हिरण इत्यादि इस क्षेत्र में पाये जाते हैं।
c.पूर्वी हिमालय: इस क्षेत्र में लाल पांडा, सूअर तथा रीछ इत्यादि पाये जाते हैं।
- प्रायद्वीपीयभारतीय उपक्षेत्र: इस क्षेत्र को निम्नलिखित दो भागों में बांटा गया है:
a.प्रायद्वीपीय भारत: इस क्षेत्र के अंतर्गत हाथी जंगली सुअर, दलदली हिरण, सांभर, बारहसिंगा 4 सींगों वाला हिरण, जंगली कुत्ता तथा जंगली कुत्ता तथा जंगली सैंड पाए जाते हैं।
b.राजस्थान का मरुस्थलीय क्षेत्र; रेगिस्तानी बिल्ली, जंगली गधा इत्यादि इस क्षेत्र में पाये जाते हैं।
- उष्णकटिबंधीयसदाबहार वन क्षेत्र: इस क्षेत्र में भारी वर्षा होती है तथा यहां जानवरों की बहुतायत है। यहां हाथी, लंगूर इत्यादि पाये जाते हैं।
- अंडमानव निकोबार द्वीप समूह: यहां भारी संख्या में स्तनपायी, रेंगने वाले पशु तथा समुद्री जीव पाये जाते हैं। स्तनपायी जीवों में चमगादड़ व चूहों की प्रधानता है। ये कुल स्तनपायी जीवों का 75 प्रतिशत है। सुअर तथा हिरण इन द्वीप समूहों के अन्य प्रधान पशु हैं। समुद्री जीवों में डॉल्फिन तथा हेल इत्यादि प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में विविध प्रकार के दुर्लभ पक्षी भी पाये जाते हैं।
5.सुन्दरवन का ज्वारीय दलदली क्षेत्र: इस क्षेत्र में मछली, नरभक्षी शेर, बुनकर चीटियां, हिरण, सुअर तथा बड़ी छिपकलियां पायी जाती हैं।
संकटापन्न जीव–जन्तु प्रजातियां:
मानवीय गतिविधियों के कारण पिछले कुछ वर्षों से अनेक जीव–जंतुओं की संख्या तेजी से लुप्त होती जा रही है। ऐसे जीवों के संरक्षण के प्रति विश्व भर में प्रयास किए जा रहे हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर द नेचर एंड नैचुरल रिसोर्सेज (आई.यू.सी.एन.) मान्यता प्राप्त संस्था द्वारा वैश्विक स्तर पर संकटग्रस्त जीवों और पेड़–पौधों का एक सूचीबद्ध आंकड़ा तैयार किया जाता है, जिसे रेड डाटा बुक कहते हैं। रेड डाटा बुक में नामित जीव के संरक्षण की कवायद पूरी दुनिया में शुरू कर दी गई है। इसी प्रयास के तहत् भारत के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भी 9 मार्च, 2011 को जारी एक रिपोर्ट में 57 जीवों को क्रांतिक संकटग्रस्त जीव घोषित किया है। इस रिपोर्ट में क्रांतिक संकटग्रस्त जीवों को 7 विभिन्न वर्गों– पक्षी, स्तनधारी, सरीसृप, उभयचर, मछली, मकड़ी तथा कोरल में रखा गया है।
आई.यू.सी.एन. क्रांतिक संकटग्रस्त श्रेणी में किसी जीव को रखने से पहले निम्नांकित पांच शर्तों के आधार पर उस जीव पर मंडरा रहे संकट पर विचार करती है–
1.पिछले 10 वर्षों में या तीन जेनरेशन में उस जीव की 80 प्रतिशत से भी अधिक आबादी कम हो गई हो।
2.उस जीव के भौगोलिक परिवेश में बहुत तेजी से बदलाव आया हो।
3.एक ही जनेरशन में या पिछले तीन वर्षों में उस जीव की आबादी या तो 25 प्रतिशत कम हुई है या उस जीव की आबादी कम होकर 250 रह गई हो।
4.वयस्क जीवों की आबादी 50 से भी कम रह गई हो।
5.उस जीव के जंगलों से विलुप्त होने का खतरा हो।
पक्षी वर्ग के क्रांतिक संकटग्रस्त जीवों में जार्डन नुकरी (जार्डन काउसर), जंगली खूसट या जंगली उल्लू, सफेद तोंदल, बगुला, सफेद पीठवाला गिद्ध, स्लैन्डर तोंदल गिद्ध, लंबी तोंदल गिद्ध, लाल सिर वाला गिद्ध, बंगाल लोरीकेन, हिमालयन बटेर, गुलाबी सिर वाली बतख, सामाजिक टिटहरी, चम्मच तोंदल बाटन, साइबेरियाई सारस शामिल हैं।
स्तनधारी जीवों में पिग्मी हॉग, अंडमान श्वेत दंत छछूदर, जैन्किन अंडमान श्वेत दंत छछूदर, निकोबार श्वेत दंत छछूदर, कोन्डारा चूहा, विशाल चट्टानी चूहा या एलविरा रेट, नामदफा उड़न गिलहरी, मालाबार कस्तूरी, सुमात्राई गेंडा, जावाई गेंडा क्रांतिक संकटग्रस्त जीवों में शामिल हैं। सरीसृप वर्ग के जीवों में घड़ियाल, बाजठोंठी कछुआ, चर्मपिच्छक कछुआ, छोटा नदी कछुआ (रीवन टेरेपीन), लाल सिर वाला रूफैड कछुआ, सिसपारा डे छिपकली संकटग्रस्त जीवों में शामिल हैं।
उभयचर जीवों में अनामलाई लायिंग फ्रॉग, गुंडिया इंडियन फ्रॉग, केरला इंडियन फ्रॉग, चार्ल्स डार्विन फ्रॉग, कोटिझर बबल–नेस्ट फ्रॉग, अमबोली बुश फ्रॉग, केलाजोड्स बबल–नेस्ट फ्रॉग, छोटी झाड़ी वाला मेंढक, हरी आंखों वाला बुश मेंढक, ग्रीट झाड़ी मेंढक, कालिकट झाड़ी मेंढक, मार्क्स बुश फ्रॉग, मुनारबुश फ्रॉग, लार्ज पोंगुडी बुश फ्रॉग, सुशीलस बुश फ्रॉग, शिलांग बबल–नेस्ट फ्रॉग, टाइगर बुश टोड संकटग्रस्त जीवों में शामिल हैं। मछलियों में पांडिचेरी शार्क, गंगोय शार्क, नाइफ टूथ सॉफिश, लार्ज काम्ब सॉफिश या नैरो स्नॉट सॉफिश, रामेश्वरम् आरनामेंटल या रामेश्वरम् पेराशूट स्पाइडर, पीकॉक टैनेन्दुला संकटग्रस्त जीवों में शामिल हैं। कोरल जीव की फायर कोरल नामक प्रजाति को संकटग्रस्त जीवों में शामिल किया गया है।
देश में संकटग्रस्त जीव–जंतु प्रजातियों में लगातार वृद्धि के कारण वन्यजीव व्यवस्था और संरक्षण के लिए काफी उपाय किए गए हैं। वन्य जीव संरक्षण के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने सरकारी और गैर–सरकारी संगठन केन्द्र स्थापित किये हैं। भारत में वन्य जीव प्रबंधन के उद्देश्य हैं–
wildlife important for ecosystem
1.प्रजातियों के नियंत्रित एवं सीमित उपयोग के लिए प्राकृतिक आवासों का संरक्षण करना।
2.संरक्षित क्षेत्रों में (राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, बायोस्फीयर रिजर्व, आदि) पर्याप्त संख्या में प्रजातियों का रख–रखाव करना।
3.वनस्पति और जीव प्रजातियों के लिए बायोस्फीयर रिजर्व की स्थापना करना।
कानून के जरिए संरक्षण
4.संरक्षित नेटवर्क क्षेत्र: वन्य जीव का संरक्षण संरक्षित क्षेत्रों का एक संपीडक निकाय है। संरक्षित क्षेत्र की विभिन्न उद्देश्यों हेतु विभिन्न श्रेणियां होती हैं। इसके अंतर्गत– राष्ट्रीय पार्क, अभयारण्य, जैव आरक्षित क्षेत्र, नेचर रिजर्व्स, प्राकृतिक स्मारक, सांस्कृतिक परिदृश्य आदि।
वन्य जीवन के संरक्षण के लिए 1952 में केन्द्रीय सलाहकार समिति बनायी गयी थी। इसे इण्डियन बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है। इस आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं और इसके सदस्य प्रकृति विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् होते हैं। इसके अतिरिक्त देश में अन्य अनेक ऐसी संस्थाएं भी हैं जो वन्यजीव के सरंक्षण तथा प्रबंधन में उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं। इन संस्थाओं में द बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, मुंबई; द वाइल्ड लाइफ प्रिजर्वेशन सोसायटी ऑफ इण्डिया, द वाइल्ड लाइफ फड ऑफ इंडिया आदि उल्लेखनीय हैं।.भारत में वन्य–जीवन की सुरक्षा के लिए दो प्रकार के निवास स्थानों का निर्माण किया गया है– पशु–विहार और राष्ट्रीय उद्यान। पशु विहारों में पक्षियों और पशुओं की सुरक्षा की व्यवस्था की गयी है, जबकि राष्ट्रीय उद्यानों में सम्पूर्ण पारिस्थितिकी की। देश में इस समय लगभग 513 पशु विहार या अभयारण्य हैं, जबकि 99 राष्ट्रीय उद्यान हैं, जिनका कुल क्षेत्रफल लगभग 15,63,492 वर्ग किलोमीटर है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 4.5 प्रतिशत है। वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए एक सेन्ट्रल जू अथॉरिटी का भी गठन किया गया है, जिसका उद्देश्य देश के वन्य–प्राणी उद्यानों के प्रबंधन की देख–रेख करना है। देहरादून में एक वन्य प्राणी संस्थान की भी स्थापना की गयी है।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता तथा वन्य जीव संरक्षण आदि सम्बन्धी अंतर्राष्ट्रीय संयाजनों की मुख्य एजेंसी है। भारत की वन्य जीव संरक्षण सम्बन्धी 5 प्रमुख अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशनों में भी महत्वपूर्ण भागीदारी है। भारत विश्व विरासत स्थलों की सूची बनाने के लिए उत्तरदायी वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स का सदस्य है जो की सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक दोनों ही प्रकार के स्थलों को शामिल करता है। मंत्रालय का वन्य जीव विभाग विश्व विरासत के प्राकृतिक स्थलों से जुड़ा हुआ है। भारत में विश्व स्तर के प्राकृतिक स्थलों के महत्व को देखते हुए वर्ल्ड हैरिटेज बायोडायवर्सिटी प्रोग्राम फॉर इंडियाः बिल्डिंग पार्टनरशिप टू सपोर्ट यूनेस्कोज वल्र्ड हैरिटेज प्रोग्राम नाम से अंतरराष्ट्रीय सहायता प्राप्त परियोजना आरंभ की गई है। भारत ने विश्व में व्हेलों की संख्या बढ़ाने के संदर्भ में अति सक्रिय भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त भारत ने कोएलिशन एगेंस्ट वाइल्ड लाइफ ट्रेफिकिंग (सी.डब्ल्यू.ए.टी.) में भाग लेकर वन्य जीवों के अवैध व्यापार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के साथ मिलकर कार्य किया है। 1982 में भारतीय वन्य जीव संरक्षण संस्थान की स्थापना की गई। यह संस्थान पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन स्वायत्तशासी संसथान है जिसे वन्य जीव संरक्षण के क्षेत्र में प्रशिक्षण और अनुसंधान संस्थान के रूप में मान्यता दी गई है।
पर्यावरणविदों के अनुसार वर्ष 2018 में बाघ जनगणना हेतु प्रयोग किये गए कैमरा ट्रैप्स में लगभग 17 बाघ अभयारण्यों में बाघों के अतिरिक्त अन्य घरेलू जानवरों (पालतू कुत्ते) की उपस्थिति को भी रिकार्ड किया गया है। विशेषज्ञों का मत है कि बाघ अभयारण्यों में घरेलू जानवरों की उपस्थिति से बाघों समेत अन्य जंगली जानवरों को बीमारियाँ हो सकती हैं, जिससे वन्यजीव पारिस्थितिकी में व्यापक पैमाने पर गिरावट होने की संभावना है। वर्ष 2019 में ही कैनाइन डिस्टेंपर वायरस जो कि वन्यजीव अभयारण्यों और उनके आसपास रहने वाले संक्रमित कुत्तों के माध्यम से प्रसारित हुआ था, अब वन्यजीव वैज्ञानिकों के बीच चिंता का विषय बन गया है। पिछले वर्ष गिर के जंगल में 20 से अधिक शेर वायरल संक्रमण का शिकार हुए थे। यही कारण है कि जंगली जानवरों में इस वायरस के चलते होने वाली बीमारी को फैलने से रोकने के लिये राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा कुछ दिशा–निर्देश तैयार किये गए हैं। जहाँ एक ओर गंभीर बीमारियों से जंगली जानवरों की मृत्यु हो रही है तो वहीं मानव–वन्यजीव संघर्ष तथा पारिस्थितिकी संवेदी क्षेत्रों में हो रहा निर्माण कार्य भी वन्यजीव पारिस्थितिकी को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहा है। मानव–वन्यजीव संघर्ष भारत में स्थानिक है। इसे आमतौर पर विकास गतिविधियों की नकारात्मकता और प्राकृतिक आवासों में गिरावट के रूप में चित्रित किया जा सकता है।
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का सिर्फ 5 प्रतिशत हिस्सा ही संरक्षित क्षेत्र के रूप में विद्यमान है। यह क्षेत्र वन्यजीवों के आवास की दृष्टि से पर्याप्त नहीं है।
एक ओर संरक्षित क्षेत्रों का आकार छोटा है, वहीं दूसरी ओर रिज़र्व में वन्यजीवों को पर्याप्त आवास उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त बड़े वन्यजीवों जैसे– बाघ, हाथी, भालू, आदि के शिकारों के पनपने के लिये भी पर्याप्त परिवेश उपलब्ध नहीं हो पाता। उपर्युक्त स्थिति के कारण वन्यजीव भोजन आदि की ज़रूरतों के लिये खुले आवासों अथवा मानव बस्तियों के करीब आने को मजबूर होते हैं। यह स्थिति मानव–वन्यजीव संघर्ष को जन्म देती है।
वर्तमान में सरकार द्वारा विभिन्न विकासात्मक एवं अवसंरचनात्मक गतिविधियों में वृद्धि के लिये विभिन्न नियम और कानूनों में छूट दी है, इससे राजमार्ग एवं रेल नेटवर्क का विस्तार संरक्षित क्षेत्रों के करीब हो सकेगा। इससे वन्यजीव पारिस्थितिकी में और अधिक गिरावट होने की आशंका व्यक्त की गई है। इससे पूर्व वाणिज्यिक लाभ तथा ट्रॉफी हंटिंग (मनोरंजन के लिये शिकार) के कारण पहले ही बड़ी संख्या में वन्यजीवों का शिकार किया जाता रहा है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन ने भी वन्य जीवों को प्रभावित किया है या यूँ कहा जाए कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर वन्य जीवों पर पड़ता है तो गलत नहीं होगा। वन्य जीवों के प्रभावित होने से उनके प्राकृतिक पर्यावास नष्ट हो जाते हैं, जिससे वन्यजीव मानव बस्तियों की ओर पलायन करते हैं और इससे मनुष्यों व वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ता है।
भारत सरकार ने देश के वन्य जीवन की रक्षा करने और प्रभावी ढंग से अवैध शिकार, तस्करी और वन्यजीव तथा उसके व्युत्पन्न के अवैध व्यापार को नियंत्रित करने के उद्देश्य से वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम [wildlife (protection) act], 1972 लागू किया।इस अधिनियम को जनवरी 2003 में संशोधित किया गया था और कानून के तहत अपराधों के लिये सज़ा एवं जुर्माने और अधिक कठोर बना दिया गया मंत्रालय ने अधिनियम को मज़बूत बनाने के लिये कानून में संशोधन करके और अधिक कठोर उपायों को शुरू करने का प्रस्ताव किया है इसका उद्देश्य सूचीबद्ध लुप्तप्राय वनस्पतियों और जीव एवं पर्यावरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरक्षित क्षेत्रों को सुरक्षा प्रदान करना है।
वन्यजीवों के संरक्षण हेतु भारत के संविधान में 42वें संशोधन (1976) अधिनियम द्वारा दो नए अनुच्छेद 48 (A) व 51 (A) को जोड़कर वन्यजीवों से संबंधित विषय को समवर्ती सूची में शामिल किया गया वर्ष 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित किया गया। यह एक व्यापक केंद्रीय कानून है, जिसमें विलुप्त हो रहे वन्यजीवों तथा अन्य लुप्तप्राय प्राणियों के संरक्षण का प्रावधान है। वन्यजीवों की चिंतनीय स्थिति में सुधार एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय वन्यजीव योजना वर्ष 1983 में प्रारंभ की गई।
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि यदि वन्यजीव संरक्षण का कार्य सिर्फ संरक्षित क्षेत्रों यथा– राष्ट्रीय वन्यजीव पार्कों, टाइगर रिज़र्व आदि तक सीमित रहता है तो कई प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर खड़ी होंगी। उदाहरण के लिये, ग्रेट इंडिया बस्टर्ड वन्यजीव संरक्षण आधिनियम की सूची-1 (इस सूची में शामिल वन्यजीवों को हानि पहुँचाना समग्र भारत में प्रतिबंधित है) में शामिल है और इस पक्षी के लिये विशेष अभयारण्य भी स्थापित किया गया है फिर भी यह प्रजाति विलुप्त होने के कगार पर है। वन्यजीवों के लिये सुरक्षित क्षेत्र के साथ–साथ इस प्रकार के संरक्षित क्षेत्र जो जन भागीदारी पर आधारित हैं, के निर्माण पर भी बल देना चाहिये।
मानव–
वन्यजीव संघर्ष रोकने हेतु एकीकृत पूर्व चेतावनी तंत्र की सहायता से नुकसान को कम करने के लिये प्रयास किया जा सकता है। इसके लिये खेतों में बाड लगाना तथा पालतू एवं कृषि से संबंधित पशुओं की सुरक्षा के लिये बेहतर प्रबंधन करना, आदि उपाय किये जा सकते हैं।
ऐसे वन्यजीव (हिरन, सुअर आदि) जो बाघ एवं अन्य बड़े पशुओं का भोजन है, के शिकार पर रोक लगानी चाहिये जिससे ऐसे पशुओं के लिये भोजन की कमी न हो।
पशुओं के व्यवहार का अध्ययन कर उचित वन्यजीव प्रबंधन के प्रयास किये जाने चाहिये ताकि आपात स्थिति के समय उचित निर्णय लिया जा सके और मानव–वन्यजीव संघर्ष से होने वाली हानि को रोका जा सके।
वन्यजीवों से होने वाले फसलों के नुकसान के लिये फसल बीमा का प्रावधान होना चाहिये इससे स्थानीय कृषकों में वन्यजीवों के प्रति बदले की भावना में कमी आएगी, जिससे वन्यजीवों की हानि को रोका जा सकता है।
भारत में एलीफैंट कॉरिडोर का निर्माण किया गया है, इसी तर्ज पर टाइगर कॉरिडोर एवं अन्य बड़े वन्यजीवों के लिये भी गलियारों का निर्माण किया जाना चाहिये. इसके साथ ही ईको–ब्रिज आदि के निर्माण पर भी ज़ोर देना चाहिये। हमारा प्रयास पारिस्थितिक तंत्र तथा विकास के मध्य संतुलन बनाने पर केंद्रित होना चाहिये।
क्या है देश का वन्य जीव संरक्षण कानून…किन जानवरों का शिकार है बैन
जानिए क्या है भारत वन्य संरक्षण अधिनियम, जो 100 से ऊपर जानवरों ही नहीं वनस्पतियों की सुरक्षा की बात भी करता है.
भारत सरकार ने वर्ष 1972 में भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम पारित किया था. इसका मकसद वन्यजीवों के अवैध शिकार, मांस और खाल के व्यापार पर रोक लगाना था. इसे वर्ष 2003 में संशोधित किया गया. तब इसका नाम भारतीय वन्य जीव संरक्षण (संशोधित) अधिनियम 2002 रखा गया. इसके तहत दंड और जुर्माना को कहीं कठोर कर दिया गया.
कहां लागू होता ये कानून
ये कानून केवल जंगली जानवरों ही नहीं,बल्कि सूचीबद्ध पक्षियों और पौधों को भी संरक्षण प्रदान करता है. हालांकि ये जम्मू और कश्मीर में लागू नहीं होता. वहां उनका अपना वन्य कानून है.
कानून में प्रावधान
कुल छह अनुसूचियां हैं. जो अलग-अलग तरह से वन्यजीवन को सुरक्षा प्रदान करता है।
अनुसूची-1 और अनुसूची-2 – इसके द्वितीय भाग वन्यजीवन को पूरी सुरक्षा प्रदान करते हैं. इनके तहत अपराधों के लिए कड़ा दंड तय है.
अनुसूची-3 और अनुसूची-4- इसके तहत भी वन्य जानवरों को संरक्षण प्रदान किया जाता है लेकिन इस सूची में आने वाले जानवरों और पक्षियों के शिकार पर दंड बहुत कम हैं.
अनुसूची-5 – इस सूची में उन जानवरों को शामिल किया गया है, जिनका शिकार हो सकता है.
छठी अनुसूची- इसमें दुलर्भ पौधों और पेडों पर खेती और रोपण पर रोक है.
क्या है दंड
1. अगर सूची एक और सूची दो में आने वाले जानवरों का शिकार किया गया है तो उसमें कम से कम तीन साल के जेल का प्रावधान है, हालांकि इस सजा को सात साल तक बढाया जा सकता है. कम से कम दस हजार रुपए जुर्माना हो सकता है.
न्यूनतम सजा – तीन साल
अधिकतम सजा – सात साल
न्यूनतम अार्थिक दंड – दस हजार रुपए
अधिकतम जुर्माना – 25 लाख रुपए
दूसरी बार अपराध करने पर भी इतनी ही सजा का प्रावधान. लेकिन कम से कम जुर्माना 25 हजार रुपए तक हो सकता है.
अगर आपके घर में हैं ये तो माना जाएगा अपराध
जानवरों की खाल या फिर गलीचा इकट्ठा करना अपराध है. जिसमें एक से लेकर 25 लाख तक का जुर्माना लगाया जा सकता है.
जुर्माने का नया प्रस्ताव
जंगली जानवरों के बढ़ते शिकार के कारण पर्यावरण मंत्रालय ने नया प्रस्ताव रखा है. एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 60 फीसदी बाघ रहते हैं, जिसमें साल 2015 में 78 बाघों का शिकार हो चुका है. अब तक शिकार करने पर 25 हजार तक का जुर्माने का प्रावधान है लेकिन अब ये 50 लाख तक हो सकता है.
अनसूची एक क्या है
– अनुसूची एक में 43 वन्य जीव शामिल हैं. जिसमें धारा 2, धारा 8, धारा 9, धारा 11, धारा 40, धारा 41, धारा 43, धारा 48, धारा 51, धारा 61 और धारा 62 के तहत दंड मिल सकता है.
– इस सूची में सुअर से लेकर कई तरह के हिरण, बंदर, भालू, चिकारा, तेंदुआ, लंगूर, भेड़िया, लोमड़ी, डॉलफिन, कई तरह की जंगली बिल्लियों, बारहसिंगा, बड़ी गिलहरी, पेंगोलिन, गैंडा, ऊदबिलाव, रीछ और हिमालय पर पाए जाने वाले कई जानवरों के नाम शामिल हैं.
– अनुसूची एक के भाग दो में कई जलीय जन्तु और सरीसृप हैं.
– इस अनुसूची के चार भाग हैं
अनुसूची दो क्या है
इस अनुसूची में शामिल वन्य जंतुओं के शिकार पर धारा 2, धारा 8, धारा 9, धारा 11, धारा 40, धारा 41 धारा 43, धारा 48, धारा 51, धारा 61 और धारा 62 के तहत सजा का प्रावधान है.
– इस सूची के भाग एक में कई तरह के बंदर, लंगूर, सेही, जंगली कुत्ता, गिरगिट आदि शामिल हैं
– सूची के भाग दो में अगोनोट्रेचस एण्ड्रयूएसी, अमर फूसी, अमर एलिगनफुला, ब्रचिनस एक्ट्रिपोनिस और कई तरह के जानवर शामिल हैं.
डॉ दीपक कोहली, संयुक्त सचिव, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, उत्तर प्रदेश सचिवालय, 5 /104, विपुल खंड, गोमती नगर, लखनऊ– 226010( उत्तर प्रदेश)( मोबाइल – 9454410037 )