पशुओं में क्षयरोग/ तपेदिक ( ट्यूबरक्लोसिस/ टी०बी०) के कारण, लक्षण एवं बचाव
डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चौमुंहा , मथुरा, उत्तर प्रदेश
क्षय रोग अर्थात तपेदिक या टी बी/ ट्यूबरकुलोसिस दीर्घकालिक संक्रामक रोग है। पशुओं में यह रोग माइकोबैक्टेरियम बोविस तथा मनुष्यों में माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस नामक जीवाणु से होता है। दोनों प्रजातियां पशु एवं मनुष्यों में क्षय रोग उत्पन्न कर सकती हैं। इससे गाय भैंस और मनुष्य बहुधा प्रभावित होते हैं। शुकर, बिल्ली , घोड़ा, कुत्ता ऊंट, भेड़ बकरी हाथी तथा जंगली पशु भी प्रभावित होते हैं। यह रोग पक्षियों में भी मिलता है। यह एक बहुत ही खतरनाक जूनोटिक अर्थात पशुजन्य रोग है। यह जीवाणु द्वारा फैलता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में यह रोग उत्पन्न होने की अधिक संभावना रहती है। यह रोग अनेक तरीकों से संचारित होता है परंतु सबसे अधिक संक्रमण स्वास या आहार नली, भोजन, पानी या दूध से होता है। स्वस्थ पशु जो रोगी पशुओं के संपर्क में रहते हैं इन जीवाणुओं को मुख्यत: स्वास द्वारा अपने शरीर में ले लेते हैं। इस रोग के जीवाणु संक्रमित पशुओं के दूध, लार, मल अथवा नाशिका श्राव मैं विसर्जित होते हैं। दूध पीने वाले नवजात बच्चों को या युवा बछड़ों में इस रोग का संक्रमण पाचन तंत्र के मार्ग द्वारा होता है। बछड़ों में जन्मजात क्षय रोग भी हो सकता है। जो, पशु चिकित्सा कर्मी संक्रमित पशु का शव परीक्षण बिना सावधानी के करते हैं उन में क्षय रोग अर्थात तपेदिक संक्रमण की संभावना अत्याधिक होती है।
लक्षण
रोग की प्रारंभिक अवस्था में रोगी पशु में बेचैनी के अलावा कोई लक्षण नहीं दिखाई देता है। इससे ग्रसित पशुओं में कमजोरी भोजन के प्रति अरुचि निरंतर दुर्बलता तथा लगातार हल्का बुखार बना रहता है। रोगी पशु को सूखी खांसी आती है एवं वह धीरे-धीरे कमजोर होता चला जाता है और पशु की हड्डियां एवं पसलियां स्पष्ट दिखने लगती हैं। पशु का दूध सूख जाता है तापमान बढ़ जाता है तथा सांस लेने में कष्ट उत्पन्न हो जाता है। इस रोग के जीवाणु पशुओं के दूध द्वारा बाहर निकलते हैं। पशुओं में रोग की अवधि कुछ महीनों से लेकर वर्षों तक होती है। इस रोग के जीवाणु लसिका ग्रंथियों को अधिक प्रभावित करते हैं। फेफड़ों के पास की लसिका ग्रंथियां मैं सूजन आ जाती हैं। इन लसिका ग्रंथियों में क्षय रोग के जीवाणु अधिक समय तक बिना रोग उत्पन्न किए सुसुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। फेफड़ों सहित शरीर के किसी भी अंग में क्षय रोग हो सकता है। थन एवं अयन की टी बी में पशु के अडर क्वार्टर विशेष रुप से पिछले क्वार्टर में दर्द रहित गांठ दार सूजन मिलती है।
संक्रमण का तरीका
रोग पशु का कच्चा दूध एवं बिना पाश्चुरीकृत दूध व ऐसे दूध से बने पदार्थों का सेवन या कच्चा या अधपका मांस का सेवन करने से भी यह रोग हो जाता है।
रोग निदान:
प्रारंभिक अवस्था में संक्रमण अक्सर लक्षण रहित होता है। बाद की अवस्था में प्रगतिशील दुर्बलता निम्न स्तर का अस्थिर बुखार कमजोरी और अनिच्छा जैसे लक्षण पाए जाते हैं।। यह रोग प्रायः फेफड़ों वह उसके आसपास की सतह पर आक्रमण करता है जहां बाद में सख्त घाटे बन जाती हैं। फेफड़ों के प्रभावित होने के साथ पशुओं में एक नम खांसी होती है जो सुबह के समय और भी बढ़ जाती है। अंतिम अवस्था में पशु अत्यंत दुबला पतला हो जाता है।
सामान्यता पीड़ित पशु में क्षय रोग पहचानना अत्यंत कठिन होता है। पशुओं में रोग की पहचान हेत ट्यूबरक्युलिन को पशुओं की गर्दन पर इंट्राडर्मल 0.1 मिलीलीटर लगाने के बाद खाल की मोटाई को 72 घंटे के पश्चात वरनियर कैलिपर से नापते हैं। यदि खाल की मोटाई 5 मिलीमीटर या इससे अधिक हो एवं इंजेक्शन के स्थान पर स्पर्श करने पर सूजन, लालिमा या कठोरपन प्रतीत हो तो पशु परीक्षण में क्षय रोग से पीड़ित होने की संभावना व्यक्त करता है। लक्षिका ग्रंथियों के स्मीयर की स्टेनिंग मैं माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस की उपस्थिति देखी जा सकती है।
उपचार
1.स्ट्रैप्टोमाइशीन अंत: पेसी सूची वेध विधि से कई दिनों तक पशु के भार तथा अभिजाती के अनुरूप देने के साथ-साथ पौष्टिक आहार दिया जाए।
2. लिवर एक्सट्रैक्ट बी कांप्लेक्स के साथ इंट्रा मस्कुलर विधि से उचित मात्रा में कई दिनों तक दिया जाए।
रोग से बचाव एवं रोकथाम:
पशुओं में क्षय रोग की कोई संतोषजनक चिकित्सा नहीं है और ना ही कोई टीका उपलब्ध है। रोगी को अन्य स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर दें। पशुओं में क्षय रोग की रोकथाम हेतु निम्नलिखित तरीके अपना सकते हैं-
1. पशुओं को खरीदने से पहले पशुओं का ट्यूबरकुलीन टेस्ट करवाना चाहिए और जो पशु रोगी पाए जाएं उन सब को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए। प्रारंभ में यदि ट्यूबर कुलिन परीक्षण द्वारा, पुष्टि हो जाने पर उपचार संभव होता है परंतु इस रोग का उपचार लंबे समय तक चलने के कारण काफी महंगा पड़ता है।
2. पशुओं के रहने का स्थान पर्याप्त व हवादार होना चाहिए एवं उसमें दिन के समय सूर्य का प्रकाश अवश्य आता हो।
3. जो व्यक्ति पशुओं की देखभाल करता हो वह भी क्षय रोग से मुक्त हो।
4. रोगी पशु के गोबर, मूत्र, शराव एवं चारे आदि को जला देना चाहिए या गहरे गड्ढे में गाड़ देना चाहिए। पशुशाला यदि पक्की है तो उसे जीवाणुनाशक औषधि 5% फिनोल अथवा 5% फॉर्मलीन के घोल से भली-भांति धोना चाहिए।
5. मनुष्य पाश्चुरीकरण युक्त दूध का ही सेवन करें या दूध को ठीक प्रकार से उबालकर दूध का सेवन करें।
6. मनुष्य में इस रोग से बचाव के लिए बीसीजी का टीका बच्चों को कम उम्र में लगाया जाता है।
7. तपेदिक से संक्रमित पशु को परीक्षण और पशु वध के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। परंतु गोवंश के पशुओं को गौ सदन में भेजा जाना चाहिए।
संदर्भ-
1.वेटरनरी क्लिनिकल मेडिसिन लेखक डॉ अमलेंद्रु चक्रवर्ती
2. मरकस वेटरनरी मैनुअल