भारत में पशुओं के रोगों का जड़ी बूटियों (हर्बल विधियों ) द्वारा उपचार
Treatment of Animals by Herbal Methods in India
पशु चिकित्सा में दवाईयों का बहुत महत्व है। ग्रामीण पशुपालक आर्थिक कमी, जंगलों में जड़ी-बूटियों की प्रचुर उपलब्धता तथा जानकारी होने की वजह से महंगी ऐलोपैथिक दवाईयों का इस्तेमाल कम करते हैं। अधिकांश ग्रामीण पशुपालक परम्परागत देशी उपचार पर अघिक विश़्वास करतें हैं। देशी दवाओं के प्रयोग से उपचार करनें पर कोई बुरा असर नहीं होता, खर्च बहुत कम होता है तथा अचूक इलाज होता है। शहरों के आसपास बसने वाले पशुपालक अक्सर अपने पशुओं का उपचार ऐलोपैथिक दवाओं से करते हैं। परंतु इन दवाओं के अधिक उप़योग से जीवाणु, विषाणु, परजीवी आदि में लम्बे अर्से के बाद रोग प्रतिकारक शक्ति पैदा हो जाती है। इसके कारण मंहगी दवाओं के उपयोग से लाभ होने की अपेक्षा नुकसान अधिक होता है। इसलिए गांवों में परम्परागत देशी उपचार का महत्व बढ़ जाता है। कई जनजातीय पशुपालक विभिन्न औषधीय पौधों का महत्व, गुण एवं दोषों को जानते हैं तथा सूझबूझ से उपयोग करतें हैं।
काफी समय से देशी जड़ी-बूटियों के परम्परागत ज्ञान को जीवित रखने की आवश्यकता महसूस हो रही है। अन्यथा यह ज्ञान पिछली पीढ़ियों के जानकारों के साथ ही लुप्त हो जाएगा। साथ ही हमें आधुनिक पशु चिकित्सा विज्ञान को भी साथ लेकर चलना है। हमारा प्रयास है कि आधुनिक पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पुरातन परम्परागत ज्ञान के बीच एक सेतु स्थापित हो तथा अद्भुत गुणों वाली वनस्पतियों का पशुचिकित्सा में और अधिक प्रयोग हो।
ग्रामों में मुर्गियों का रख-रखाव ठीक से नहीं होने के कारण कुक्कुट पालकों को समुचित लाभ नहीं मिल पाता है। ग्रामीण मुर्गियों में मृत्यु बहुत अधिक होती है। यदि ग्रामीण मुर्गीपालन के प्रबंधन में थोड़ा सुधार लाकर मुर्गि-रोग की रोकथाम की जावें, तो यह मुर्गिपालक की आय में यथोचित बढ़ोत्तरी कर सकता है।
ग्रामीण मुर्गीपालन में मुख्यतः झुमरी रोग, माता-चेचक रोग, सर्दी-खांसी, दस्त रोग अधिक दिखायी देता है। इन रोगों से ग्रसित पक्षियों का उपचार स्थानीय ग्रामों में न हो पाने के कारण मृत्यु दर अधिक होती है। पशु चिकित्सालय और औषधालय ग्रामों से दूर होने के कारण उपचार सुविधा मुर्गियों को नहीं मिल पाती। ग्रामवासियों को वनग्रामों में उपलब्ध औषधीय पौधों, जड़ी-बूटीयों का थोड़ा ज्ञान अवश्य रहता है। यदि इस ज्ञान को समुचित दोहन कर स्थानीय ग्राम सहयोगकर्ता अथवा गौसेवकों को प्रशिक्षित किया जाये तो ग्रामवासियों को अपने पक्षियों के उपचार हेतु सस्ती एवं सुलभ उपचार सेवा प्राप्त हो सकेगी।
भारत की अर्थव्यवस्था ज्यादातर पशुधन पर निर्भर करती है, जो हर साल भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 4.8-6.5 प्रतिशत का योगदान करता है। भारत कृषि प्रधान देश है, पशुधन विभिन्न साधनों के रूप में भारत के लोगों के सामाजिक उत्थान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत में गाय, भैंस, बकरी और भेड़ों का ज्यादातर पालन किया जाता है।
2012 की पशुधन जनगणना के अनुसार भारत में 19 करोड़ गाय 10.8 करोड़ भैंस, 65 करोड़ भेड़ तथा 135 करोड बकरियाँ हैं। 2012 वर्ष के आकड़ों के अनुसार, बड़े जुगाली करने वाले पशु (गाय व भैंस) 50.5 प्रतिशत तथा छोटे जुगाली (भेड़ व बकरी) 39.1 प्रतिशत भारत के पशुधन में योगदान देते हैं (कृषि मत्रालय, 19वीं पशुधन गणना 2012 के अनुसार)।
आमतौर पर इन पशुओं में होने वाली बिमारियाँ खुरपका एवं मुंहपका, गलघौटू, बीक्यू, बिसहरिया, टिटेनस, आर.पी., पी.पी.आर. ब्लू टंग, कृमि सक्रमंण हैं। इन बिमारियों का प्रमुख कारण अनुचित टीकाकरण, बुरी प्रबंधन प्रथायें, दुषित चराई, भीड़भाड़ तथा स्वस्थ और रोग्रस्त पशुओं का मिश्रण हो सकता है।
अधिकतर निम्न स्तर भारतीय किसान 5-6 पशु पालते हैं। अधिकांश किसान अपनी आर्थिक स्थिति के कारण आधुनिक ऐलोपैथिक दवाओं का खर्च नहीं उठा सकते, जिसका परिणाम कम पशुधन उत्पादन तथा पशुओं के खराब स्वस्थ से होने वाला नुकसान के रूप में देखा जाता है।
महँगी एवं गांवों में आसानी से उपलब्ध न होने वाली एलोपैथिक दवाईयों के दुष्परीणामों मे संदिग्ध गुणवत्ता, पशुओं में कीमो प्रतिरोध का विकास तथा दूध व अन्य पशु उत्पादों में उच्च मात्रा में एन्टीबायोटिक तथा हार्मोन के अवशेषों का होना, का समावेश होता है। इस अवस्था में, हर्बल विधियों द्वारा पशुओं का उपचार, गरीबी के उन्मूलन में पशु पालकों को सहायता कर सकता है।
आदिकाल से ही पशुओं की बिमारियों में स्थानीय पौधो का औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। यह एक मान्यता प्राप्त तथ्य यह है कि पौधे विभिन्न रोगों के इलाज के लिए एक शक्तिशाली चिकित्सा सेवा है। विकासशील देशों में पशुओं के बेहतर स्वास्थ्य के लिए हर्बल चिकित्सा का उपयोग सफलता पूर्वक किया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, विकासशील देशों के 80 प्रतिशत लोग, मनुष्य एवं पशुओं के विभिन्न रोगों के उपचार तथा नियंत्रण के लिये काफी हद तक स्थानीय प्रथाओं पर निर्भर करते हैं। पशु पालक प्राथमिक स्वास्थ्य, देखभाल, उपचार और जानवरों के उत्पादकता के बनाये रखने के लिए विभिन्न प्रकार के पौधों तथा उनके उत्पाद का उपयोग करते हैं।
भारत विश्व के 12 जैव वैविध्यिक देशों में से एक है, जो वैश्विक पादप आनुवांशिक संसाधनों का 8 प्रतिशत हिस्सा प्रदान करता है। इस लिये विभिन्न प्रकार के पौधे, हर्बल दवाओं का बड़ा स्त्रोत है।
आमतौर पर पशुओं में होने वाले सुक्ष्म जीवाणु रोग निम्न श्रेणी में बांटा जा सकता है।
- जीवाणु रोग
क) गलघोटू
गलघोटू, गायों व भैंसों जो तीव्र, अत्याधिक घातक सेप्टीसीमिया, उच्च रूग्णता और मृत्यु दर का कारण है। इस रोग का प्रकोप वर्षाऋतु (उच्च आर्द्रता और उच्च तापमान) में होता है। यह रोग पाश्चुरैल्ला मल्टोसिडा के विभिन्न सीरोटाइप से होता है।
यह जीवाणु ग्राम-निगेटिव कोकोबैसिलस है जो पशुओं के मासाग्रसनी में रहने वाला एक सहभोजी है। पशुओं में ज्वर, सुस्ती, आगे न बढ़ने की इच्छा इस रोग के प्रथम संकेत हैं। लार स्न्नवण, तरल नाक का बहना और ग्रसनी की सूजन बाद के संकेत हैं। यह सूजन ग्रीवा क्षेत्र और पशुओं की छाती में फैल जाता है।
तालिका – 1: गलघोटु के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | उपयोगी भाग | बनाने की विधि | देने का तरीका |
ऑरिसएम टोर्टूओसुम | बाघ जनधरा | जड़ी बूटी | प्रकंद | इसके प्रकंद को रस निकालने के लिए कुचले और पशु को खिलाये | मुँह के द्वारा |
कैप्सिकम एन्नुम | शिमला मिर्च | जड़ी बूटी | फल | इसके फल को पीस कर कुछ समय के लिए उबाले तथा काढ़ा बनाकर पशुओ को पिलाये | मुँह के द्वारा |
ख) बिसहरिया/ एन्थ्रेक्स
बिसहरिया, बेसिलस एन्थ्रासिस नामक जीवाणु से होने वाला रोग है। इस रोग के सार रूप इस प्रकार है। त्वचा द्वारा सांस द्वारा, आंखों में और इंजेक्शन द्वारा। इस रोग के लक्षण संक्रमण एक दिन बाद से लेकर दो माह के बीच में शुरू हो सकते हैं।
त्वचा द्वारा होने वाले एन्थ्रेक्स की शुरूआत छोटे फफोलों के रूप में होती है जो बाद में दर्दविहीन व्रण में बदल जाता है। सांस द्वारा होने वाले ऐन्थ्रेक्स के लक्षण, बुखार, सीने में दर्द और सांस लेने में तकलीफ आदि है। ऑतों द्वारा होने वाले ऐन्थ्रेक्स के लक्षण मतली, उलटी, दस्त व पेट में दर्द है।
इन्जेक्शन द्वारा होने वाले ऐन्थ्रेक्स के लक्षण ज्वर तथा इन्जेक्शन स्थल पर होने वाले फोड़े हैं। ऐन्थ्रेक्स आमतौर पर जंगली और पालतू पशुओं (जैसे गाय, भेड़, बकरी, ऊँट, हिरन½ में होने वाला रोग है परन्तु यह इन्सानों में भी संक्रमित पशुओं के ऊतक दूषित पशुधन उत्पादों व बैसिलस एन्थ्रेसिस के स्पोर के सम्पर्क में आने से हो सकता है।
शाकाहारी पशुओं में यह उच्च मृत्युदर के साथ तीव्र सेप्टीसिमिया तथा रक्तस्त्रावी लिम्फऐडीनाइटिस के रूप हो जाता है।
तालिका – 2: बिसहरिया (एन्थ्रेक्स) के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | उपयोगी भाग | बनाने की विधि | देने का तरीका |
अकैलीफा इण्डिका | कुप्पी खोकली | जड़ी बूटी | पूरा पौधा | पूरा पौधा | मुँह के द्वारा |
बलांइटस एजिप्टिएका | – | पेड़ | जड़ | रस का पानी के साथ मिश्रण बनाये | मुँह के द्वारा |
ग) ब्लाक क्वाटर
यह एक जीवाणु जनित संक्रमक बिमारी है जो कि आमतौर पर ग्राम पोजिटिव जीवाणु क्लोसट्रिडियम च्योवाई के कारण होता है। यह गाय, भेड़ व बकरियों की तीव्र संक्रमण व जानलेवा बिमारी है।
संक्रमित जानवरों में कंकाल स्नायु विकषति, अवसाद युक्त, नेक्रोटाइजिंम बायस्फीटि मायोसाइट्रीस तथा जानलेवा सिसटमिक टॉक्सिमिया विकसित हो जाता है। छह: महीने से 2 वर्ष की आयु वाले सुपोषित जानवर को इस बिमारी का खतरा रहता है।
तलिका – 3: ब्लैक क्वार्टर के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | उपयोगी भाग | बनाने की विधि | देने का तरीका |
रूट चलेप्सिस | पिसमाराम | – | बीज | पानी के साथ मिश्रण बनाये | त्वचा पर |
बरलेरिया एकैंथोइड्स | वह्ल | झाड़ी | जड़ | जड़ का रस निकालकर पशुओ को पिलाये | मुँह के द्वारा |
घ) एक्टिनोबेसिलोसिस
एक्टिनोबेसिलोसिस एक विशिष्ट रोग है जो ग्राम नेगेटिव कोकोबैसिलई है जिसका संबंध एक्टनोबेसिलस जीनस से है। एक्टिनोबेसिलस लिनिरेसी के संक्रमण से वुड़न टंग (सरव जिहवा) नामक रोग होता है जिसमें कणिकागुल्मों में पीला, सख्त पस होता है।
गाय में यह जीवाणु मुख्यत: जिहवा एंव गरदन व सिर की लसिकाग्रंथि की असरग्रस्त करता है। संक्रमण की शुरूआत तीव्र शोर के साथ अचानक खाने व पीने की असमर्थता, लार स्त्रवण, तेज गति से तबियत बिगड़ना, दर्दनाक और शोरग्रस्त जिहवा एवं जिहवा पर गांठी व व्रण से होती है।
तालिका – 4: एक्टिनोबेसिलोसिस के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | उपयोगी भाग | बनाने की विधि | देने का तरीका |
इपोमिया स्पीशीज | बेहया | बेल | बीज | पीसे हुए बीजो का पानी के साथ मिश्रण बनाकर लगायें | त्वचा पर |
असमेल्ल कौलिर्हिजा | टूथएक प्लांट | जड़ी बूटी | पत्ताी | पत्तिायों को भूनकर पीसलें और नमक के साथ मिलाकर लगायें | त्वचा पर |
- कवक रोग
क) दाद
दाद, गायों में होने वाले त्वचा के रोगों में से सबसे आम है। यह रोग ट्राईकोफाईटोन वैरीकोसम से होता है, जो एक स्पोर बनाने वाला कवक है। इस रोग के मुख्य लक्षण त्वचा को व्हाईट क्षेत्र का बनना है जो कि बाह्य रेखा में आम तौर पर गोलाकार व उठा हुआ एवं विभिन्न आकार का होता है।
यह बछड़ो में आम तौर पर ऑंखों के चारों तरफ, कानों पर तथा पीठ पर पाये जाते हैं। वयस्क पशुओं में यह लक्षण सनि तथा पैरों में आम है। कभी-कभी यह घाव अंतरिक अंगों जैसे कि फेफड़े, नाक और मस्तिष्क में पाये जाते हैं जो बहुत घातक हैं।
तालिका-5: दाद के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | उपयोगी भाग | बनाने की विधि | देने का तरीका |
सोलानम इन्डिकम एल | बड़ी कटेरी, वनभन्ता | जड़ी बूटी | पत्ताी | 50 मिली पत्तिायो का रस दिन मे दो बार पिलायें | मुँह के द्वारा |
मऐसा चिसिया | बिलौनी | झाड़ी | तने की छाल | तने की छाल का रस निकालकर पिलायें | मुँह के द्वारा |
- विषाणु रोग
क) खुर पका एवं मुँह पका रोग
यह एक संक्रामक व घातक विषाणु जनित रोग है, जो कि विभाजित खुर वाले पशुओं को प्रभावित करता है। यह पिकोरनाविरिडी फैमिली के सदस्य एफथोवाइरस से होता है। इस बिमारी में तेज बुखार, जुबान, मसूड़ों, होठों, नाक और खुरों के बीच व थन पर फफोले मुख्य लक्षण के रूप में देखे जाते हैं।
इस रोग में अत्याधिक लार श्रवण व चपचपाहत की ध्वनि उत्पन्न होती है। अन्य लक्षणों में दूग्ध उत्पादन भूख में जुगाली में कमी तथा लंगड़ापन देखा जाता है। बछड़ों में मायोकाडीईटिस के कारण मृत्यु हो सकती है जोकि पोस्ट मॉर्टम के दौरान हृदय में टिग्रोईस नेक्रोसिस के रूप में देखी जा सकती है।
तालिका-6: खुर पका व मुँह पका के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | उपयोगी भाग | बनाने की विधि | देने का तरीका |
कस्कूटा रिफ्लेक्सआ | अमरबेल | बेल | पूरा पौधा | पौधे का पेस्ट बनाकर दिन मे दो बार प्रभावित अंगो लगायें | त्वचा पर |
डॉल्बेरगिया सैस्सू | शीशम | पेड़ | पत्तिायॉ | पत्तितयों का पेस्ट दही के साथ मिलाकर घाव पर लगायें | त्वचा पर |
- परजीवी रोग
(क) गोलाकृमि संक्रमण :
यह संक्रमण अधिकतर लक्षण रहित होता है। हालांकि भारी मात्रा में संक्रमण के कारण ऊतक विक्षति देखी जा सकती है जो कि परजीवी के द्वारा आंतरिक अंगों के अवरोध द्वारा आंत पर भारी दबाव के कारण हो सकता है।
यह संक्रमण पाचन तंत्र और कभी-कभी प्रवाह तंत्र में देखा जाता है। इस संक्रमण के सामान्य लक्षण जैसे पेट में दर्द, उल्टी, दस्त, भूख न लगना, खून की कमी वजन में कमी आदि है।
तालिका-7: गोलाकृमि संक्रमण के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | उपयोगी भाग | बनाने की विधि | देने का तरीका |
डीओसीरिया डेल्टोइडिया | बनियातकारी, हरईश | बेल | कंद | 5-7 छोटे चम्मच कंद का रस दिन मे बार पिलायें | मुँह के द्वारा |
मलोटस फिलिपपैंसिस | कमला, रैनी | पेड़ | फल | फल की सतह से प्राप्त लाल पाउडर को दवाई के रूप मे पेट के कीड़ो को निकालने के लिए प्रयोग करें | मुँह के द्वारा |
(ख) पृथककृमि संक्रमण
यह एक महत्वपूर्ण कृमि रोग है जोकि दो पृथककृमि जैसे कि फैसियोला हिपैटिका व फैसियोला जाइजैन्टिका के द्वारा होता है। प्रमुख लक्षणों के रूप में दस्त, वजन में कमी, पर्याप्त राशन के बावजूद शारीरिक क्षमता में कमी देखा जाता है।
बॉटल जौ भेड़ों में इस संक्रमण की आम अभिव्यक्ति है जबकि गायों में यह कभी-कभी देखने को मिलता है। गंभीर संक्रमण का परिणाम रक्ताल्पता हो सकता है।
तालिका-8: प्रथककृमि संक्रमण के उपचार के लिए प्रयोग होने वाले पौधे
पौधे का वैज्ञानिक नाम | स्थानीय नाम | पौधे का प्रकार | हिस्सा इस्तेमाल किया | बनाने की विधि | देने का तरीका |
श्चिम वल्लीची | चिलौनी, कनक, मक्रिसल | झाड़ी | तने की छाल | तने की छाल के पाउडर को पृथककृमि के उपचार के लिए खिलायें | मुँह के द्वारा |
निष्कर्ष
प्रकृति वनस्पतओं व पशु वर्ग से पूर्ण है। लगभग 4 लाख पौधों की प्रजातियां विश्व में उपलब्ध है। पशुधन रोगों के अचार के लिए आमतौर पर लोग ऐलोपैथिक दवाओं का उपयोग करते हैं, जिनकी कई प्रतिकूल प्रक्रियाएं हैं। इनके बजाए हर्बल उपचार का उपयोग लोगों के लिए लाभदायक है।
इसके उपयोग द्वारा पशुओं को एलोपैथिक दवाओं के प्रतिकूल प्रभाव से बचाया जा सकता है। यह तकनीकि कम लागत के साथ न्यूनतम प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं व आसानी से उपलब्धता में ध्यान में रखते हुए पशुओं के उत्थान के लिए लाभदायक है।
डॉ प्रशांत किशोर, पशुधन विशेषज्ञ दंतेवाड़ा
Booklet on Prakritik Pashu Chikitsa Padhati