पशु चिकित्सा में सामान्य व्याधियों का उपचार
दुधारू पशुओं में अनेक कारणों से बहुत सी बीमारियां होती हैं। बीमारी की वजह से पशुओं की दूध उत्पादन क्षमता प्रभावित होती है। इसलिए समय पर उपचार ज़रूरी है। दुधारु पशुओं में कई तरह के रोग होते हैं जिसका असर न सिर्फ पशुओं की सेहत पर होता है, बल्कि वह दूध देना भी बंद कर देते हैं जिससे पशु मालिकों को बहुत आर्थिक नुकसान होता है। ऐसे में पशु में किसी तरह के रोग के लक्षण दिखने पर तुरंत उपचार किया जाना ज़रूरी है। यदि आप भी डेयरी उद्योग से जुड़े हैं तो दुधारु पशुओं को होने वाला प्रमुख रोग और उनके उपचार के बारे में आपको पता होना चाहिए।
घाव– घाव से खून बन्द करने के लिए रुई को 1% फिटकरी या फिनायल के घोल में मिलाकर व निचोड़ कर घाव में भरकर तथा 10-15 मिनट तक इस रुई को हाथ से दबाए रखें। खून बन्द होने पर प्रतिदिन 1 भाग फिनाइल 8 भाग सरसों या अलसी के तेल में घोल बनाया हुआ लेप लगाकर पट्टी बाँधनी चाहिए। खुर पर घाव होने पर खुर को 1% तूतिया के घोल में 15-20 मिनट प्रति दिन डुबोना चाहिए। आग से जले घाव पर चूने का पानी और अलसी का तेल बराबर भाग मिलाकर खूब फैंटकर लगाना चाहिए। थन पर घाव होने पर थन को पोटाश से धोकर बोरिक एसिड प्रतिदिन लगाना चाहिए।
मोच– ताजी मोच ठण्डे पानी से सेंक दी जाए और ठण्डे पानी की पट्टी बांध दी जाए। पुरानी चोट गरम पानी में नमक डालकर सेंका जाए। इसके बाद अलसी का तेल 400 मिली, कपूर 20 ग्राम, तारपीन का तेल 40 मिली मिलाकर हल्के हाथ से मालिश की जावें। इसके ऊपर कोरी रुई की पट्टी बांध दी जाए।
खुजली– खुजली वाले स्थान के बाल काटकर साबुन से धोना चाहिए। 2 भाग गन्धक, 8 भाग अलसी का तेल तथा 1 भाग कोलतार मिलाकर मिश्रण को खुजली वाले स्थान पर दिन में दो बार लगाएं।
पेचिश– इसमें पेट में मरोड़ व गोबर के साथ सफेद या लाल म्यूकस जैसा पदार्थ आता है। इसके लिए खड़िया मिट्टी 20 से 30 ग्राम, कत्था 30 से 60 ग्राम व बेल का गूदा 300 ग्राम मिलाकर देना चाहिए।
कब्ज– इसमें गोबर कड़ा होकर निकलता है जिससे पशु को तकलीफ होती है। इसमें किसी परगेटिव जैसे अण्डी का तेल, ईसबगोल की भूसी देनी चाहिए।
अफरा– गले-सड़े पदार्थों को खाने से अधिक गैस बनती है एवं पशु का पेट फूल जाता है। 50 मिली तारपीन का तेल, 40 ग्राम हींग, 160 ग्राम नौसादर, 500 मिली अलसी के तेल में मिलाकर पिलाएं। बच्चों को इस खुराक की 1/4 मात्रा दें। यदि पेट फूलना बन्द नहीं हो रहा है और पशु की हालत चिन्ताजनक है तो पशु के बायीं ओर कोख के मध्य में ट्रोकर और केनुला घुसेड़कर गैस निकाल देना चाहिए। गैस कम होने पर 2-3 चम्मच फार्मेलीन केनुला द्वारा पेट में पहुंचा देना चाहिए जिससे पेट में कोई बाहरी जीवाणु जीवित न रह सके।
जेर न गिरना– पशु की जेर न गिरने पर 50 ग्राम अजवाइन, मैंथी, सौंठ प्रत्येक 250 ग्राम, गुड़ 250 ग्राम व टिन्चर इरगट 10 ड्राप, 1 लीटर पानी में मिलाकर व उबालकर पशु को दे दें। आवश्यकता पड़ने पर 4 घंटे बाद दुबारा दें।
खुरों का दुखना– पशुओं को गीली व गन्दी जगह पर बाँधने से खुर दुखने लगते हैं। कभी-कभी पत्थर काँटे आदि लगने से भी यह रोग हो जाता है। उपचार के लिए प्रभावित पैर से सारी गन्दगी साफ करके 1% नीला थोथा के गर्म घोल में खुर को आधे घण्टे तक डुबोएं। बाद में उसे सुखाकर टिन्चर आयोडीन पट्टी बाँध दें।
सींग टूटना– पूरा सींग टूट जाने पर लोहे से दाग कर खून का बहना रोकें और उस पर कीटाणुनाशक दवा लगाकर पट्टी बांध दें। यदि सींग का बाहरी भाग ही टूटा है और भीतरी भाग नहीं तो टिन्चर आयोडीन की पट्टी बाँँधने से ही खून बहना बन्द हो जाता है। यदि सींग के भीतरी और बाहरी दोनों भाग टूट गए हों तो सींग को काटकर एकसार कर दें और उस पर टिन्चर फैरीनरक्लोर या टिन्चर बैंजॉइन डालकर पट्टी बाँध दें।
हड्डी टूटना– गहरी चोट लगने पर पशुओं की हड्डी टूट जाती है। हड्डी के टूटे हुए दोनों भागों को ठीक तरह से जोड़ कर चारों ओर से बाँस की खपच्चियाँ लगाकर उन्हें पट्टी बाँधकर कस दें और पशु को आराम करने दें। पशु चिकित्सक टूटी हुई हड्डियों को जोड़ने के लिए 4 से 6 सप्ताह के लिए प्लास्टर ऑफ पेरिस की पट्टी बाँधते हैं।
आँख दुखना– किसी प्रकार की चोट लगने या आँख में धूल के कण, अनाज के छोटे-छोटे टुकड़े, कीड़े या बाल पड़ जाने से पशुओं आँखें दुखने लगती हैं। पशु की आँख लाल पड़कर दर्द करने लगती है, पलकें सूज जाती हैं और आँखो में पानी जैसा गाढ़ा, क्रीम जैसा तरल पदार्थ निकलने लगता है। आँख को दिन में 3-4 बार बोरिक अम्ल के गर्म लोशन से धोएं तथा “टेरामाइसिन” मलहम आँख में 3-4 बार प्रतिदिन लगाएँ।
नाक से खून गिरना– नाक में चोट लगने या अन्य कारणों से नथुने में खून बह सकता है। खून रोकने के लिए नमक या 5% फिटकरी का घोल या पानी में सिरका घोल कर रोगी पशुओं के नथुने में डालें। पशु का सिर इस अवस्था में रखें कि घोल गले में न पहुँच पाए। नाक पर बर्फ या ठण्डी पट्टियाँ लगाकर पशु को ठण्डे स्थान पर आराम करने दें। कभी-कभी जोंक लग जाने के कारण भी खून आता है। नाक में नमक का घोल डालने से जोंक चलने लगती है और उसे चिमटी से बाहर निकाला जा सकता है।
चर्म रोग– चर्म रोग अनेक कारणों से हो सकते हैं जैसे भौतिक (चोट लगना, जलना) रासायनिक (अम्ल, क्षार, आदि) तथा जैविक (जीवाणु, विषाणु, फफूँद) जो चर्म रोग जैविक कारणों से होते हैं तथा जो पशुओं से मनुष्यों में और मनुष्यों से पशुओं में फैल सकते हैं ऐसे रोगों में फफूँद से होने वाले चर्म रोगों का प्रमुख स्थान है।
रोग की प्रारम्भिक अवस्था में कोई विशेष लक्षण नहीं दिखाई पड़ता। बाद में चमड़ी के भाग पर फफूँद की बढ़वार के समय कुछ विषैले पदार्थ बाहर निकलते हैं जिनके कारण रोगी खुजली व जलन अनुभव करता है। रोगग्रस्त स्थान पर रक्त संचार बढ़ जाता है और रोगी की त्वचा लाल हो जाती है। फफूँद मूल स्थान से हटकर चारों ओर बढ़ने लगती है। चमड़ी पर धीरे-धीरे बाल गिरने लगते हैं और चकते बाल रहित हो जाते हैं। चकते अधिकतर शुष्क होते हैं और पतली पपड़ी या
खुरंट छूटते दिखाई पड़ते हैं। कभी-कभी हल्का पीला द्रव या अधिक खुजलाने पर रक्त भी निकलता दिखाई पड़ता है। बाद में ऐसे स्थानों पर खाल कड़ी व मोटी हो जाती है। पशुओं को समय-समय पर नहलाएं तथा रोग होने पर शीघ्र ही उपचार करवाएँ। सेलिसिलिक एसिड (2.0%) तथा बैंजॉइक अम्ल (6%) से बना मरहम उपयोगी है। पुराने सूखे दाद पर टिन्चर आयोडीन व गन्धक लगाएँ। कभी-कभी रोग स्वतः ही ठीक हो जाता है