पशुओं में ‘ वृक्क अश्मरी ‘ रोग
डॉ जयंत भारद्वाज , डॉ अमिता दुबे , डॉ यामिनी वर्मा , डॉ मधु स्वामी
व्याधि विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय, जबलपुर ( म.प्र. )
पशुओं में वृक्क तंत्र से संबंधित कई रोग पाए जाते हैं | ‘ वृक्क अश्मरी रोग ‘ इनमें से ही एक है | आज हम जानेंगे कि यह रोग क्या है , किसमें होता है , किन कारणों से होता है, कहाँ होता है, कैसे होता है , इसके लक्षण क्या हैं तथा यदि यह रोग हो जाए तो इसका निदान, इलाज एवं रोकथाम कैसे संभव है ? इस लेख में हम इस रोग से संबंधित सभी महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डालेंगे |
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‘ वृक्क अश्मरी रोग ‘ क्या है –
विभिन्न लवणों के क्रिस्टलों का मूत्र पथ के किसी हिस्से में जमा हो जाना ही ‘ वृक्क अश्मरी ‘ रोग है | ये क्रिस्टल स्ट्रुवाइट , ऑक्सालेट , एपेटाइट , कार्बोनेट , सिलिका, यूरेट , सिस्टीन , जैंथिन, बैंजो़कौमरीन इत्यादि हो सकते हैं | सामान्य भाषा में इसे ‘ पथरी रोग ‘ भी कहा जाता है | पथरी का रंग उसके अवयवों पर निर्भर करता है जैसे कि सामान्यत: स्ट्रुवाइट तथा ऑक्सालेट सफेद रंग के , यूरेट , सिस्टीन , बैंजो़कौमरीन तथा जैंथीन पीले रंग और सिलिका भूरे रंग का होता है | इनकी सतह चिकनी या खुरदरी हो सकती है | ये ठोस, कोमल तथा भुरभुरे होते हैं |
किसमें होता है –
यह रोग गाय , भैंस , बकरी, भेड़, श्वान, बिल्ली आदि में हो सकता है | यह रोग नर पशु और मादा पशु दोनों में ही हो सकता है | परंतु चूंकि नर में मूत्र मार्ग का व्यास कम होता है एवं उसकी लंबाई अधिक होती है , अतः उनमें इस रोग का खतरा ज्यादा होता है |
कहाँ होता है –
सामान्यतः पथरी वृक्क की श्रोणि में, वृक्क, मूत्रवाहिनी तथा मूत्राशय के जीवितक में, मूत्राशय की गर्दन में तथा मूत्र मार्ग में पाई जा सकती है | सांड में पथरी मूत्र मार्ग में इस्चियल चक्र पर और अवग्रहांत्र वक्र के समीपस्थ अंत पर प्रमुखत: पाई जाती है |
कारण –
पीएच बदलना, मूत्राशय का संक्रमण , क्रिस्टलाइड का कोलाइड से अधिक मात्रा में हो जाना, शरीर में पानी की कमी, कठोर जल का सेवन , कैल्शियम और विटामिन डी की अधिकता , विटामिन ए की अल्पता , एस्ट्रोजन की अधिकता, एंटीबायोटिक जैसे कि सल्फोनामाइड का अधिक सेवन, मूत्र ठहराव इत्यादि इस रोग के प्रमुख संभावित कारण हैं |
व्याधिजनन –
उपर्युक्त किसी भी कारण से वृक्क या मूत्र पथ में सर्वप्रथम एक उद्गम केंद्र बनता है जिस पर लवणों के क्रिस्टल इकट्ठे होते जाते हैं और अंत में पथरी का रूप ले लेते हैं |
लक्षण –
पेशाब करने में दिक्कत , पेशाब में जलन , दर्द, रक्त का आना,पेशाब में अनियमितता, बैचेनी, भूख कम लगना ,मूत्रमार्ग का फटना,पशु का पेट की ओर लात मारना, पेट के निचले हिस्से में द्रव का भर जाना, गंभीर स्थिति में पेशाब का न आना , मूत्राशय का फटना इत्यादि लक्षण मिल सकते हैं | ऐसे पशु वृक्कगोणिकाविस्फार तथा वृक्कगोणिका शोथ के लिए अति संवेदनशील होते हैं |
परिग्लन निष्कर्ष –
इस रोग में तना हुआ , सूजा हुआ या फटा हुआ मूत्राशय , उसकी दीवाल पतली तथा उससे रक्तस्राव , मूत्राशय की श्लेष्मा झिल्ली में छाले , फैली हुई मूत्र नली और वृक्क श्रोणि, पेशाब में रक्त का थक्का, पथरी के आसपास की श्लेष्मा झिल्ली में छाले तथा प्रॉपरिया लेमिना नामक परत में स्थानीय रक्तस्राव, मूत्राशय, मूत्रनली और मूत्रमार्ग की श्लेष्मा झिल्ली का क्षय इत्यादि देखने को मिल सकता है |
निदान –
इस रोग का निदान लक्षणों के आधार पर , पेशाब की जांच, सीरम में यूरिया तथा क्रिएटिन के स्तर की जांच , क्षरश्मि – चित्रण, पराश्रव्य चित्रण आदि के द्वारा किया जा सकता है |
इलाज –
शुरुआत में इस रोग में उचित एंटीबायोटिक दी जा सकती हैं | साथ ही पशु को उचित द्रव देवें | रक्त में यूरिया का स्तर नियंत्रण करने के लिए दवाई दे सकते हैं तथा पीएच बदलने के लिए अम्लीय दवाएं दी जा सकती हैं | दर्द निवारक दवाएं भी देवें | गंभीर स्थिति में शल्य चिकित्सा जैसे कि मूत्राशय छेदन, मूत्रमार्ग छेदन या यूरेथ्रोस्टॉमी की जा सकती है |
नियंत्रण –
क ) पशुओं को पीने के लिए कठोर जल ना देवें |
ख ) पशुओं के भोजन में विटामिन ए अवश्य देवें |
ग ) कैल्शियम तथा विटामिन डी पशुओं को उचित मात्रा में ही देवें |
घ ) पशुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध कराएं |
अत: हमारे पशुपालक भाई उपर्युक्त बातों का ख्याल रखकर अपने पशुओं को ‘ वृक्क अश्मरी रोग ‘ से बचा सकते हैं तथा प्रसन्नता पूर्वक जीवन – यापन कर सकते हैं |