गाय और भैंसों के विषाणु जन्य रोग
जोशी गौरव संतोष राव, डॉ राकेश कुमार, बिसेन हर्ष कृष्ण कुमार, डॉ आर डी पाटिल एवं डॉ आर के असरानी
पशु विकृति विज्ञान विभाग, डॉ. जी सी नेगी पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान महाविद्यालय चौधरी सरवण कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश, 176062
विषाणु क्या है ?
विषाणु एक प्रकार के अति-सूक्ष्म संक्रामक जीव होते है जो कोशिकाओं के अंदर रहते है और घरेलू जानवरों में जानलेवा रोग उत्पन्न करते है। इनका संक्रमण विविध तरीकों से होता है जैसे की- साँस, संपर्क, मौखिक, यौन, काटने वाली मक्खियाँ इत्यादि मार्गों से होता है। एक विषाणु सजीव माध्यम के बिना पुनरुत्पादन नहीं कर सकता। यह सैकड़ों वर्षों तक सुप्तावस्था में रह सकता है और किसी सजीव प्राणी के संपर्क में आते ही ऊस प्राणी के कोशिकाओं का भेद कर संक्रमण पूर्ण करके रोग प्रस्थापित कर देता है। प्रवेश के बाद वह कोशिका के मूल आरएनए एवं डीएनए के जनेटिक संरचना को अपने जनेटिक सूचना के माध्यम से बदल देता है और अपने जैसे कई जीवाणुओं का उत्पादन उस कोशिका से करवाता है।
विषाणु का वर्गीकरण –।
आकार के आधार पर जीवाणुओ को वर्गीकृत कर सकते है:
- पोषद परिसर के आधार पर- विस्तृत श्रेणीयों को संक्रमित कर सक्ने वाले एवं विशिष्ट श्रेणीयों को संक्रमित कर सक्ने वाले।
- संक्रमण के प्रकार के आधार पर जीवाणुओं का वर्गीकरण- पचनप्रणाली, श्वसनप्रणाली, तांत्रिकाप्रणाली, प्रजननसंस्था, उत्सर्जनप्रणाली, कर्करोग इत्यादि विविध प्रणालियों को संक्रमित करने वाले।
गाय के विषाणुजन्य रोग
- खुरपका और मूंहपका रोग
यह रोग गाय, भैंस व दो खुरो वाले अन्य जानवरों में होने वाला रोग है जो तेजी से फैलता है और जानवर को गंभीर रूप से बीमार बना देता है। जैसा की इस रोग का नाम हैं, इससे जानवर क मूंह और खुर प्रभावित होते है।
रोग का कारक विषाणु
यह रोग अपथोंवायरस के कारण होता है । इस विषाणु के प्रमुख सात प्रकार है। इन्हे ए(A), ओ(O), सी(C), सैट-१(SAT-1), सैट-२ (SAT-2), सैट-३ (SAT-3), एशिया-१(Asia-1) के नाम से जाना जाता है
जीवाणु कैसे फैलता है-
अपथोंवायरस से होने वाला संक्रमण पहले से संक्रमित जानवर के संपर्क में आने के कारण होता है । संक्रमित जानवर की लार, मूत्र, दूध, गोबर, त्वचा इत्यादि द्रवों में पाया जाता है । जब भी कोई स्वस्थ जानवर इनके संपर्क में आता है तब उसे यह रोग हो जाता है । यदि कोई मनुष्य इनके संपर्क में आकर किसी और स्वस्थ जानवर को छूता है तब भी संक्रमण की संभावना होती है ।
प्रथमतः जानवर में लगातार दो से तीन दिन तक ज्वर
- मुहँ से चिपकिपी एवं गाढ़ि लार बनना व उसी लार का मुह से जमीन पर टपकना
- चारा तथा दाना न खा पाना
- चल न पाना य फिर लँगड़ाते हुए चलना
- शारीरिक कमजोरी तथा हड्डियों का एवं पसलियों का दिखना
- दूध का उत्पादन घटना
- गोजातीय वाइरल दस्त- श्लेमिक रोग
यह रोमंथक जानवरों को प्रभावित करने वाला गंभीर एवं घातक रोग है इसका नाम भ्रामक है क्योंकि यह विशेष रूप मे पाचन तंत्र को प्रभावित नहीं करता है बल्कि एक महत्वपूर्ण संकेत के रूप मे प्रतिरक्षा दमन होता है। बीवीडी वायरस संक्रमण से जुड़ा नैदानिक रोग युवा रोमंथक जानवरों मे सबसे आम है।
रोग का कारक विषाणु
यह रोग पेस्टिवायरस के कारण होता है। इस वायरस के प्रमुखतः दो प्रकार है – बीवीडी-1 , बीवीडी-2
विषाणु कैसे फैलता है-
पेस्टिवायरस का संक्रमण पहले से संक्रमित जानवर के संपर्क में आने के बाद या लगातार संक्रमित जानवर के संपर्क में आने से होता है। महत्वपूर्ण बात यह है की इसका संक्रमण अंतरगर्भाशयी मार्ग से भी होता है, यानि की जो बछड़ा जन्म लेगा वह जन्म से ही संक्रमित होगा और जीवनभर संक्रमित रहता है। बछड़े की गर्भ में मृत्यु होना भी एक संभावना है।
गोजातीय वाइरल दस्त- श्लेमिक रोग के लक्षण
- तेज ज्वर, अवसाद
- दस्त एवं थूथन के रेशेदार श्लेष्मा के साथ अत्यधिक लार बनना व टपकना
- गंभीर रूप से प्रभावित जानवर में मूंह, नाक और थूथन में छाले पड़ना
- खाना कम खाना, शारीरिक कमजोरी, उत्पादन काम होना, शरीर में पानी की कमी होना, जुगाली बंद होना
- गर्भपात(३-७ माह), मृतजन्म, ममीकृत भ्रूण का जन्म होना
- प्रसवोत्तर गर्भाशयशोत से जानवर की मृत्यु संभावित है
- संक्रमित गोजातीय राईनोट्रकाइटीस/ लाल नाक
यह गायों का एक अत्याधिक संक्रामक विषाणुजन्य रोग है। यह मुख्यतः संकरित गायों में मिलता है और संक्रमण के बाद बांझपन का कारण बनता है जिससे कृषकों का भारी नुकसान होता है।
रोग का कारक विषाणु –
आईबीआर बोवाइन हर्पीज़ वायरस- 1 (BHV-1) के कारण होता है।
विषाणु कैसे फैलता है –
सभी उम्र के जानवर इससे प्रभावित होते है वायरस मुख्य रूप से एक संक्रमित जानवर से असंक्रमित अतिसंवेदिनशील गायों मे श्वसन, नेत्र या जननांग स्त्राव के सीधे संपर्क से फैलता है। यह तेजी से बछड़ों के झुंड में फैलता है। प्रभावित बछड़ों का स्त्राव अति संक्रमणशील होता है और 10-12 दिन तक प्रभावशाली रहता है। संक्रमण का एक अन्य महत्वपूर्ण स्त्रोत संक्रमित सांड और उसका वीर्य है। इस वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान करने से अतिसंवेदनशील गाय को संक्रमित करता है।
संक्रमित गोजातीय राईनोट्रकाइटीस/ लाल नाक के लक्षण-
- श्वसन रूप- युवा गायें अति संख्या मे प्रभावित होती है। प्रथमतः ज्वर आना, भूक ना लगना व नाकसे श्लेष्मयुक्तस्त्राव, फैली हूई नसीकाए, दमा, खांसी
- नवजात रूप- तीव्र और घातक प्रकार जिसमे कोई श्वसन नैदानिक संकेत नहीं देखे जाते और मृत्यु हो जाती है
- जननांग रूप- मुख्य रूप से गाय जननांग शामिल होते है।
नैदानिक संकेत गाय में संभोग के २४-७२ घंटों बाद दिखते है योनिमुख की श्लेष्मा बहुबिन्दुस्वरूप लाल होती है और तदनंतर पुटिका और फुंसी बनती है।
- गर्भपात- झुंड के 60 प्रतिशत गर्भवती गायों में गर्भपात हो जाता है। साधारणतः गर्भपात 7 से 9 माह के अंतराल में होता है। भ्रूण 24 से 36 घंटे मृत्यु के बाद गर्भाशय से बाहर आता है और मरणोत्तर गला हुआ होता है
- आँख- नेत्रश्लेष्मलाशोथ और आखों का धुंदलापन
- रैबीज़/पशुओं में पागलपन
यह रोग सभी गर्म खून वाले प्राणियों में होता है। यह रोग जनस्वास्थ के दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण है। एक बार संक्रमित होने के बाद मृत्यु की संभावना सौ प्रतिशत होती है तथा इसका कोई इलाज नहीं है। जैसे ही किसी स्वस्थ पशु को इस बीमारी से ग्रस्थ पशु काट लेता है उसे तुरंत नजदीकी पशु चिकितक्षालय में ले जा कर इस बीमारी से बचाव का टीका लगवाना चाहिए। इस कार्य में ढील बिल्कुल नन्ही बरतनी चाहिए क्युकी यह टीके तब तक ही प्रभावकारी हो सकते है तब तक जब तक की पशु में रोग के लक्षण पैदा नहीं होते।
रोग का कारक विषाणु
यह रोग लाईसावायरस के कारण होता है
जीवाणु कैसे फैलता हैं-
मुख्यता इसका संक्रमण हल्काएँ कुत्ते, बिल्ली, बंदर, गीदड़, लोमबड़ी या नेवले के काटने से होता है। हलकाये जानवर की लार महतवपूर्ण स्रोतह है, काटने से या या शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव क उप्पार रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैलते है। शरीर में प्रवेश करते ही नाड़ियों क द्वारा मक्षतिष्क में पोहोचकर उसमे बीमारी क लक्षण पैदा करते है विषाणु के सहरीर में घाव आदि क माध्यम से प्रवेश करने के बाद 10 दिन से 210 दिनों तक की अवधि में यह रोग हो सकता है। मक्षतिष्क के जितना नजदीक घाव होता है उतना ही जल्दी बीमारी क लक्षण पशुओं में पैदा हो जाते है।
रोग के लक्षण-
यह बीमारी मुख्यतः दो रूपों में पाई जाती है।
उग्र रूप
- कभी कभी शरीर का तापमान बढ़ता है
- दो से तीन दिन के बाद स्वभाव में चिड़चिड़ापन आजाता है काल्पनिक अथवा नीरजीव वस्तुओं को काटना, निर्जीवी वस्तुओं को टक्कर मारना, जोर जोर से जानवरों में रंभाना
- पशु काफी उत्तेजित अवस्था में तेजी से भागने की कोशिश करता है।
- अन्ततः पशु दुर्बल होजाता है और उसकी मृत्यू हो जाती है ।
शांत रूप
- इस रूप में,रोग के लक्षण बोहोत कम अथवा नहीं के बराबर होते है
- पशु अवसाधग्रस्थ होजाता है और खाना पीना छोड़ देता है
- अन्ततः पशु दुर्बल होजाता है और उसकी मृत्यू होजाती है