प्रमुख संचारी रोगों के कारण, लक्षण रोकथाम एवं उनसे बचाव

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प्रमुख संचारी रोगों के कारण, लक्षण रोकथाम एवं उनसे बचाव

1.राजेश कुमार सिंह , पशु चिकित्सा पदाधिकारी जमशेदपुर
2. डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चौमुंहा मथुरा
३. डॉ उदित जैन सहायक आचार्य वेटरनरी पब्लिक हेल्थ दुवासु मथुरा

संचारी रोग ऐसे संक्रामक रोग हैं जो विभिन्न प्रजातियों जैसे : मनुष्यों से मनुष्यों में, पशुओं से मनुष्यों में अथवा मनुष्यों से पशुओं तक संचारित होते हैं I अन्य शब्दों में कहें तो रोगों के विभिन्न कारक जो अनेकानेक प्रजातियों जिनमें मनुष्य भी सम्मिलित है , में विभिन्न संचारी रोगों का कारण बनते हैं ; पशुजन्य रोग कहलाते हैं I पशुजन्य रोग विभिन्न प्रकार यथा: हवा के द्वारा, सीधे संपर्क द्वारा, अनजाने में रोग संचारी माध्यम के संपर्क में आने के द्वारा , मुख द्वारा खाद्य ग्रहण करने से तथा कीड़े मकोड़ों के काटने से फैलते हैं I ऐसे लोग जो परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से प्रायः पशुओं के संपर्क में आते हैं विभिन्न विषाणुओं, जीवाणुओं, प्रोटोजोआ , कवक तथा अन्यान्य बाह्य व आंतरिक परजीवियों के माध्यम से पशुजन्य रोगों के प्रथम लक्ष्य बनते हैं I आधुनिक युग के अनेकानेक रोग जिनमें अनेक जानपदिक रोग भी सम्मिलित हैं , का प्रारंभ पशुजन्य रोगों के रूप में ही हुआ है I वैसे पूर्णतया यह स्पष्ट कर सकना तो अत्यंत दुष्कर है कि कौन सा रोग अन्यान्य पशुओं के माध्यम से मनुष्यों तक संचारित हुआ परन्तु इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि खसरा, चेचक/शीतला (Small Pox), एच.आई. वी. एवं रोहिणी ( Diphtheria) रोग कुछ इसी प्रकार से मनुष्यों तक पहुंचे I इसी प्रकार जुकाम तथा तपेदिक ( T.B.) भी विभिन्न प्रजातियों तक अपनी पैठ बना सकने में सफल हो सका I वर्तमान समय में पशुजन्य रोगों की अत्यधिक चर्चा उनके नितांत नवीन रूप में प्रकटीकरण , परिवर्धित घातक रूप में अल्प प्रतिरक्षा वाले बहुसंख्य मनुष्यों को प्रभावित करने तथा संचार माध्यमों की अति सक्रियता के कारण हो रही है I संयुक्त राज्य अमेरिका में सन् १९९९ में सर्वप्रथम West Nile Virus की उपस्थिति न्यूयॉर्क में देखी गयी पर सन् २००२ में इसने सम्पूर्ण संयुक्त राज्य अमेरिका को अपनी चपेट में ले लिया I कुछ ऐसे ही ब्यूबोनिक प्लेग , रॉकी माउंटेन स्पॉटेड फीवर तथा लाइम (Lyme) फीवर अदि भी मनुष्यों में संचारित हुए I एक अनुमानानुसार लगभग २०० ऐसे रोग या संक्रमण हैं जो प्राकृतिक रूप से पशुओं से मनुष्यों तक संचारित होते हैं I इनमे से कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण एवं घातक पशुजन्य रोगों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत है :
रेबीज़ : अर्लक रोग या Hydrophobia
एक ऐसा विषाणुज रोग है जिसमें मुख्यतः चमगादड़ या कुत्ते के काटने से, उसकी लार के द्वारा विषाणुज विषाक्तता के कारण मानव / काटे जाने वाले पशु के मष्तिष्क तंतु कुप्रभावित हो जाते हैं और मष्तिष्कशोथ (Encephalitis ) की स्थिति पैदा हो जाती है I एक अनुमानानुसार इस रोग के कारण प्रति वर्ष विश्व में लगभग ५५००० व्यक्ति उचित उपचार के अभाव में जिनमें अधिकतम बच्चे होते हैं , काल के गाल में समा जाते हैं I
• बर्ड फ्लू :
एवियन इन्फ्लुएन्ज़ा या फाउल प्लेग , आरथोमिक्सोवायरिडी परिवार के इन्फ्लुएन्ज़ा टाइप ए प्रकार के विषाणुओं के माध्यम से फैलता है I इस विषाणु का संचरण पक्षियों द्वारा मनुष्यों में तथा मनुष्यों द्वारा पक्षियों में संभावित है Iजब मनुष्य और बर्ड फ्लू के विषाणु आपस में हीमाग्लुटिनिन व् न्युरामिनीडेज एंटीजन का लेन देन करते हैं तो पुनः संयोजन के माध्यम सेः पक्षियों से मनुष्यों और मनुष्यों से पक्षियों में इस रोग का संचरण हो जाता है Iमनुष्यों में इस रोग के प्रमुख लक्षण खॉसी , सर्दी ,जुकाम , आँखों में लाली और उससे निरंतर पानी गिरना , सांस लेने में परेशानी , शरीर में ऐंठन तथा ज्वर आदि प्रमुख हैं Iसंचार माध्यमों द्वारा बहुप्रचारित इस महामारी को नियंत्रित करने के लिए हांगकांग में दिसंबर १९९७ में लगभग १६ लाख मुर्गियों व अन्य पक्षियों को सामूहिक रूप से सुरक्षिततः नष्ट कर दिया गया I इस रोग के विषाणु के लिए विभिन्न देशों की भौगोलिक सीमा कोई अर्थ नहीं रखती तथा विभिन्न देश जिनमें भारत भी सम्मिलित है इस रोग के प्रभावशाली बचाव के निरोधी उपाय प्रायः अपनाते रहते हैं I
स्वाइन फ्लू :
यह रोग एक प्रकार के आर. एन .ए . विषाणु आर्थोमिक्सो वायरस से होता है जो बहुत जल्दी- जल्दी अपना स्वरुप बदलता रहता है जिससे कारण इसकी सटीक पहचान समय रहते न हो पाने के कारण अधिक जन –धन की हानि होती है I साथ ही साथ हीमोफिलस जीवाणु द्वारा रोग की आक्रामकता और भी बढ़ जाती है I इस रोग का संचरण मुख्यतः वायु के द्वारा होता है I सूअर के फेफड़े में उपस्थित गोल कृमि इस रोग के प्रसार में मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं जिससे शूकर मांस के रसिकों में यदि मांस को भलीभांति पका कर न खाया जाये तो इस रोग के प्रसार की अधिक सम्भावना बन जाती है I मनुष्यों में इस रोग के प्रमुख लक्षणों में खॉसी , सर्दी ,जुकाम , आँखों में लाली , उससे निरंतर पानी गिरना , सांस लेने में परेशानी , अशक्तता, प्रवाहिका ( Diarrhoea), शरीर में ऐंठन तथा ज्वर आदि प्रमुख हैं I
• वेस्ट नाइल ज्वर : वेस्ट नाइल विषाणु (Flavivivirus) संक्रमित मुर्गियों से होता हुआ मच्छरों के काटने के माध्यम से मनुष्यों तथा घोड़ों तक पहुंचता है Iइस रोग के प्रमुख नैदानिक लक्षण फ़्लू जैसे होते हैं जिनमें अचानक तीव्र सिर दर्द , ठण्ड लगना ,ज्वर, जी मिचलाना, उल्टी, पेश्यार्ति (myalagia) , पश्च नेत्र गुहा में पीड़ा आदि प्रमुख हैं Iछोटे बच्चों में तीव्र संक्रमण की दशा में मानसिक प्रमाद , पक्षाघात तथा कोमा आदि भी घटित हो सकता है I सन् १९९९ में न्यूयॉर्क में इसकी उपस्थिति के पश्चात संयुक्त राज्य अमेरिका में जोरदार विशाल जनमानस निगरानी तथा नियंत्रण व्यवस्था के द्वारा इसे समाप्त करने का प्रयास किया गया जो कि असफल रहा क्योंकि सन् २००० में पुनः इस विषाणु संक्रमण की उपस्थिति संयुक्त राज्य अमेरिका में पायी गयी I
रिफ्ट वैली ज्वर : आर. वी. एफ. विषाणु के प्राकृतिक प्रसारक मच्छर , चौपाये तथा मनुष्य हैं I मनुष्यों में इस रोग के प्रारम्भ में अस्थायी शारीरिक दुर्बलता के पश्चात ज्वर, पेश्यार्ति (myalagia) तथा व्याकुलता (malaise) के लक्षण पाये जाते हैं जो कुछ लोगों में मष्तिष्कशोथ , दृष्टिपटलीय विसंगतियों तथा रक्तस्राव जैसे दुष्कर कष्टों में परिणत हो जाते हैं I इस रोग के कारण सन् १९७७ में इजिप्ट में सर्वप्रथम सर्वाधिक जनहानि हुई थी जिसके कारण लगभग ६०० रोगियों की इस रोग के कारण मृत्यु हो गयी थी I इसके पहले इस रोग से मृत मनुष्यों की संख्या मात्र ०४ ही आंकलित की गयी थी I अद्यतन आर. वी. एफ. विषाणु द्वारा लगभग १८००० से २००००० की संख्या तक के तीव्र मानव संक्रमण के मामले अनुमानित हैं I
चिकुन गुनिया :
भारत में विगत वर्षों में कई समाचार माध्यमों के द्वारा चिकन गुनिया के नाम से चर्चा में आये इस रोग को मुर्गियों से संबद्ध कर बहुसंख्य जनमानस भ्रमित हो रहा था I वस्तुतः Chikun Gunya एक तंजानियाई शब्द है जिसका अर्थ है ‘ Dubbling up ’ अर्थात दोहरा हो जाना I मुख्यतः ऐडीज़ मच्छरों के काटने से फैलने वाले इस विषाणुज रोग से पीड़ित व्यक्ति के जोड़ो में अत्यधिक पीड़ा होने से वह दोह्ररा सा हो जाता है I इस रोग के लक्षण कभी कभी डेंगू से साम्य होने के कारण भ्रामक स्थिति भी पैदा कर देते हैं I
ऐन्थ्रेक्स :
तिल्ली बुखार के नाम से भी जाना जाने वाला यह रोग बैसिलस ऐन्थ्रेसिस नामक जीवाणु के माध्यम से पशुओं से मनुष्यों तथा मनुष्यों से पशुओं में संचारित होने वाला एक घातक रोग है I मनुष्यों में यह रोग पशुपालकों, वधिकों , ऊन् का कार्य करने वालों तथा भेंड़ पालकों में अधिक होता है Iइस रोग से पीड़ित मनुष्यों में त्वचा, फेफड़ों व आंतों में इस रोग के लक्षण प्रकट होते हैं I हाथ , सिर तथा गर्दन पर विषैली फुन्सियाँ ( Malignant carbuncles ) बन जाती हैं I मनुष्यों में कभी कभी आंत्रीय प्रकार के गिल्टी रोग अथवा फेफड़ों में क्षति की समस्या भी देखने को मिलती है Iपशुओं में इस रोग से बचाव हेतु टीकाकरण तथा मनुष्यों में इस संक्रमण का उपचार ऐंटीऐन्थ्रेक्स सीरम तथा जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा किया जाता है I
.ग्लैंडरस एवं फारसी रोग :
ग्लैंडरस एवं फारसी रोग घोड़ों, गधों, टट्टुओ व खच्चरों में पाया जाने वाला एक जीवाणु जनित संक्रामक एवं जूनोटिक रोग है ।जो कि बरखोलडेरिया मैलियाई नामक जीवाणु से उत्पन्न होता है। यह बीमारी संक्रमित पशुओं से मनुष्यों में फैल सकती है। यह बीमारी लाइलाज और अत्यंत घातक है । इस बीमारी से ग्रस्त पशु इलाज के बाद सामान्य दिखते हुए भी बीमारी को अन्य स्वस्थ पशुओं में एवं मनुष्य में फैला सकते हैं।
रोग के लक्षण: घोड़ों में रोग के लक्षण काफी भिन्नता रखते हैं यह अति तीव्र व दीर्घकालिक दोनों रूपों में होता है तथा कभी-कभी बिना किसी बाहरी लक्षण के घोड़ा बीमार रहता है तथा फेफड़ों में गांठे पड़ जाती हैं। ग्लैंडर्स नेजल/ पलमोनरी या ग्लैंडूल रूप जिसमें त्वचा छत/ फारसी भी होता है या दोनों रूप एक साथ भी हो सकते हैं। घोड़े कभी-कभी खुले घावों के साथ महीनों तक जीवित रहते हैं और रोग का निरंतर फैलाव करते हैं।
तीव्र ग्लैंडर्स: एक्यूट ब्रानको निमोनिया के सभी लक्षण होते हैं जैसे तेज बुखार, स्वास्थ्य में गिरावट, तेज स्वास का चलना जिसके चलते कुछ ही सप्ताह में पशु की मृत्यु हो जाती है। यह रोग गधों एवं खच्चरों में फार्शी रहित या सहित पाया जाता है।
पशुओं में ग्लैंडर्स के लक्षण:
१. तेज बुखार होना।
२. नाक से पीला श्राव आना और सांस लेने में तकलीफ होना।
३. नाक के अंदर छाले एवं घाव दिखना।
४. पैरों, जोड़ो, अंडकोष व सबमैक्सीलरी ग्रंथि में सूजन हो जाना।
फारसी: उपरोक्त के अतिरिक्त जब पूंछ ,गले एवं पेट के निचले हिस्से में गांठ पड़ जाए
एवं त्वचा में फोड़े व घुमडिया, आदि पड़ जाए।
रोग फैलने के कारण:
१. बीमार पशु के साथ रहने से।
२. बीमार पशु के मुंह व नाक से निकलने वाले स्राव से।
३. बीमार पशु व स्वस्थ पशुओं का चारा-पानी एक साथ होने से ।
उपचार: सामान्यता रोग के नियंत्रण हेतु उपचार न करके बीमार पशुओं को नष्ट किया जाना ही प्रभावी होता है।
रोग से बचाव:
१. रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सक से संपर्क कर बीमार पशु की तत्काल स्वास्थ्य जांच एवं रक्त जांच कराना।
२.स्वस्थ पशुओं को बीमार पशुओं से अलग रखना।
३.बीमार पशु को चारा व पानी अलग से देना।
४. अन्य पशु व मनुष्यों में
यह बीमारी न फैले इसके लिए बीमार पशु को मनुष्यों से अलग रखना।
५. स्वस्थ पशुओं को बीमारी घोषित वाले क्षेत्रों में ना ले जाएं ।
६. बीमार पशुओं को मेला, हाट आदि स्थानों पर न ले जाए ।
७. स्वस्थ दिखने वाले पशु की भी प्रत्येक 4 माह पर निकटतम पशु चिकित्सा अधिकारी द्वारा स्वास्थ्य जांच एवं रक्त जांच कराना।
विसंक्रमण:
१.पशु की मृत्यु होने के उपरांत पशु एवं उसकी बिछावन एवं अन्य संपर्क की वस्तुओं को 6 फुट गहरे गड्ढे में चूना और नमक डालकर दबाना।
२.बीमार पशु को आबादी से दूर एवं एकांत स्थान में रखना।
३.पशु को छूने या संपर्क में आने के बाद एंटीसेप्टिक लोशन व साबुन से हाथ धोना।
४.रोग की पुष्टि वाले पशु को दर्द रहित मृत्यु दिलाने में पशु चिकित्सक का सहयोग करना।
मनुष्य में संक्रमण: अमेरिका में सन 2000 में यह बीमारी एक रक्षा वैज्ञानिक को प्रयोगशाला में हो चुकी है। भारत में मनुष्यों में अभी तक इस रोग के होने की पुष्टि नहीं हुई है परंतु खतरा हमेशा बना रहता है।
तपेदिक/ टी. बी. : तपेदिक , क्षय रोग अथवा राजयक्ष्मा पशुओं से मनुष्यों तथा मनुष्यों से पशुओं तक माइकोबैक्टीरियम बोविस या माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस जीवाणु के द्वारा फैलने वाला दीर्घकालिक महत्वपूर्ण रोग है I गोपशुओं का क्षय रोग मनुष्यों में दूषित दूध तथा दुग्ध उत्पादों द्वारा संचारित होता है I बच्चों में दूषित दूध से क्षय रोग होने की अधिक सम्भावना होती है I पशुपालकों,पशु चिकित्सकों, ग्वालों, बिना उबला या ठीक से पास्तुरिकृत नहीं किया दूध पीने वाले व्यक्तियों में तथा दूषित केक , पेस्ट्री व आइसक्रीम द्वारा अन्यान्य लोगों में भी यह रोग फैल सकता है I क्षय रोग से प्रभावित रोगी में सामान्यतः शारीरिक दुर्बलता ,थकान, सुस्ती , हल्का ज्वर ( 99 -100 0 F ) , शरीर में दर्द रात्रि में पसीना आना आदि लक्षण प्रकट होते हैं I साथ में पाचन तंत्र की गड़बड़ी भी पायी जा सकती है I ऐसे व्यक्तियों का रक्त परीक्षण करने पर एरिथ्रोसाइट सेडीमेन्टेशन बढ़ा पाया जाता है I
चूंकि पशु से होने वाला क्षय रोग आंतों या लसीका गाँठों को प्रभावित करता है अतः मात्र फेफड़े के एक्स रे से सही निदान नहीं हो पाता I पूर्ण निदान के लिए रक्त के नमूने तथा बलगम की जाँच कराना आवश्यक होता है I रोग का पता चल जाने पर योग्य चिकित्सक की सलाह से लंबे समय तक बिना किसी विराम के उचित उपचार कराना आवश्यक होता है I
जॉहनीस रोग/ पैराट्यूबरक्लोसिस:
यह रोग माइकोबैक्टेरियम पैराट्यूबरक्लोसिस नामक जीवाणु से गाय,भैंस तथा यदा-कदा भेड़ एवं बकरियों में , जीवाणुओं से दूषित पदार्थों को खाने से 6 माह से 2 वर्ष तक के पशुओं में उत्पन्न होने वाला एवं शरीर गलाने वाला रोग होता है।
लक्षण:
रोगी लक्षणों को बहुत विलंब से प्रदर्शित करता है। धीरे धीरे स्वास्थ्य गिरने लगता है। रुक रुक कर अतिसार प्रारंभ हो जाता है बाद में अतिसार तीव्र रूप धारण करता है तथा मल अत्यंत पतला तथा बदबूदार हो जाता है और उसमें म्यूकस के लोथड़े, तथा हवा के बुलबुले आने लगते हैं। प्यास बढ़ जाती है सब मैक्सिलेरी एडिमा उत्पन्न हो जाता है।
निदान:
लंबे समय तक अतिसार, पशु के स्वस्थ शरीर की हालत, शव परीक्षण, मलाशय की दीवार की स्क्रेपिंग तथा लिंफ नोड से प्राप्त इसमीयर, की एसिड फास्ट स्टेनिंग पर जीवाणु का प्रदर्शित होना। जोहनिन परीक्षण द्वारा इस रोग की पुष्टि की जाती है।
बचाव तथा उपचार:
इस बीमारी का कोई मुस्तकिल उपचार नहीं है। प्रतिजैविक औषधि का प्रयोग कर तथा लक्षणों के अनुसार चिकित्सा से अस्थाई लाभ होता है।
ब्रूसेल्लोसिस :
ब्रुसेल्ला जीवाणुओं के माध्यम से मनुष्यों तक संचारित इस रोग के कारण पीड़ित व्यक्ति में अंडुलंट ज्वर ( Undulant Fever) , गर्भपात , बाँझपन , जोड़ों में दर्द , हल्का ज्वर, शरीर में टूटन , रात्रि में पसीना , वृषण में सूजन, कमजोरी, पीठ तथा गर्दन में दर्द आदि लक्षण पैदा हो जाते हैं I यह रोग प्रथमतः ग्रामीण क्षेत्र के उन लोगों को हो जाता है जो रोगी पशुओं के संपर्क में आते हैं , तत्पश्चात इस रोग का अन्यान्य क्षेत्रों में भी प्रसार हो जाता है
लेप्टोस्पाईरोसिस :
यह रोग लेप्टोस्पाईरा प्रजाति के लहरदार जीवाणुओं तथा उनकी उपप्रजातियों द्वारा सीवर में कार्य करने वाले सफाई कर्मचारियों तथा पशुशाला के कर्मचारियों को हो जाता है I पीड़ित मनुष्यों में पीलिया,रक्तस्राव तथा तीव्र ज्वर आदि लक्षण प्रकट हो जाते हैं I मनुष्यों में इस रोग का प्रकोप प्राकृतिक तथा पशुपालन द्वारा उत्पन्न कृत्रिम अवस्थाओं में , पालतू पशुओं के प्रत्यक्ष संपर्क में आने ,पशुओं के मूत्र द्वारा दूषित जल या मिटटी द्वारा होता है I पिछले वर्षों में मुंबई तथा चेन्नई में इस रोग ने मनुष्यों में भारी तबाही मचाई थी जिसका मुख्य कारण चूहों द्वारा संक्रमित पाइप लाइन का पानी बना जिसमें चूहों के उत्सर्जित पदार्थों के कारण पानी में लेप्टोस्पाईरा का संक्रमण देखा गया I
क्यू ज्वर : काक्सिलिया ब्रूनेटी नामक जीवाणु के कारण यह रोग मनुष्यों में प्रसारित होता है जो बिना किसी लक्षण के अथवा महीनों तक गंभीर फ्लू के लक्षणों के साथ भी प्रकट हो सकता है I यह रोग सम्बंधित जीवाणु के भेंड़ , बकरी अथवा गाय के मूत्र एवं अपरा द्रव ( Placental fluid ) के माध्यम से श्वांस के द्वारा मनुष्यों तक पहुँच उन्हें संक्रमित करता है I इस रोग के सहज रोगी भेंड़ पालक , पशु चिकित्सक , वधिक तथा उन उतारने वाले व्यक्ति होते हैं I इस रोग का टीका वैसे तो उपलब्ध है पर यदि उसे पहले से ही रोग प्रतिरक्षी व्यक्ति को लगा दिया जाये तो टीका वाले स्थान पर गंभीर स्थानीय प्रतिक्रिया प्रकट हो जाती है I सन २००५ में आस्ट्रेलिया में क्यू ज्वर के ३५५ मामले पाये गए थे I
क्रिप्टोस्पोरिडियोसिस : क्रिप्टोस्पोरिडियम एक ऐसा प्रोटोजोआ है जो संक्रमण की दशा में तीव्र दस्त की स्थिति पैदा करता है I वैसे तो पशुओं में क्रिप्टोस्पोरिडियम संक्रमण बहुत सहजता से हो जाता है पर नैदानिक लक्षण एक माह से कम आयु के बछड़ों में प्रायः पाए जाते हैं I क्रिप्टोस्पोरिडियम संक्रमित जल अथवा खाद्य पदार्थों के माध्यम से पशुओं तथा मनुष्यों में अपनी पैठ बनाते हैं I जो लोग संक्रमित पशुओं या उनके मल के संपर्कमें आने के बाद अपने हाथों को खूब अच्छी तरह से साफ नहीं करते हैं , स्वयं भी संक्रमित हो जाते हैं I संक्रमित मनुष्यों में अति तीव्र दस्त , पेट में दर्द , उल्टी ,ज्वर तथा मांसपेशियों में खिंचाव व् पीड़ा के नैदानिक लक्षण पाए जाते हैं I
टॉक्सोप्लास्मोसिस : यह भी एक प्रोटोजोआ जनित रोग है जो मनुष्यों में पालतू बिल्लियों के संक्रमित मल के माध्यम से फैलता है जबकि बिल्लियों में यह संक्रमण चिड़ियों , चूहों तथा कच्चे संक्रमित मांस को खानें के द्वारा प्रसारित होता है I अल्प प्रतिरक्षा वाले वृद्धों ,बच्चों तथा ४ माह से कम की गर्भिणी स्त्रियों में इस संक्रमण की अधिक सम्भावना होती है I गर्भवती स्त्रियों में इस संक्रमण के कारण गर्भ विकृति की भी संभावना रहती है I
विसरल लार्वल मायग्रेन : यह भी एक , अंत: क्रमि, निमेटोड के लारवा द्वारा होने वाला रोग है जो प्रमुखतः छोटे बच्चों जो पालतू कुत्तों और बिल्लियों के साथ खेलते हैं , को संक्रमित करता है I इसका कारण टॉक्सोकारा कैनिस या टॉक्सोकारा कैटी नामक नीमैटोड कृमि है जो कुत्तों और बिल्लियों की आंतों में पाया जाता है I बच्चे खेलने के समय जब कुत्तों और बिल्लियों को सहलाते और लिपटते –चिपटते हैं तो ये कृमि अंडे उनके हाथों से होते हुए मुख तक तथा पुनः मुख से होते हुए उनकी आंतों तक प्रवास ( Migrate) कर अंततः बच्चों के शरीर पर उभरे विभिन्न चकत्तों का कारण बनाते हैं I गम्भीर संक्रमण की दशा में ये प्रवासन द्वारा आँखों के रेटिना को रक्त पहुँचाने वाली धमनी को अवरुद्ध कर आंशिक अथवा पूर्ण अंधत्व का कारण बन जाते हैं I

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मनुष्यों में पशुजन्य संचारी रोगों द्वारा संक्रमण से बचाव के कुछ सामान्य उपाय:
 पशु तथा मनुष्यों के रहने के स्थान पर स्वच्छता का निरंतर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है I
 पशु मल मूत्र तथा खाद्य अवशेषों का समुचित निस्तारण आवश्यक है I
 अनजाने तथा छुट्टा पशुओं का आवागमन पशुशाला में यथासम्भव नियंत्रित करना चाहिये I
 पशुओं के संपर्क में आने के बाद हाथों को भलीभाँति साबुन से धोना एक सरल तथा पशुजन्य रोग संक्रमण से बचाव का एक व्यावहारिक निरोधी उपाय है I इसके लिए पशुशाला या पशु चिकित्सा केन्द्र पर साबुन की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिये I
 अपास्तुरिकृत दूध तथा दुग्ध पदार्थों का उपभोग छोटे बच्चों , वृद्ध व्यक्तियों , गर्भवती स्त्रियों तथा अल्प रोग प्रतिरोधी क्षमता वाले व्यक्तियों में पशुजन्यरोग संक्रमण का कारण बन सकता है I अतः सदैव भलीभाँति उबले या पास्तुरिकृत दूध का उपभोग करना चाहिये I
 मांस का खूब भलीभाँति उच्च आतंरिक तापक्रम (1650F से अधिक) के प्रयोग द्वारा भलीभाँति पकाने के बाद ही उपभोग करना चाहिये I
 कच्चे अंडे का खाने में प्रयोग यथासम्भव बचाना चाहिये I
 कच्चे माँस का प्रयोगशाला में भी प्रयोग सदा समस्त संस्तुत सावधानियों के साथ करना चाहिये I
 कच्चे खाद्य पदार्थों के संपर्क में आने वाली सतह तथा समस्त बर्तनों को खूब अच्छी तरह गरम पानी तथा साबुन की सहायता से साफ़ करने के बाद ही प्रयोग करना चाहिये I
 छोटे बच्चों तथा अन्य व्यक्तियों को भी अपने पालतू पशुओं यथा कुत्ते, बिल्ली आदि के संपर्क में आने के बाद अपने हाथों को अच्छे से साबुन से धुलना तथा तत्पश्चात यदि संभव हो तो स्नान करना चाहिये I
 रोगी पशुओं का सदैव स्वस्थ पशुओं तथा मनुष्यों से पृथक्कीकरण प्रारम्भ में ही सुनिश्चित करना चाहिये I
 नवीन पशुओं का आयात करने के पश्चात उनका समुचित संगरोध ( Quarantine ) सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक है I
 पर्याप्त मात्र में व्यक्तिगत निरोधी वस्तुओं यथा दस्ताने , चश्मे तथा गैस मास्क की पशुपालन तथा पशुचिकित्सा से जुड़े व्यक्तियों के पास उपलब्धता तथा उपाय l

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वर्तमान में मनुष्यों में फैली हुई कोविड-19 महामारी से पालतू पशु एवं वन्य जीव भी प्रभावित हो सकते ।
आज के बदलते परिवेश में
कोविड-19 महामारी के समय में पशुओं के सामान्य प्रबंधन हेतु महत्वपूर्ण सलाह:

सबसे पहले पशुपालको को यह समझना जरुरी है कि किसी को खांसी, सांस लेने में तकलीफ आदि जैसे लक्षण होने पर ही उसे कोरोना का संक्रमण हो यह जरुरी नहीं है, बल्कि यह विषाणु, स्वस्थ दिखने वाले किसी भी व्यक्ति के शरीर में मौजूद हो सकता है तथा उन्हें संक्रमित कर सकता है l इसलिए वे खुद को व अपने पशुओं को संक्रमण संभावित स्थानों व इंसानों से दूर रखेंl हालाँकि अभी तक ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि पशु इस वायरस को फ़ैलाने में मत्वपूर्ण भूमिका निभाते है परन्तु ऐसी सम्भावना हो सकती है जिसमे कुछ विशेष परिस्तिथियों में यह वायरस, उत्परिवर्तन द्वारा पशुओं से इंसानों एवं इंसlनो से पशुओ में भी फ़ैल सकता है। इसीलिए राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद पूसा नई दिल्ली एवं भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज्जत नगर, बरेली द्वारा कोविड-19 वैश्विक महामारी से बचाव के लिए दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। जिसके अनुसार सभी पशुपालकों को सावधानी बरतते हुए निम्न बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए जिससे वे अपने पशु व् अपने प्रियजनों को कोरोना जैसी महामारी से बचा सकें:
• पशुशाला में गैरजरूरी व्यक्तियों के आवागमन को तत्काल प्रतिबंधित कर दें व अपने पशुधन को भी सार्वजानिक/ खुले स्थानों पर न बांध कर अपने घर/बाड़े में ही बाँधे। यदि पशु बीमार है तो घर पर ही प्राथमिक उपचार करे या फोन पर पशुचिकित्सक से परामर्श लेवें और बहुत जरुरत होने पर ही पशुचिकित्सक को अपने घर पर बुलाएं।जब भी आप पशुशाला में जाएं तो अपने मुँह व चेहरे को मास्क या कपड़े से ढक कर ही जाएं ताकि यह वायरस सांस के द्वारा आपके शरीर में प्रवेश न कर सके।पशुशाला के द्वार पर सैनिटाइज़र या साधारण साबुन व् पानी रखें तथा पशुशाला में प्रवेश से पूर्व व निकलते समय अपने हाथ अच्छे से धोएं व उसके पश्चात् ही अपने मास्क आदि को छुएं।यदि अस्वस्थ महसूस कर रहे हो तो पशुशाला में न जाए व स्वस्थ होने तक सामाजिक दूरी बना कर रहें।
बड़ी पशुशाला में यदि एक से अधिक श्रमिक कार्य करते है तो रोजमर्रा के कार्यों के दौरान उन्हें सामाजिक दूरी (कम से कम 2 गज) बनाए रखने व् हर 2-3 घंटे के पश्चात् हाथ धोने के लिए प्रेरित करे। पशुशाला में कोई भी कर्मचारी बाहर से न आये तथा पशुपालक उनके रहने, खाने व् रोजमर्रा के कार्यों की समुचित व्यवस्था कार्यस्थल पर ही करें।पशुशाला में कार्य करने वाले सभी व्यक्तियों के पशुशाला व घर के लिए अलग अलग कपड़े होने चाहियेंl पशुशाला में उपयोग होने वाले सामान व उपकरण को नियमित रूप से साफ़ करे।पशुओं के बाड़े को 1% हाइपोक्लोराइट घोल के साथ रोजाना दो बार साफ़ करें। धातु के बर्तनों को किसी डिटर्जेंट के घोल से साफ़ करें या 70% अल्कोहल भी उपयोग कर सकते है।स्वच्छ दूध सुनिश्चित करने के लिए अयन व थनों को एंटीसेप्टिक घोल जैसे पोटासियम परमैंगनेट (लाल दवा) 1:1000 या नीम की पत्तियों के उबले हुए पानी से, धो लेने के पश्चात् ही दूध दोहन करें।यदि सुरक्षित तरीके से दूध नहीं बेच पा रहे है तो घी आदि बनाकर संग्रहित कर ले व् छाछ आदि पशुओं को पिलाएं।सभी नमस्कार करने की आदत डालें व हाथ मिलाने से बचे।
पशुशाला से सम्बंधित सभी व्यक्तियों के फोन में आरोग्य सेतु अप्लीकेशन सुनिश्चित करे व समय समय पर उसके द्वारा अपने स्वास्थ्य की जांच करते रहेंl जितना हो सके नकद लेनदेन की अपेक्षा ऑनलाइन माध्यम ही अपनाएं। अपने मोबाइल में आयुष सुरक्षा कवच भी डाउनलोड करें।
इन सभी उपरोक्त बातों का ध्यान रखने से हम कोरोना महामारी से ही नहीं बल्कि लगभग सभी, संचारी जूनोटिक बीमारियों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है व स्वयं एवं अपने परिवार को सुरक्षित भविष्य दे सकते हैं।

प्रमुख संचारी रोगों के कारण, लक्षण एवं बचाव

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