Zoopharmacognosy : Base of Ethnoveterinary Treatment Practices
जूफार्माकोग्नॉसी: एथनोवेटरीनरी चिकित्सा का आधार
जसवीर सिंह पंवार1 एवं के.एल. दहिया2
1उपमण्डल अधिकारी, 2पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणा
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सारांश: आमतौर पर आप बहुत बार सुनते हैं कि जीवन एक विद्यार्थी है अर्थात जीवन में हम सतत् किसी-न-किसी से कुछ सीखते रहते हैं और ज्ञान किसी से भी लिया जा सकता है, फिर चाहे वह एक व्यक्ति हो, कोई भी जीव, कीट-पतंगा हो, हर किसी से सीखा जाता है। जूफार्माकोग्नॉसी कई प्रकार के जानवरों की स्व-औषधी व्यवहार का बहु-विषयक दृष्टिकोण है, जो रसायनों की परस्पर क्रिया की उस वैज्ञानिक प्रगति को संदर्भित करती है जिसके द्वारा जानवर स्वयं की व्याधियों और बीमारियों के नियंत्रण और उपचार के लिए प्राकृतिक आवास में स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक यौगिकों जैसे कि मृदा के साथ-साथ कीटों और पौधों का निर्णय करना और उनका दोहन करके स्वयं चिकित्सा करते हैं। इस लेख में, स्तनधारियों, पक्षियों और कीटों में देखे जाने वाले कुछ प्रकार के असामान्य व्यवहार की संक्षिप्त समीक्षा की गई है, जिन्हें स्व-औषधी के रूप में माना जा सकता है।
प्रमुख शब्द: जूफार्माकोग्नॉसी, बहु-विषयक दृष्टिकोण, भक्षण, एंटिंग, स्नान, जानवर स्व-चिकित्सा, एथनोवेटरीनरी
जीवन सीखने और सीखाने की एक कला है जिसके अंतर्गत एक जीव के सीख लेने से दूसरे जीव को भी सीखने की परंपरा प्रकृति ने मानव सहित सभी जीवों की प्रदान की है। मनुष्य के रूप में हमने कई चीजों को सीमित मान लिया है। किसी भी बीमारी के मामले में, कुछ नियंत्रण और इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाते हैं। हालाँकि, वनस्पतियों और जीवों के लिए ऐसी क्षमताएँ मौजूद नहीं हैं। यह इस तथ्य के कारण है कि उन्होंने प्रगति की ओर अनुकूलित किया है और मिट्टी, खनिज, शैवाल, और पूरक उपचारों के लिए एक सहज जुड़ाव प्राप्त किया है जो पर्यावरण उन्हें उन बीमारियों से अपने स्वास्थ्य को नवीकरण (Restore) करने के लिए प्रदान करता है जिससे वे पीड़ित हैं। हम यह भी देखते हैं कि अत्यधिक गर्मी से बचने के लिए जानवर छायादार अर्थात ठंडक प्रदान करने वाले स्थान पर चले जाते हैं, प्यासे जानवर पानी की तलाश करते हैं, व्याकुल जानवर सुरक्षा की तलाश करते हैं। इससे यह पता चलता है कि पक्षियों और कीड़े-मकोड़ों सहित जानवर कई तरह की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बीमारियों का स्वयं उपचार अर्थात स्व-चिकित्सा (Self-medication) करते आ रहे हैं। स्व-चिकित्सा बुद्धिमत्तापूर्वक निपुणता है जो प्राकृतिक बहुभिन्नरूपी समूहों के अंतर्गत कार्य करती है। कई मामलों में अरूचिकर व्यवस्था को तत्काल पूरा करने की लालसा से स्व-चिकित्सा को अपनाया जा सकता है। कुछ प्रजातियों, खासतौर से गोरिल्ला जैसे बड़े वानर उनकी स्व-चिकित्सा के औचित्य की पुष्टि भी करते हैं। और इसके परिणामस्वरूप ‘जूफार्माकोग्नॉसी’ (Zoopharmacognosy) शब्द की व्युत्पति हुई।
यह सर्वविधित है कि चिकित्सा क्षेत्र में व्यापक खोजें होने के बाद अस्तित्व में आयी आधुनिक चिकित्सा पद्दति के बावजूद भी स्व-चिकित्सा विश्व के हर भाग में प्रचलित है। स्व चिकित्सा की कहानी की शुरूआत लगभग एक शताब्दी पहले तंजानिया के चिकित्सा व्यक्ति, बाबू कलंडे की एक महत्वपूर्ण खोज से शुरू होती है, जिसने अपने गाँव में पेचिश जैसी महामारी से पीड़ित कई लोगों के जीवन को बचाया। उन्होंने वाटोंग्वे (WaTongwe) पौधे के संभावित औषधीय मूल्य के बारे में सीखा, जो कि इसी तरह के पौधे मुलेंगलेले (Mulengelele) को बीमार युवा साही (Porcupine) को इस पौधे की जड़ों को खाते देखा। इन घटना को देखने से पहले, बाबू कलंडे और उनके गाँव के लोगों ने इस पौधे से परहेज किया था, जिसे वे अत्यधिक जहरीला मानते थे। ग्रामीणों को साही की अपनी कहानी बताने के बाद, हालांकि – उसने पौधे की थोड़ी लेने के बाद गाँव के लोगों पौधे का उपयोग करने के लिए राजी किया। आज तक, वाटोंग्वे दवा के रूप में मुलेंगेलेले की जड़ों का उपयोग करते हैं। बाबू के पोते, मोहम्मदी सेफू कलंडे, जो अब एक सम्मानित बड़े और हीलर हैं, इस पौधे का उपयोग गोनोरिया (Gonorrhea) और सिफलिस (Syphilis) का इलाज करने के लिए भी करते हैं (Huffman 2001)। पशु स्व-औषधी और एथनोवेटरीनरी पद्दतियों का अध्ययन चिकित्सा के भविष्य के स्रोतों में महत्वपूर्ण नेतृत्व प्रदान करता रहा है।
गैर-मानव कशेरुकियों (Non-human vertebrates) में स्व-चिकित्सा की अवधारणा को पहली बार पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के एक पारिस्थितिकीविद् (Ecologist) डैनियल एच जानजेन द्वारा 1978 में प्रस्तावित किया गया था। वह विभिन्न प्रकार के जानवरों में संभावित स्व-चिकित्सकीय व्यवहार के सभी उपाख्यानों (Anecdotes) को संकलित करने वाले पहले व्यक्ति हैं। जानजेन ने तर्क दिया कि इन असामान्य आहारीय आदतों को समझाने के लिए अकेले ऊर्जा की आवश्यकता पर्याप्त नहीं है और इस संभावना को बढ़ाया कि जानवर पौधों के द्वितीयक चयापचयों (Secondary metabolites) को उत्तेजक (Stimulants), रेचक (Laxatives), परजीवीरोधी और एंटीबायोटिक्स के रूप में या पहले से उपभोग किए गए विषाक्त पदार्थों के लिए विषहर औषधि (Antidote) के रूप में उपयोग कर सकते हैं (Raman & Kandula 2008)। 1993 में, एलॉय रोड्रिग्ज (Eloy Rodriguez) और रिचर्ड रैंगहैम (Richard Wrangham) ने बीमारी की रोकथाम और उपचार के लिए जंगली जानवरों द्वारा पौधों के उपयोग के वैज्ञानिक अध्ययन का वर्णन करने के लिए “जूफार्माकोग्नॉसी” शब्द का प्रस्ताव रखा (Rodriguez & Wrangham 1993)। शाब्दिक रूप से ज़ूफार्माकोग्नॉसी शब्द ग्रीक भाषा के शब्द ज़ू (एनिमल अर्थात जानवर), फ़ार्माकोन (ड्रग अर्थात औषधि) और ग्नोसी (ज्ञान) से लिया गया है।
‘जूफार्माकोग्नॉसी’ उन रसायनों की परस्पर क्रिया का वैज्ञानिक अध्ययन है जो उस प्रगति को संदर्भित करती है जिसके द्वारा जानवर स्वयं की व्याधियों और बीमारियों के नियंत्रण और उपचार के लिए प्राकृतिक आवास में स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक यौगिकों जैसे कि मृदा के साथ-साथ कीटों और पौधों का निर्णय करना और उनका दोहन करके स्वयं चिकित्सा करते हैं।
जानवरों द्वारा अपनायी गई स्वचिकित्सा को मनुष्य खासतौर से वनवासी अर्थात आदिवासी लोगों द्वारा अपनाया गया और इससे ‘एथनोमेडिसिन’ अर्थात परंपरागत चिकित्सा की उत्पत्ति हुई माना जा सकता है जिसे मनुष्यों द्वारा अपने पालतू जानवरों में उपयोग से ‘एथनोवेटरीनरी चिकित्सा’ अर्थात पशुओं की परंपरागत चिकित्सा की उत्पत्ति हुई।
जूफार्माकोग्नॉसी का महत्व
जैसा कि प्रकृति हर दिन, हर पल जानवरों और मानव के लिए उदारवादी (Moderate) होती है लेकिन मानव अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए पृथ्वी को तोड़ते रहते हैं। स्मरण रहे कि अब पृथ्वी के दुरूपयोग करने का समय नहीं है और पर्यावरण की रक्षा के लिए कार्य करने की आवश्यकता है। जूफार्माकोग्नॉसी के विचारशील परिणाम और जानवरों और मानवों के लिए इसकी क्षतिपूर्ति से उस अनिवार्यता को जोड़ने में मदद मिलती है जिसमें मानव जाति को विभिन्न प्रकार की प्रजातियों से समृद्ध निवास स्थान को बनाए रखना चाहिए और जैव विविधता को संरक्षित करना चाहिए। यह न केवल हमारी पृथ्वी की मिश्रित प्रजातियों और पारिस्थितिक तंत्रों को उनकी सुंदरता और ज्ञान के लिए हमारे अपने अभियान में शामिल होने के लिए संरक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि सबसे प्रमुख रूप से हमारे द्वारा धारण किए गए अनिर्णयों के कारण न जाने क्या प्रभाव हो सकते हैं (Shukla et al. 2021)।
जीवों और मनुष्यों के जीवन को आगे बढ़ाने के लिए प्राणी औषधि का एक बहु-विषयक दृष्टिकोण होना चाहिए जिससे यह समझने की आशा है कि कुछ प्रजातियां विलुप्त क्यों हो जाती हैं और इस विलुप्तीकरण को रोकने के लिए मनुष्य विशेष तरीके अपना सकते हैं। चिकित्सीय सहयोगियों द्वारा विभिन्न प्रजातियों के लिए नए सुधारों और औषधपत्रों (Prescriptions) के सशक्त प्रकटीकरण को अपनाना चाहिए। प्राकृतिक जीवविज्ञानियों, विशेषज्ञों, फार्मास्युटिकल संगठनों और संरक्षकों द्वारा एकत्र किए जाने वाली कई कमियों को दूर करने के लिए ज़ूफार्माकोग्नॉसी परिस्थितियों को साझा करने के लिए उपयुक्त होगी (Shukla et al. 2021)। जूफार्माकोग्नॉसी के वे सभी क्षेत्र जैसे कि व्यवहार, वनस्पति विज्ञान और चिकित्सा और जिनमें भविष्य की पीढ़ियों को लाभ पहुंचाने के लिए मौजूदा ज्ञान को फलीभूत किया जा सकता है लेकिन भविष्य में वन्यजीवों और उनके आवासों के बिना, अध्ययन करने के लिए बहुत कम ज्ञान होने की संभावना दिखायी देती है। विश्वभर में एंटीबायोटिक और कृमिनाशक औषधियों के मौजूदा शस्त्रागार (Arsenal) में बढ़ते रसायन प्रतिरोध (Chemoresistance) के साथ, जूफार्माकोग्नॉसी ज्ञान के संभावित स्रोत को गायब नहीं होने देना नहीं चाहिए (Biser 1998)। स्मरण रहे कि जूफार्माकोग्नॉसी औषधियों और चिकित्सीय ज्ञान और समझ के लिए एक महत्वपूर्ण और एक आवश्यक योगदानकर्ता के रूप में बनी रहेगी, और इस प्रकार विश्वभर में यह किसी भी सार्थक शैक्षणिक फ़ार्मेसी कार्यक्रमों का एक अभिन्न अंग होना चाहिए।
ज़ूफार्माकोग्नॉसी के प्रकार
- मृदाभक्षण
‘मृदाभक्षण’ (Geophagy) शाकाहारी और सर्वाहारी स्तनधारियों, पक्षियों, सरीसृपों और कीटों द्वारा जानबूझ कर मिट्टी, पत्थरों और चट्टान का उपभोग करने का एक कार्य है। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात होता है कि मृदाभक्षण से आँतों की पीएच (pH) को संतुलित बनाए रखने के लिए, सूक्ष्म खनिज तत्वों (Trace minerals) के लिए पोषण संबंधी और सोडियम की विशिष्ट आवश्यकता को पूरा करने के लिए, पहले से उपभोग किए गए पौधों के द्वितीयक चयापचयों (Secondary metabolites) का विषहरण (Detoxify) करने और दस्त जैसी आंतों की समस्याओं से निपटने के लिए पाया गया है।
मिट्टी के विश्लेषण से खनिजों की दृष्टि से हेलोसाइट (Halloysite), मेटाहेलोसाइट (Metahalloysite) और काओलिनाइट
मृदाभक्षण: फार्म पर सीमेंट कंक्रीट से बने स्तंभ को चाटते हुए (बांयी ओर); पर्वतीय चट्टान को चाटते हुए गोपशु (दांयी ओर) |
(Kaolinite) इत्यादि तीन प्रकार की मृदाओं की उपस्थिति का संकेत मिलता है। दिलचस्प बात यह है कि व्यावसायिक रूप से उपलब्ध दस्तरोधी फार्मूलों में काओलिनाइट प्रमुख घटक होता है (Huffman 1997, Lozano 1998, Engel 2002)।
- असामान्य पौधों को चबाना या खाना
माइकल एलन हफ़मैन (Michael Alan Huffman) ज़ूफार्माकोग्नॉसी के अग्रदूतों में से एक हैं, जिन्होंने अगस्त से दिसंबर 1987 की अवधि के दौरान चिंपैंजियों के एक समूह में महाले पर्वत राष्ट्रीय उद्यान, तंजानिया में अपने पर्यवेक्षणीय (Observational) अध्ययन किए। इस समूह में, एक बीमार मादा वयस्क चिंपैंजी, जो वर्नोनिया एमिग्डलिना (Vernonia amygdalina) पेड़ की ताजी युवा शाखाओं की छाल छिल कर (आधार पर लगभग 2.5 सेंटीमीटर व्यास और नोक पर 1.0 सेंटीमीटर) लगभग 25 सेंटीमीटर लंबी लचीली एवं रसीली मज्जा (Pith) को दिन में कई बार चबा कर उनका रस पीने से ठीक हो गई थी। हालांकि, जानकारी सीमित है, लेकिन, विभिन्न स्रोतों से विचारोत्तेजक (Suggestive) साक्ष्य और वर्नो. एमिग्डलिना के परंपरागत चिकित्सीय (Ethnomedicinal) उपयोग में दिलचस्प समानताएं हैं जिसे चिंपैंजियों द्वारा पहचाना गया है और चिंपैंजियों द्वारा औषधीय पौधों के अधिग्रहण और उपयोग के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न करती है। यहां, यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि वर्नो. एमिग्डलिना और इसी तरह की प्रजाति वर्नो. कलरटा (V. colorata), जिसमें समान औषधीय गुण हैं, अफ्रीकी लोगों द्वारा कई विकारों/बीमारियों के उपचार के लिए परंपरागत औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है (Huffman & Seifu 1989)। हफमैन और उनके सहयोगियों ने इस पौधे में वर्नोनियोसाइड बी-1 (Vernonioside B-1) को पृथक किया, जिसके परजीवीरोधी (Antiparasitic), अर्बुदरोधी (Antitumour) और जीवाणुरोधी गुण पाए गए (Clark & Smeraski 1990)।
- पत्तियां निगलना और कृमि निष्कासन
अफ्रीकी बड़े वानरों में पत्ती-निगलने वाले व्यवहार की सूचना सबसे पहले रिचर्ड रैंगहैम और तोशिदा निशिदा द्वारा गोम्बे और महाले में चिंपैंजियों के लिए दी गई थी। उनके यह ध्यान में आया कि गोबर में एस्पिलिया मोसाम्बिकेंसिस (Aspilia mossambicensis), एस्पि. प्लुरिसेटा (A. pluriseta) और एस्पि. रूडिस (A. rudis) की मुड़ी हुई, पूरी और अपचित पत्तियों को खोजने के बाद पत्ती निगलने से कोई पोषण मूल्य प्रदान करने की संभावना नहीं थी। इस व्यवहार में उत्पन्न रुचि ने कई शोधकर्ताओं को अपने अध्ययन स्थलों पर वानरों द्वारा पत्ती निगलने के शोध लिए प्रेरित किया (Huffman 2010)। वर्षा काल में यह व्यवहार सबसे अधिक बार पाया गया था जब जठरांत्र (Gastrointestinal) में गोल कृमियों के संक्रमण का खतरा सबसे अधिक होता है (Wrangham 1995; Huffman et al. 1996)। अधिकतर मामलों में, ऐसा व्यवहार करने वाले जानवरों में कथित तौर पर तीव्र रोग के कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिखायी देते हैं। हालांकि, एक अध्ययन में, एस्पिलिया पौधे की पूरी पत्तियों को निगलते हुए देखे गए चिंपैंजियों में आमतौर पर दस्त के लक्षण और आराम करने या सोने की प्रवृत्ति में वृद्धि देखी गई (Huffman et al. 1996)। निष्कासित आंतों के गोल कृमियों के साथ पूरी पत्तियां मल में पाई गईं। ऐसा गया है कि परजीवी पूरे पत्ते निगलने से प्रेरित जठरांत्रिय गतिशीलता में वृद्धि से दस्तावर मल में निष्कासित होते हैं। यह भी पाया गया कि एक चिंपैंजी एक बैठक में 1-100 पत्तियां तक निगल सकता है। पौधे की कड़वी मज्जा चबाने के विपरीत, एक चिंपैंजी दिन में एक से अधिक बार और कई दिनों तक पत्तियों को निगल सकता है। चिंपैंजी पहले भोजन से पहले और/या अपेक्षाकृत खाली पेट अपने सोने के घोंसले को छोड़ने के बाद पहले कुछ घंटों के भीतर पत्तियों को निगल लेते हैं (Huffman & Caton 2001)। व्यवहार को प्रभावी बनाने के लिए इस समय को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। हालांकि, दस्त और आराम करने और सोने की प्रवृत्ति जड़ी-बूटीयुक्त औषधि के चिकित्सीय तरीके का सुझाव देती है, लेकिन वर्षाऋतु में पूरी पत्ती निगलने की बढ़ती आवृत्ति (Frequency) एक रोगरोधी साधन का सुझाव देती है (Hart 2005)।
बैरी गिल्बर्ट (मत्स्य और वन्यजीव विभाग, यूटा स्टेट यूनिवर्सिटी) द्वारा अलास्का के भूरे भालू के मल में अपचित पौधों की पत्तियां और फीता कृमि के बड़े पैमाने पर इसी तरह के अवलोकन क्रियाविधि (Mechanism) और कार्य (Functions) दोनों में अफ्रीकी वानरों के साथ कुछ ध्यान आकर्षित करने वाली समानताएं सुझाते हैं। गिल्बर्ट ने अलास्का के कटमई नेशनल पार्क में ब्रुक्स नदी में 6 साल के व्यवहार अध्ययन के दौरान भूरे भालू द्वारा सीतनिद्रा (Hibernation) में जाने से पहले पतझड़ के महीनों (Fall months) में विषम (Anomalous) पौधों के अंतर्ग्रहण (Ingestion) के रूप में पहली बार देखा। तटीय क्षेत्रों में वसंत (Spring) के दौरान, भूरे भालू के आहार में 100 प्रतिशत ज्वारनदमुखी प्रतृण (Estuarine sedge) होता है और सैल्मन (Salmon) मछलियों के आने से पहले प्रतृण की केरेक्स प्रजाति (Carex species) की पादप सामग्री खाते पाये गये। वर्ष के इस समय में, प्रतृण की खपत प्रोटीन सामग्री के बढ़ते चरण और कम संरचनात्मक सेलूलोज़ के साथ अत्यधिक सहसंबद्ध है। इस पतझड़ के मौसम में, हालांकि, उच्च वसा सामग्री वाले पादपीय चारे की उपलब्धता रहती है, निश्चित रूप से इस प्रतृण को दूर किया जा सकता है, जो वसंत में विकास के अपने कम से कम लकड़ी की तरह सख्त चरण में भी अक्षम रूप से पच जाती है। पतझड़ में, केरेक्स प्रजाति के पौधों की पत्तियों में न केवल रेशेदार ऊतकों अधिकता होती है, बल्कि उनके किनारे भी तेज धार वाले और सतह खुरदरी होती है। इसी दौरान, मल के बड़े पिंड, लगभग पूरी तरह से लंबे फीताकृमि से बने, अक्सर देखे जाते हैं और फीता कृमि लगभग पूरी तरह से निष्कासित दिखाई देते हैं (Huffman 1997, Huffman 2010)।
अल्बर्टा विश्वविद्यालय के जैविक विज्ञान विभाग के एमेरिटस प्रोफेसर जॉन होम्स ने कैनेडियन स्नो गीज़ में इसी तरह की घटना का उल्लेख किया है। गर्मियों में उनके दक्षिण प्रवास से पहले, विशेष रूप से किशोर पक्षियों में, महत्वपूर्ण रूप से फीता कृमियों की संख्या होती है। साथ ही वर्ष के इस समय में, होम्स ने हंस की बिष्ठा में अपचित घास और फीताकृमियों के बड़े गोले (Boluses) देखे। जब पक्षियों के इन झुंडों के परजीवी भार को दक्षिण की ओर पलायन करने के बाद मापा गया, तो उनकी मध्य-निचली आंत पूरी तरह से साफ पाई गई, जिसमें कोई फीताकृमि नहीं जुड़ा था। इसका अर्थ है कि ये पक्षी अपने सर्दियों के मैदानों में लंबे प्रवास को पूरा करने के लिए आवश्यक सीमित ऊर्जा भंडार के प्रतिस्पर्धियों से खुद को मुक्त कर सकते हैं (Huffman 1997, Huffman 2010)।
इसलिए, पत्ता-निगलने को स्व-चिकित्सा के रूप में वर्णित किया जाता है जो रासायनिक क्रिया के बजाय यांत्रिक (Mechanical) या भौतिक (Physical) दस्त (Scours) की क्रिया पर निर्भर करती है (Huffman & Caton 2001)। अन्य जानवरों की प्रजातियां परजीवी नियंत्रण के समान तरीकों का उपयोग करती दिखाई देती हैं। जो आकर्षक लगता है वही संभावना भी हो सकती है, कि परजीवियों की आंतों की परेशानी की प्रतिक्रिया विभिन्न स्तनधारियों और जीवों द्वारा यांत्रिक दस्तों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। यदि ऐसा है, तो पशुधन स्तनधारियों द्वारा लकड़ी और अन्य खुरदरी सूखी रेशेदार सामग्री को चबाना पहले की अपेक्षा अधिक अनुकूल भूमिका निभा सकता है (Engel 2002)।
- पोषक तत्वों की कमी के बावजूद छाल और लकड़ी खाना
कई वानर प्रजातियों के आहार में कुछ संभावित औषधीय खाद्य पदार्थ पाए जाते हैं। छाल और लकड़ी स्वभाव से अत्यधिक रेशेदार, अत्यधिक लिग्नित (Lignified), कभी-कभी विषाक्त, अपेक्षाकृत अपचनीय और पोषक तत्वों की कमी होती है। हालांकि वानरों द्वारा जिन पौधों की छाल खायी जाती है, उनकी सूची लंबी है, लेकिन, वास्तव में आहार और सामान्य स्वास्थ्य में छाल के योगदान के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। जेसिका रोथमैन (Jessica Rothman) और उनके सहयोगियों द्वारा सुझाव दिया गया है कि युगांडा के अभेद्य (Impenetrable) वनों में बड़ी मात्रा में मृत लकड़ी का उपभोग करने के लिए गोरिल्लाओं में सोडियम की कमी का कारण दिया गया है (Rothman et al. 2006, Reynolds et al. 2009)। चिंपैंजी भी, कई पौधों की प्रजातियों की छाल और लकड़ी को कभी-कभी खाते पाया गया है। पश्चिमी तंजानिया के महाले में चिंपैंजियों द्वारा पिक्नेंथस एंजोलेंसिस (Pycnanthus angolensis) की खायी जाने वाली छाल का उपयोग पश्चिमी अफ्रीकियों द्वारा दस्तावार, पाचन टॉनिक, वमनकारी और दांतों के दर्द से राहत के रूप में किया जाता है। पश्चिमी तंजानिया के गोम्बे में चिंपैंजी कभी-कभी एंटाडा एबिसिनिका (Entada abyssinica) की छाल भी खाते हैं। घाना में, इस पौधे की छाल का उपयोग दस्तावार और वमनकारी के रूप में किया जाता है। पश्चिम अफ्रीका के बॉसौ (Bossou) में कभी-कभी चिंपैंजियों द्वारा खाए जाने वाले गोंग्रोनिमा लैटिफ़ोलियम (Gongronema latifolium) की छाल अत्यंत कड़वी होती है, और कुछ पश्चिम अफ्रीकी लोग पेट दर्द और आंतों के परजीवी संक्रमण से जुड़े लक्षणों के लिए इसके तनों का उपयोग दस्तावार के रूप में करते हैं (Huffman 1997, Huffman 2010)।
- कसैली छाल को खाना
एशियाई दो सींग वाले गैंडे कभी-कभी मैंग्रोव सेरियोप्स कंडोलियानू (Ceriops cundolleanu) की टैनिन से भरपूर छाल को इतना अधिक खा लेते हैं कि इसका मूत्र गहरे नारंगी रंग का हो जाता है। डैन एच. जेनजेन (1978) के अनुसार, शायद गैंडे ने यह समझते हुए स्व-चिकित्सा की हो सकती है कि सामान्य दस्तरोधी फॉर्मूला एंटरोवियोफॉर्म (Enterovioform) में लगभग 50 प्रतिशत टैनिन होता है। टैनिन आमतौर पर स्तनधारियों द्वारा पौधों को खाने से रोकते हैं क्योंकि उनके कसैलेपन (Astringency) से जानवरों की जीभ सिकुड़ (Puckers) और सूख जाती है और प्रोटीन को बांधकर पाचन क्रिया को बाधित करते हैं। अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि टैनिन आंतों के परजीवियों पर सीधे प्रभाव डालते हैं (Engel 2002)।
- चींटियों को पंखों पर रगड़ना (एंटिंग)
एंटिंग (Anting) एक ऐसे व्यवहार को संदर्भित करता है जिसमें पक्षी चींटियों या चींटियों के विकल्प को कुचल कर अपने पंखों और संभवतः त्वचा को सँवारने के लिए रगड़ते हैं या चींटियों को पंखों में रेंगने देते हैं। पक्षियों में एंटिंग निम्नलिखित तीन प्रकार की पायी गई है (Morozov 2015):
- सक्रिय (Active) या प्रत्यक्ष एंटिंग: सक्रिय एंटिंग प्रक्रिया में पक्षी चींटियों को उनकी चोंच के साथ पकड़ लेते हैं और सीधे उनको पंखों में रगड़ते हैं। सक्रिय एंटिंग के लिए अन्य सजीव और निर्जीव वस्तुओं का उपयोग भी किया जाता है।
- निष्क्रिय (Passive) या अप्रत्यक्ष एंटिंग: निष्क्रिय एंटिंग का अभ्यास करने वाले पक्षी चींटियों की कॉलोनियों में जाते हैं, चींटियों को हमला करने के लिए उकसाते हैं, और उन्हें पंखों से गुजरने देते हैं।
- मध्यक (Intermediate) एंटिंग: कुछ पक्षियों जैसे कि कॉमन ग्रीन मैगपाई (Cissa chinensis), और रेडबिल्ड ब्लू मैगपाई (Urocissa erythrorhyncha); में सक्रिय और निष्क्रिय दोनों प्रकार की मिली-जुली एंटिंग प्रक्रिया पाई जाती है।
यह व्यवहार विभिन्न प्रकार के पक्षियों में पाया जाता है जो यह बताता है कि त्वचा में होने वाली खारिश को शांत करने, पंखों के रखरखाव में मदद करने और त्वचीय परजीवियों की प्रचुरता को रोकने या कम करने के लिए एंटिंग क्रिया का उपयोग किया जाता है। पक्षी अन्य अकशेरूकीय जीवों, पौधों, और निर्जीव वस्तुओं, जैसे कनखजूरा (मिलीपेड), लाइम फ्रूट और मोथबॉल (Mothballs) के साथ भी ‘एंटिंग’ करते हैं, जिनमें से सभी में कुछ परजीवीनाशक गुण होते हैं। स्तनधारियों में भी ‘एंटिंग’ क्रिया देखी गई है (Lozano 1998)।
- स्थानापन्न एंटिंग (Substitutional anting)
स्थानापन्न एंटिंग कार्यसाधन का एक सक्रिय रूप है जिसे तथाकथित चींटी के विकल्प के रूप में भी जाना जाता है। यह दो प्रकार से हो सकता है:
- अकशेरूकीयएंटिंग (Invertebrate anting)
पक्षी कुछ अकशेरूकीय जीवों, उदाहरण के लिए, लहसुनिया घोंघे (Oxychilus alliarius), उभयचर (Amphipods), कनखजूरा (Millipedes), चर्मपंखी (Dermapterans), कमला (Caterpillars), टिड्डे (Grasshoppers), अर्धपंखी (Hemipteran), मीलवर्म (Tenebrio molitor) लार्वा और ततैया (Wasps) को अपने पंखों पर लेपन करते हैं (Morozov 2015)।
वेनेज़ुएला में, आर्द्र गीले मौसम के दौरान जब कीटों के काटने की घटनाएं अधिक होती हैं तब उनसे बचने के लिए केपुचिन बंदर (Cebus olivaceus) अत्यधिक जहरीले कनखजूरा (Orthoporus dorsovittatus) के स्राव (मिलीपेड को काटने और कुचलने से) अपने बालों में रगड़ते हैं। कनखजूरे के स्राव में बेंजोक्विनोन (Benzoquinones) होता है, जो कीट विकर्षक (Repellent) गुणों के लिए जाना जाता है (Weldon et al. 2003)।
- पादप एंटिंग (Plant anting)
कई पौधों की पत्तियों, फूलों और फलों के रस, विशेष रूप से साइट्रस (Citrus), अखरोट के खोल का रस, प्याज, सरसों, सिरका (Vinegar), नमकीनी खीरा (Cucumber), और अन्य उत्पादों जैसे कि गर्म चॉकलेट, साबुन का झाग, बीयर, जलती सिगरेट सहित तम्बाकू उत्पाद, माचिस जलाना या धूनी देना, और कुछ रसायन जैसे कि नेफ़थलीन (Naphthalene), इत्यादि को एंटिंग के विकल्प के रूप में भी उपयोग किया जा सकता है (Morozov 2015)।
पादपीय तत्वों को बालों या त्वचा पर रगड़ना
अगस्त और सितंबर 1991 और जनवरी से जून 1993 के दौरान, मैरी बेकर, एक मानवविज्ञानी (Anthopologist), ने सफेद चेहरे वाले कैपुचिन बंदरों (Cebus capucinus) पर एक प्रयोग किया, साइट्रस (Citrus), क्लेमैटिस (Clamatis) और पाइपर (Piper) वंश (Genras) की पादपीय सामग्री को शरीर पर लगाते हुए देखा गया है जिसमें द्वितीयक यौगिक (Secondary compounds) होते हैं जो कीट-विरोधी और/या औषधीय लाभ पाने के लिए जाने जाते हैं। संभवतः सुविधापूर्वक लेपन (Application) के लिए ये बंदर अपनी लार को इन पौधों के साथ मिलाते हैं और और इस मिश्रण को अपने बालों में रगड़ते हैं। इन पौधों का उपयोग मनुष्य भी कई तरह की त्वचा संबंधी समस्याओं के लिए भी करते हैं। इन तीन पादप वंशों को कई द्वितीयक यौगिकों के लिए भी जाना जाता है जिनका सामयिक (Topical) औषधीय उपयोग होता है (Baker 1996)। कोडियाक भालू (Ursus arctos) वनयमणि (Ligusticum porteri) को सिर पर लगाते हैं, और नवाजो भारतीय (अमेरिकियों) का मानना है कि वनयमणि का उनका चिकित्सा ज्ञान भालुओं से आया है। बंदी कोडियाक भालू वनयमणि पौधे की जड़ों को चबाते और उसमें थूक मिलाते हैं, और फिर लार मिश्रित जड़ को अपने बालों में लगाते हैं। वनयमणि की जड़ों में परजीवीनाशक (Acaricidal) यौगिक होते हैं (Newton & Wolfe 1992)।
- पौधों के रोगाणुरोधी गुण
विश्वभर में कई वानर प्रजातियाँ अंजीर (Fig) खाती हैं। अंजीर की कई प्रजातियों के पेड़ों में परजीवीरोधी गुण पाए गए हैं। मनुष्यों और गैर-मानव जानवरों दोनों पर नैदानिक परीक्षणों से पता चला है कि अंजीर की कुछ प्रजातियों से बने उत्पाद गोल कृमियों जैसे एस्केरिस (Ascaris) और ट्राइकुरिस (Trichuris) के खिलाफ प्रभावी हैं। सभी अंजीर के पेड़ों में मौजूद एक प्रोटियोलिटिक एंजाइम फिसिन (Ficin) एक सक्रिय संघटक के रूप में जाना जाता है। फाइकस ग्लाब्रेटा (Ficus glabrata) वनस्पतिक-दूध (लेटेक्स) की कम से कम 0.05 प्रतिशत सांद्रता एस्केरिड आंत्रकृमि के उपत्वचा (Cuticle) को नष्ट करने और परजीवी के शरीर में अन्य घातक परिवर्तन का कारण बनती है (Huffman 1997, Huffman 2010)।
जंगली अदरक ‘एफ्रोमोमम’ (Afromomum) परिवार की प्रजातियों का गूदा और फल भी अक्सर चिंपैंजियों, बोनोबो (Bonobo – छोटी प्रजाति के चिपैंजी) और गोरिल्लाओं द्वारा खाया जाता है। गोरिल्ला द्वारा खाए गए एफ्रोमोमम प्रजातियों पर साहित्य के एक व्यापक सर्वेक्षण में एस्चेरिया कोलाई (Escheria coli), स्यूडोमोनास एरुजिनोसा (Pseudomonas aeruginosa), यर्सिनिया एंटरकोलिटिका (Yersinia entercolitica), बेसिलस सबटिलिस (Bacillus subtilis), प्रोटीयस वल्गेरिस (Proteus vulgaris), क्लेबसिएला न्यूमोनि (Klebsiella pneumoniae) और सेरासिया मार्सेसेन्स (Serratia marcescens) के खिलाफ महत्वपूर्ण जीवाणुनाशक गतिविधियां पाई गई हैं। इसकी कवकनाशी गतिविधियां कैंडिडा अल्बिकन्स (Candida albicans), ट्राइकोफाइटन मेंटाग्रोफाइट्स (Trichophyton mentagrophytes), एस्परजिलस नाइगर (Aspergillus niger), बोट्रीडिप्लोडिस थियोब्रोमे (Botryodiplodis theobromae) और क्लैडास्पोरियम क्लैडोस्पोरियोड्स (Cladasporium cladosporiodes) की प्रजातियों को बाधित करती है (Huffman 1997, Huffman 2010)।
- जीवाणुओं के साथ सहजीवी (Symbiotic) संबंध
कुछ पक्षी स्वयं आहार का सेवन करने के उपरांत जठरांत्र (Gastrointestinal) पथ में मौजूद जीवाणुओं को पोषित करते हैं जिसके बदले में जीवाणु पक्षी को अपना भोजन पचाने में सक्षम बनाते हैं। होत्ज़िन (Hoatzin) एकमात्र ऐसा पक्षी है जो इस तरह की व्यवस्था के लिए जाना जाता है, जिसे अग्रांत्र किण्वन (Foregut fermentation) कहा जाता है। पत्तियों को खाने वाले (Folivorous- पर्णभक्षी), होत्ज़िन पक्षी, पक्षिजठर (Crop) में कठिनाई से पचने वाली पत्तेदार पौधों की सामग्री को तोड़ने के लिए विशेष फिनोल (Phenol) जीवाणुओं का उपयोग करते हैं। शोधों से संकेत मिलते हैं कि पक्षी की आंत में मौजूद जीवाणु उन पौधों में पाए जाने वाले जहरीले द्वितीयक यौगिकों (Secondary compounds) को भी बेअसर कर देते हैं जिन्हें वे खाते हैं (Clark & Mason 1988, Mamillapalli et al. 2016)।
- बबून द्वारा एंटिसिस्टोसोमल (Antischistomal) पादप आधारित औषध उपयोग
शिस्टोसोमियासिस (Schistosomiasis) एक परजीवी रोग है जो जीनस शिस्टोसोमा पत्ताकृमियों (Trematode) के कारण होता है। मीठे पानी के घोंघे द्वारा छोड़े गए परजीवियों के लार्वा पानी में कार्य करने या नहाने वाले लोगों की त्वचा में घुस जाते हैं। शरीर में, लार्वा वयस्क शिस्टोसोम्स में विकसित होते हैं, जो रक्त वाहिकाओं में रहते हैं। मादाएं अंडे छोड़ती हैं, जिनमें से कुछ मूत्र या मल में शरीर से बाहर निकल जाते हैं। अन्य शरीर के ऊतकों में फंस जाते हैं, जिससे प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (Immune reaction) होती है (Raman & Kandula 2008)।
शिस्टोसोमियासिस के लिए सबसे प्रभावी रसायन-रोगरोधी (कीमोप्रोफिलैक्टिक्स) तत्व, ब्राज़ील में पाए जाने वाले टेरोडोन प्यूबेसेन्स (Pterodon pubescens) पौधे के फलों से निकाला जाता है, और ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह के फल को जंगली जानवरों द्वारा इसके औषधीय गुणों के बजाय इसके खाद्य मूल्य के लिए खाए जाने के लिए बहुत कम सह-विकास (Coevolution) की आवश्यकता होती है (Janzen 1978)।
फिलिप्स-कॉनरॉय (1986) ने अवाश रिवर वैली, इथियोपिया में बबून के आहार की जांच की, जो जलप्रपातों (Waterfalls) द्वारा दो अलग-अलग आवासों में विभाजित हैं, जिसमें ऊपर की ओर पानी का प्रवाह तेजी से होता है, लेकिन जलप्रपात से गिरने के बाद धीमा हो जाता है। घाटी जलप्रपात के ऊपर एनुबिस बबून (Papio anubis) और जलप्रपात के नीचे हमाद्रीस बबून (Papio hamadryas) और एनुबिस-हैमाद्रियस हाइब्रिड से आबाद थी। इन आबादी के लिए शिस्टोसोमियासिस संक्रमण का जोखिम अलग-अलग पाया गया क्योंकि बायोम्फालेरिया (Biomphalaria) प्रजाति के घोंघे (Snails), शिस्टोसोमा प्रजाति के पत्ताकृमि के मध्यवर्ती मेजबान (Intermediate hosts), झरने से ऊपर की ओर अनुपस्थित थे, लेकिन प्रचुर मात्रा में नीचे की ओर थे। अंत में, हालांकि बेलनाइट्स एजिप्टिका (Balanites aegyptica) पौधे की झाड़ियां पूरी घाटी में आम थी। यह पाया गया कि केवल जलप्रपात से नीचे की ओर बबून इसकी पत्तियों और फलों का उपभोग करते थे। बैलेनाइट्स के फलों में डायोसजेनिन (Diosgenin) होता है, जो एक हॉर्मोन अग्रदूत है। फिलिप्स-कॉनरॉय (1986) ने सुझाव दिया कि बैलेनाइट्स का सेवन इसलिए किया जाता है क्योंकि यह शिस्टोसोमा के विकास में बाधा डालता है, लेकिन शिस्टोसोम-संक्रमित चूहों में प्रयोग से पता चला है कि डायोसजेनिन के अंतर्ग्रहण से यकृत में शिस्टोसोम अंडे की संख्या बढ़ जाती है; यह रोग को बढ़ाता है। डायोसजेनिन-खिलाए जाने वाले पशुओं में बीमारी के प्रति प्रतिक्रिया में कमी के बजाय वृद्धि होती है (Phillips-Conroy & Knopf 1986)।
- पर्यावास धूमन (Habitat fumigation)
पक्षियों की कई प्रजातियाँ अपने घोंसलों में ताजी हरी वनस्पतियाँ रखती हैं जो घोंसलों की संरचना का हिस्सा नहीं होती हैं। बाज़ (Falcons) और कराकरा (Caracaras) जैसे फैल्कोनिफॉमीर्ज (Falconiformes) अपने घोंसलों में परजीवी भार को कम करने के लिए अत्यधिक सुगंधित हरी वनस्पतियों को रखते हैं और लगातार वर्षों तक अपने घोंसलों का पुनः उपयोग करते हैं (Wimberger 1984)। पूर्वी उत्तरी अमेरिका में गौरैया (पैसेरिन) पक्षी विशेष रूप से यूरोपीय मैना (Sturnus vulgaris) प्रजनन घोंसला बनाने के लिए हरी वनस्पति का उपयोग करती हैं। यह पाया गया है कि बंद (Enclosed) स्थानों जैसे कि द्वितीयक गुहाओं (Secondary cavities) या दरारों (Crevices) में घोंसले बनाने वाली गौरैया चिड़ियों द्वारा हरे पौधों को अपने घोंसलों में शामिल करने की अधिक संभावना पायी गई, जबकि खुले में घोंसले बनाने वाली गौरैया चिड़ियों में पुराने घोंसले पुनः उपयोग और उनमें हरी वनस्पत्तियों को शामिल करने की संभावना कम देखी गई (Clark & Mason 1985)। उपयोग किए गए पौधे मेनैकैंथस प्रजाति (Menacanthus sp.) की जूंओं के अंडों की अंडजोत्पत्ति (हैचिंग) को कम करने और उपलब्ध वनस्पति के एक यादृच्छिक उपसमुच्चय (Random subset) की तुलना में जीवाणुओं के विकास को रोकने में अधिक प्रभावी पाये गये। बाद में, प्रायोगिक रूप से गौरैयों की पसंदीदा पौधों की प्रजातियों में से एक, जंगली गाजर (Daucus carota) की पत्तियों में गौरैयों के घोसलों में फाउल माइट्स (Ornithonysus sylviarum) की संख्या को काफी कम करने की प्रभावशीलता पाई गई (Clark & Mason 1988)। हालांकि, स्पष्ट रूप से नहीं समझा गया है, लेकिन नर पक्षी विशेष रूप से युवा नर पक्षी भी शायद मादाओं को आकर्षित करने के लिए हरे रंग का उपयोग करते हैं और वास्तव में ये अल्पविकसित मंडप (Rudimentary bower) होते हैं। पौधों में हरी सामग्रियों का उपयोग मलबे को ढकने और घोंसले को साफ रखने के लिए भी किया जाता है। ये घोंसलों के अधिभोग (Occupancy) का दिखावा करते हैं, या अंडों को सूखने से रोकने के लिए भी हो सकता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि क्या अन्य प्रजातियां इसी तरह का व्यवहार करती हैं, और क्या परजीविता (Parasitism) के उच्च जवाब में अधिक हरे पादप पदार्थों का उपयोग किया जाता है (Lozano 1998)।
सांवली टांगों वाले लकड़ी के चूहे (Neotoma fuscipes) कई मौसमों और यहां तक कि पीढ़ियों तक लकड़ी से बने एक ही घर (स्टिकहाउस) का उपयोग करते हैं, इसलिए इन घोंसलों में जन्मे बाह्यपरजीवियों (Nestborne ectoparasites), विशेष रूप से पिस्सूओं से बचने के लिए का जोखिम अधिक होता है। ये चूहे अपने स्टिकहाउस में कैलिफ़ोर्निया बे (Umbellularia californica) और टॉयऑन (Heteromeles arbutifolia) की पत्तेदार टहनियों के साथ-साथ खाद्य भोज्य पदार्थ क्वेरकस प्रजाति (Quercus sp.) के पौधे की टहनी भी साथ लाते हैं। बे पत्ती अन्य पौधों की तुलना में सोने (Sleeping) के घोंसले के पास अधिक बार पाई जाती है (Hart 2005)।
- कीटोंद्वारा स्व–चिकित्सा
कीटों में स्व-चिकित्सा के अब तक के सबसे भरोसेमंद मामले निम्नलिखित कीटों में दर्ज किए गए हैं (Castella et al. 2008, Abbott 2014, Ashwini & Patel 2022):
- चींटियों द्वारा घोंसलों में रोगाणुरोधी अस्तर (Lining)
आमतौर पर, लकड़ी में रहने वाली चींटियां (Formica paralugubris) अपने घरों में बड़ी मात्रा में शंकुधारी (Conifers) पेड़ों की जमी हुई गोंद (राल – Resin) शामिल करती हैं। यह व्यवहार घोंसले के भीतर जीवाणुओं और कवकों (Fungi) के विकास को रोकता है, और विभिन्न प्रकार के रोगजनकों के खिलाफ लकड़ी की चींटियों की रक्षा भी करता है।
- मधुमक्खियोंद्वारा राल संग्रह
मधुमक्खियों में परजीवी भार (Load) को कम करने के लिए राल प्रभावी पाया गया है। मधुमक्खियां (Apis mellifera) कवक रोगजनक एस्कोस्फेरा एपिस (Ascosphaera apis) के साथ प्रतिरक्षा चुनौती के बाद राल संग्रह को बढ़ा देती हैं.
- वूलीबियर कैटरपिलर द्वारा पाइरोलिजिडिन एल्कलॉइड से भरपूर पौधों को खाना
वूली बियर कैटरपिलर (Grammia incorrupta) पाइरोलिजिडिन एल्कलॉइड (जैविक रूप से सक्रिय यौगिक जो गैर-अनुकूलित प्रजातियों के लिए हानिकारक हैं) का उत्पादन करने वाले पौधों की एक विस्तृत श्रृंखला को खाते हैं।परजीवी से संक्रमित होने पर, प्राकृतिक रूप से या लैब सेटिंग में, पाइरोलिजिडिन एल्कलॉइड्स के लिए वूली बियर कैटरपिलर की वरीयता बढ़ जाती है। पाइरोलिजिडिन एल्कलॉइड्स की आहारीय सेवन में वृद्धि परजीवी टैचिनीड मक्खियों (Exorista mella) के अंडों के जीवित रहने की संभावना को कम करती है।
- आर्मीवर्म (Armyworms) द्वाराप्रोटीन के सेवन में वृद्धि
यह पाया गया है कि आर्मीवर्म कैटरपिलर (Spodoptera littoralis) में खाद्य प्रोटीन की मात्रा बढ़ने से न्यूक्लियोपॉलीहेड्रोवायरस (Nucleopoly-hedrovirus) के प्रति प्रतिरोध बढ़ना और संक्रमित कैटरपिलर अधिक प्रोटीन युक्त भोजन करना पसंद करते पाये गये हैं। जिंदा बचे हुए संक्रमित लार्वों ने मृत लार्वों की तुलना में प्रोटीन के उच्च स्तर को चुना, यह दर्शाता है कि आहार विकल्प न केवल सक्रिय था बल्कि अनुकूली भी था जो यह दर्शाता है कि कीट संक्रमण की स्थिति के अनुसार लचीले ढंग से अपने आहार को अनुकूल (Adjust) कर सकते हैं।
- फ्रुटफ्लाई(Fruitfly) द्वारा इथेनॉल बनाने वाले पौधों का सेवन
फ्रुटफ्लाई अर्थात फलों की मक्खियाँ (Drosophila melanogaster) कीटों में स्वचिकित्सा के सबसे अच्छे उदाहरणों में से एक हैं। शोधों में यह पाया गया कि फ्रुटफ्लाई के लार्वों में परजीवी ततैया लेप्टोपिलिना बोलार्डी (Leptopilina boulardi) और लेप्टो. हेटेरोटोमा (L. heterotoma) के संपर्क में आने से इथेनॉल युक्त भोजन के लिए एक सक्रिय प्राथमिकता प्रदर्शित की। फ्रुटफ्लाई अपने प्राकृतिक वातावरण में एल्कोहॉल बनाने वाले खाद्य पदार्थों के संपर्क में आती हैं और इस पर निर्भर करते हुए कि वे ततैया के लार्वों द्वारा परजीवी हैं या नहीं, वे उनका उपभोग करने का विकल्प चुनती हैं। परजीवित (Parasitized) फ्रुटफ्लाई न केवल स्व-चिकित्सा के लिए एल्कोहॉल युक्त आहार का उपयोग करती हैं, बल्कि वे अपनी संतान को परजीवी होने से भी बचाती हैं। मादा ततैया अपने अंडे फ्रुटफ्लाई और उनके लार्वों में देती हैं, इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि मादा फ्रुटफ्लाई ने इससे बचने के लिए एक रक्षा रणनीति विकसित की। जब मादा फ्रुटफ्लाई को मादा ततैया का डर नहीं होता है तो वे कम एल्कोहॉल वाले पौधों पर अपने अंडे देती हैं। जब एक फ्रुटफ्लाई मादा ततैया को देखती है तो वह अधिक एल्कोहॉल बनाने वाले आहार पर अंडे देना शुरू कर देती है, और इस तरह वह अपने लार्वों को परजीवी ततैया से लड़ने के लिए तैयार करती है।
- मिल्कवीडपर भोजन करती तितलियाँ
हालांकि, मोनार्क तितलियां (Danaus plexippus) प्रोटोजोआ परजीवीओफ्रीओसिस्टिस एलेक्ट्रोसिर्रह (Ophryocystis elektroscirrha) के संक्रमण से खुद को ठीक करने में असमर्थ हैं,जिससे वे उड़ने की क्षमता खो देती हैं और अंततः मर जाती हैं। जब मादा तितलियां अंडे देती हैं, तो वे अनजाने में परजीवी को अपने लार्वा में पहुंचा देती हैं। मिल्कवीड मोनार्क बटरफ्लाई लार्वा का पसंदीदा भोजन है। मादा मोनार्क तितलियाँ अपने वंशजों को परजीवियों से बचाने के लिए कार्डेनोलाइड्स (Cardenolides) युक्त औषधीय मिल्कवीड प्रजाति के पौधों पर अपने अंडे देती हैं।
- बाइसन द्वारा छाल खाना
जी.एच. ओगिलवी (G.H. Ogilvie) ने 1929 में देखा कि भारतीय बाइसन (जिसे भारत में गौर के नाम से भी जाना जाता है) नियमित रूप से छोटे आकार के कुटज (Holarrhena antidysenterica) की छाल खाते हैं; जबकि यह निश्चित रूप से ट्रेस खनिजों की खोज में हो सकता है, यह पौधे के विशिष्ट विशेषण से भी संबंधित हो सकता है (Janzen 1978)। उपाख्यानात्मक (Anecdotal) साक्ष्य बताते हैं कि इस पौधे की प्रजाति का नाम पेचिश-रोधी (anti-dysenteric) क्रिया का सुझाव देता है।
- उत्तेजक और मतिभ्रमकारक (Hallucinogens) के रूप में पौधों का उपयोग
अपने उत्तेजक गुण के लिए जाने वाले दक्षिण अफ्रीका में चकमा बबून (Papio ursinus) हर दिन विशिष्ट पौधों की पत्तियों की थोड़ी मात्रा का उपभोग करते हैं। इन पौधों को बबून के नियमित आहार के तहत वर्गीकृत नहीं किया गया, बल्कि उन्हें उत्साहवर्धक (Euphoric) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ऐसे पौधों के सेवन का सीधा संबंध किसी बीमारी या रोगग्रस्त अवस्था से नहीं होता है बल्कि यह उत्तेजक क्रिया को दर्शाता है। सोलैनेसी (Solanaceae) परिवार के धतूरा इनॉक्सिया (Datura innoxia) और धतूरा स्ट्रैमोनियम (D. stramonium) और यूफोरबिएसी (Euphorbiaceae) परिवार के क्रोटन मेगालोबोट्री (Croton megalobotrys) पौधे उत्तेजक गुणों के लिए जाने जाते हैं। इनमें ट्रोपेन अल्कलॉइड होता है (Raman & Kandula 2008, Mamillapalli et al. 2016)।
स्थानीय वन-वासी (Forest-dwelling) लोगों ने कथित तौर पर गोरिल्ला, जंगली सूअर, और सेही (Porcupines) को खोदते और जड़ों को खाते हुए देखकर टबर्नेंथे इबोगा (Tabernanthe iboga) पौधे के मतिभ्रम (Hallucinogenic) गुणों की खोज की। खाने के बाद वे एक जंगली उन्माद में चले गए, ऐसे जैसे कि किसी भयावह प्राणी (Frightening creature) से भाग रहे हों। इस पौधे का उपयोग कैमरून में धार्मिक अनुष्ठानों में भी किया जाता है (Huffman 2010)। इस पौधे की जड़ की छाल में इबोगैन (Ibogaine), इबोगैलिन (Ibogaline), इबोगैमाइन (Ibogamine), टैबरनैन्थिन (Tabernanthine) और वोकांगाइन (Voacangine) रसायन होते हैं (Maciulaitis et al. 2008)। आज, मेथाडोन (Methadone) के विकल्प के रूप में इस पौधे की जांच गंभीर ओपिओइड (Opioid) विकारों के लिए एक मानक उपचार के रूप में की जा रही है (Cloutier-Gill et al. 2016)।
विरुंगा ज्वालामुखी पर्वत श्रृंखला में गोरिल्ला समय-समय पर समुद्र तल से लगभग 1100-3200 मीटर ऊपर ऊपरी ढलानों की यात्रा करने के लिए जाने जाते हैं, ताकि विशाल लोबेलिया (Campanlaceae – कैंपेनलेसी परिवार) और सेनेसीओ (Compositae – कम्पोसिटे परिवार) की प्रजातियों के पौधों को आहार के रूप में खाया जा सके। लोबेलिया (Lobelia) जीनस के सभी सदस्यों में अल्कलॉइड्स जैसे कि लोबेलिन (Lobeline), लोबेलानिडीन (Lobelanidine), और नोरलोबेलानिडीन (Norlobelanidine) होते हैं, जो 15 मिनट तक चलने वाले शरीर पर उत्तेजक (Stimulatory) प्रभाव डाल सकते हैं। उच्च खुराक में मादक (Narcotic) प्रभाव भी हो सकते हैं। नई दुनिया के स्वदेशी लोग उपचार और शराब के रूप में लोबेलिया की कई प्रजातियों का उपयोग करते हैं। गोरिल्ला कथित तौर पर लोबेलिया गिबरोआ (Lobelia giberroa) और लोबेलिया वॉलास्टोनी (Lobelia wallastonii) को कभी-कभार ही खाते हैं (Huffman 2010)।
- पेट की जलन (Irritation) के लिए उपाय
कुत्तों के पास घास को पचाने का साधन नहीं है, क्योंकि उनके पास तंतुओं को तोड़ने के लिए आवश्यक एंजाइमों की कमी होती है फिर भी कुत्ते और बिल्लियाँ उल्टी करने के लिए घास खाते हैं। घास खाने का एक कारण जी मिचलाना भी हो सकता है। यह संभव है कि कुत्तों को पता चले कि यह पेट की जलन के लिए एक अस्थायी समाधान है (Mamillapalli et al. 2016)।
- कृन्तकों द्वारा पौधे के बीजों का कृमिनाशक उपयोग
यह दिलचस्पी की बात है कि सिट्रूलस वल्गेरिस (Citrullus vulgaris) और कुकुर्बिटा मैक्सिमा (Cucurbita maxima) के कृमिनाशक (Antihelminthic) बीज प्राचीन काल से चीन में उस उद्देश्य के लिए खाए जाते रहे हैं; दक्षिणी भारत में, छछूंदर (गनोमीस कोक – Gunomys kok) कुकुरबिटा मैक्सिमा फलों की तलाश करता है और उनके बीज खाता है, और भारतीय रेगिस्तान में पाये जाने वाले गेरबिल (मेरज़ोन्स हुरियानी – Merzones hurrianae) सिट्रूलस कोलोसिंथिस (Citrullus colocynthis) के बीजों के साथ ऐसा ही करता है (Janzen 1978)।
- मारक (Antidote) के रूप में खाना
ऐसे कई मामले हैं जहां पौधों या अन्य परंपरागत रूप से खाने योग्य चीजों को पहले खाए गए अन्य पौधों में विषाक्त पदार्थों के लिए एक मारक के रूप में खाया जाता है। यह भी देखा गया है कि चरवाहे, जब उनके जानवर चरागाहों में जहरीले पदार्थ खा जाते थे, तब वे अपने पशुओं को मौखिक रूप से मिट्टी, विशेष रूप से चिकनी (Clay) मिट्टी देने के लिए उपयोग करते थे।
भारतीय हाथी कभी-कभी खेतों में खड़ी बाजरे की हरी फसल खाने से साइनाइड (Cyanide) विषाक्तता से मर जाते हैं। 1954 में एन.जी. पिल्लई ने इमली के फल, केले के तने, और कसैले अमरूद के रस को मारक के रूप में सूचीबद्ध किया, ऐसे पौधे जिन्हें एक ही समय में आसानी से खाया जा सकता है और पोषक तत्वों की हाथी की खोज के भाग के रूप में भी माना जाता है। उल्टी और दस्त विषाक्त पदार्थों के आंत्र पथ (intestinal tract) से छुटकारा पाने में स्पष्ट रूप से अनुकूल हैं। यह काफी संभव प्रतीत होता है कि, उदाहरण के लिए, पत्तियां खाने वाला बंदर विभिन्न अनुपातों में पत्तियों के साथ फलों को मिला कर खाते हैं ताकि पूरे आंतों के आवेश (Charge) को वांछनीय दर से बढ़ाया जा सके। बंदर जो पत्तियों के विषाक्त पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन करते हैं, वे बड़ी मात्रा में फलों की खोज करते हैं और उन्हें खाते हैं और शरीर से बाहर निकाल देते हैं (Janzen 1978)।
- प्रजनन संबंधी उपाय
कीनिया के सावो पार्क (Tsavo Park) में एक गर्भवती हथिनी से संबंधित एक पशु औषधज्ञ (हर्बलिस्ट) का एक प्रामाणिक उदाहरण प्रतीत होता है, जो इतिहास के सबसे असाधारण मामलों में से एक है। लगभग एक वर्ष इस विशेष हथिनी के अपरिवर्तित दैनिक आहारीय सेवन को देखने के बाद, पारिस्थितिकी विज्ञानी (इकोलॉजिस्ट) हॉली टी. डबलिन (Holy T Dublin) एक दिन हैरान रह गए जब हथिनी सामान्य से कहीं अधिक दूर तब तक (एक दिन में लगभग 17 मील) चली जब वह बोरगिनेसी (Boraginaceae) परिवार से संबंधित एक प्रजाति के एक छोटे से पेड़ तक नहीं आई, रास्ते में उसने कोई आहार नहीं खाया। घटना को डबलिन ने पहले उसे कभी अपने आहार में इस पौधे को शामिल करते नहीं देखा था। डबलिन ने देखा कि, हथिनी ने उस पेड़ को लगभग पूरी तरह से तब तक खाया, जब तक कि उसका केवल ठूंठ (Stump) ही बचा। चार दिन बाद उस हथिनी ने एक स्वस्थ बच्चे (Calf) को जन्म दिया। डबलिन द्वारा की गई जांच से पता चला कि पेड़ की इस विशेष प्रजाति की पत्तियों और छाल से बनी चाय गर्भाशय के संकुचन को प्रवृत (Induce) करती है, जिसे आमतौर पर कीनियाई गर्भवती महिलाओं द्वारा विशेष रूप से प्रसव या गर्भपात को प्रवृत करने के लिए पिया जाता था (Shuker 2001)।
ब्राज़ील की मादा मरीकी बंदर (Brachyteles arachnoides), संभोग अवधि से ठीक पहले, कुछ पेड़ों की पत्तियों और फलों को खाकर खुद को उस अवसर के लिए तैयार करती हैं। अपुलीया लिओकार्पा (Apuleia leiocarpa) और प्लैटिपोडियम एलिगेंस (Platypodium elegans) पेड़ों की पत्तियों में आइसोफ्लावोनोइड्स होते हैं, जो एस्ट्रोजेन के समान यौगिक होते हैं। ये रसायन शरीर में एस्ट्रोजेन के स्तर को बढ़ा सकते हैं, जिससे प्रजनन क्षमता कम हो सकती है। मंकी ईयर (Monkey ear) पेड़ (Enterolobium contortisiliquim) के फलों में स्टिगमास्टीरोल (Stigmasterol) नामक प्रोजेस्टेरोन का प्रणेता (Precurser) होता है, जिससे मादा बंदर के गर्भवती होने की संभावना बढ़ जाती है (Mamillapalli et al. 2016, Shukla et al. 2021)।
- विषरोधी (Antivenomous) पौधे
ब्राजील की लोककथाओं में किसान समुदाय बताते हैं कि कैसे कुछ छिपकली की प्रजातियां जहरीले सांपों से लड़ती हैं और उनके जहर से पीड़ित हुए बिना उन्हें पीटती (Beat) हैं। इन उपाख्यानों (Anecdotal accounts) के अनुसार, टुपिनम्बिस प्रजाति (Tupinambis species) जैसी छिपकली हर बार सांप द्वारा काटे जाने पर खाने के लिए एक विशेष जड़ की ओर जाती हैं, और लड़ने के लिए वापस आती हैं और इसे मार देती हैं। इन लोककथाओं की कहानियों में सूचीबद्ध जड़ी-बूटियों की प्रजातियों में हमारे पास जेट्रोफा इलिप्टिका (Jatropha elliptica) है (Costa-Neto 2012)। इस पौधे में फैटी एसिड, शर्करा, अल्कलॉइड, अमीनो एसिड, कौमारिन (Coumarins), स्टेरॉयड, फ्लेवोनोइड्स, लिग्निन, प्रोटीन, सैपोनिन, टैनिन और टेरपेनोइड्स की उपस्थिति देखी जा सकती है। लोग इस पौधे का उपयोग साँप के काटने, गठिया, यौन रोगों के उपचार के साथ-साथ सूजन-रोधी, बलवर्धक और उपदंश-रोधी औषधि के रूप में करते हैं (Mamillapalli et al. 2016)। भारत की एक लोककथा कहानी स्थानीय पौधों के औषधीय उपयोग का वर्णन करती है। लोककथा के अनुसार, एक टिटिहरी (Vanellus indicus) अपने घोंसले के पास आते एक जहरीले सांप को भगाने के लिए बुग्लॉस चिरेता (Indoneesiella echioides) की टहनियों को उसकी ओर फेंक कर भगा देती है और एक महिला ने उन टहनियों को एकत्रित कर लिया। इस प्रकार इस पौधे के सर्पविषरोधी (Antiophidic) उपयोग की खोज हुई (Topno 1999, Costa-Neto 2012, Mamillapalli et al. 2016)।
- धूल स्नान (Dust bathing)
आमतौर कई पशु-पक्षियों को अपने उपर सूखी भुरभुरी मिट्टी या रेत डालते देखा जा सकता है। हाथी नहाने के बाद अपने उपर मिट्टी डालते हैं। इसे धूल स्नान कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि पशु-पक्षी धूल स्नान बाह्य परजीवियों से बचने के लिए करते हैं।
- कीचड़ स्नान (Mud bathing)
सूअर, भैंसें और कई अन्य जानवर कीचड़ में लेटे दिखायी दे सकते हैं, जिसे कीचड़ स्नान कहते हैं। पशु बाह्य परजीवियों या खुजली को दूर के लिए करते हैं। इसी तरह की प्रक्रिया मनुष्यों में मुल्तानी मिट्टी को पानी घोलकर शरीर या बालों में भी लगाया जाता रहा है।
अंतर्निहित टिप्पणी
हालांकि, बीमारी के दौरान जानवरों द्वारा विशिष्ट पौधों के चयन का तंत्र अभी भी स्पष्ट नहीं है। हालांकि, जूफार्माकोग्नॉसी के क्षेत्र में आगे की खोज हमें व्यवहार, वनस्पति विज्ञान और चिकित्सा के बारे में और अधिक सिखाएगी, वे सभी क्षेत्र जिनमें हम भविष्य की पीढ़ियों को लाभ पहुंचाने के लिए अपने ज्ञान को लागू कर सकते हैं – लेकिन वन्यजीवों या उनके आवासों के बिना, वन्य स्थलों में बढ़ते अतिक्रमण से अध्ययन करने के लिए बहुत कम समय प्रतीत होता है। व्यवहारिक घटना की अप्रत्याशितता; लगातार पालन करने में सक्षम होने की अविश्वसनीयता (Unreliability) और समय के साथ बीमार व्यक्तियों का निरीक्षण, और प्रयोगात्मक कार्यसाधन (Manipulation) पर प्रतिबंध, जूफार्माकोग्नॉसी की जांच के क्षेत्र में प्रमुख बाधाएं (Constraints) हैं।
बेशक, आधुनिक चिकित्सा शास्त्र ने व्यापक उन्नति की है, फिर विश्व के विभिन्न भागों में स्व-चिकित्सा प्रचलित है और इसी स्वचिकित्सा के आधार पर आधुनिक चिकित्सा पद्दति में कई तकनीकों का उपयोग संशोधन के बाद किया गया है। इस मामले में लगभग एक सदी पहले बाबू कलंडे की घटना सच प्रतीत होती है, पशु स्व-औषधी और एथनोवेटरीनरी पद्दतियों का अध्ययन चिकित्सा के भविष्य के स्रोतों को महत्वपूर्ण नेतृत्व प्रदान कर सकता है। जिस तरह से जानवर प्राकृतिक पौधों या उनके उत्पादों का उपयोग करते हैं, उस पर एक नज़र डालते हैं जानवरों की स्व-चिकित्सा, पशुधन और मनुष्यों को संक्रमित करने वाले रोगाणुओं या परजीवियों द्वारा अधिग्रहीत रसायन प्रतिरोध (Chemoresistance) की दर को दबाने (Suppress) या कम करने के लिए व्यवहार्य (Viable) नई रणनीतियों में नई अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
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